भारत क्रिकेट की दुनिया में सिरमौर बना हुआ है। विश्व क्रिकेट में आने वाली कुल धनराशि का 70 प्रतिशत हिस्सा भारत से ही जाता है। भारत में क्रिकेट का जुनून ही ऐसा है कि व्यावसायिक संभावनाओं के द्वार अपने-आप खुल जाते हैं। जहां पैसा आता है, वहां और कमाने का लालच भी पैदा हो जाता है। तब खेल की अस्मिता से ज्यादा महत्व दिया जाने लगता है आर्थिक दोहन को! टेस्ट क्रिकेट के 5-दिनी प्रारूप को बदलने की चर्चा इसी व्यावसायिक भूख का नतीजा है। टेस्ट क्रिकेट को रोमांचक और परिणामजनक बनाने के लिए गुलाबी गेंद के इस्तेमाल और दिन-रात के मैच की बात तो समझ में आती है, लेकिन पांच दिन के बजाय चार दिन का टेस्ट मैच करने की चर्चा विध्वंसक है। पांच दिन के खेल में क्रिकेट खिलाड़ी के धैर्य, तकनीक, तरकीब, जीवटता और चरित्र की परीक्षा होती है। इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया या ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण अफ्रीका के बीच खेली जाने वाली टेस्ट शृंखला पांच दिनी टेस्टों के कारण ही आखिरी दिन तक रोमांचकारी साबित हुई। शुक्र है कि सचिन तेंडुलकर और विराट कोहली जैसे सितारे पांच दिनी टेस्ट की ही वकालत कर रहे हैं। डॉन ब्रैडमेन, सुनील गावस्कर, सचिन तेंडुलकर या विराट कोहली जैसे खिलाड़ी टेस्ट क्रिकेट की पवित्रता और उसमें हासिल कीर्तिमानों को ही अपने दिल के करीब रखते हैं।
कहते हैं कि घरेलू क्रिकेट ही देश की प्रतिभाओं को विकसित करने की पहली सीढ़ी है। लेकिन आज घरेलू क्रिकेट के हालात देख कर दुख होता है। भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड बड़ी धनराशि खर्च करके रणजी ट्रॉफी और दलीप ट्रॉफी जैसी घरेलू क्रिकेट स्पर्धा आयोजित कर रहा है। मगर दर्शक उसे नकार रहे हैं। खाली-खाली स्टेडियमों में खेली जा रही रणजी ट्रॉफी प्रतियोगिता आपको आश्चर्यचकित करती है। एक समय था, जब दिल्ली और मुंबई के बीच रणजी ट्रॉफी प्रतियोगिता में 40-50 हजार दर्शक उपस्थित रहते थे। मुझे याद है, 1977-78 में भारतीय टीम के ऑस्ट्रेलियाई दौरे के पहले एक घरेलू मैच में मैं कमेंट्री कर रहा था। तब युवा कपिल देव को मैंने मशहूर गावस्कर और चेतन चौहान के सामने गेंदबाजी करते देखा। इस युवा की रफ्तार और आउटस्विंग को देखकर मैं भौंचक्का रह गया। मुझे विश्वास था कि युवा कपिल देव को 1977-78 में ऑस्ट्रेलिया जाने वाली टीम में अवश्य चुन लिया जाएगा, लेकिन उन्हें नहीं चुना गया। उस मैच में भी 30 हजार दर्शक उपस्थित थे। घरेलू क्रिकेट का जादू ही कुछ ऐसा था। अब तो ऐसा लगने लगा है कि रणजी स्पर्धा भारतीय क्रिकेट की सौतेली औलाद है।
आजकल मैं स्टार स्पोर्ट्स के हॉट स्टार के लिए हिंदी कमेंट्री कर रहा हूं। एक खिलाड़ी ने मुझे कहा, “दर्शकों की बात छोड़िए, अब तो हमारे घर वाले भी हमारा क्रिकेट मैच देखने नहीं आते हैं।” दूसरी ओर, आइपीएल की भव्यता और दर्शक संख्या देखकर आंखें चौंधिया जाती हैं। कहा जा रहा है कि आइपीएल 20-20 ओवरों का होता है और बल्लेबाजी के लिए उपयुक्त विकेटों तथा छोटी बाउंड्री के कारण चौके-छक्कों की बरसात होती है। अतः दर्शक आंदोलित-रोमांचित होते हैं। फिर, परिणाम की गारंटी होती है और आज की व्यस्त व्यावसायिक दुनिया में सूखा-सूखा ड्रॉ मैच कौन देखना चाहता है? आइपीएल में खेलने वाली मामूली प्रतिभा के भी वारे-न्यारे हो रहे हैं। इसके विपरीत रणजी ट्रॉफी खेलने वाले खिलाड़ी को न तो अधिक रकम मिलती है और न ही शोहरत! इसीलिए हर खिलाड़ी की पहली तमन्ना रहती है आइपीएल में प्रवेश।
आप पूछ सकते हैं कि आइपीएल और टी-20 क्रिकेट अगर ज्यादा लोकप्रिय हो रहा है तो इसमें हानि क्या है? बात शास्त्रीय संगीत और पॉप म्यूजिक की तुलना की ही है। पॉप म्यूजिक कुछ ही अरसे में भुला दिया जाता है, पर शास्त्रीय संगीत की खुशबू फैलती जाती है। टेस्ट क्रिकेट ही दिल के ज्यादा करीब है, भले ही क्षणिक रोमांच की प्राप्ति के लोभ में हम उसकी उपेक्षा करें। इसीलिए वीरेंद्र सहवाग ने कटाक्ष किया, चार दिन की तो चांदनी होती है, टेस्ट क्रिकेट नहीं। बीसीसीआइ ने घरेलू क्रिकेट को दिलचस्प और लोकप्रिय बनाने के लिए कई प्रयास किए हैं। रणजी ट्रॉफी चैंपियनशिप को तीन के बजाय, चार दिनों का कर दिया गया है। पिच बनाने वाले क्यूरेटर भी न्यूट्रल यानी तीसरी जगह के या निष्पक्ष कर दिए गए हैं। टीमों को ‘ए’, ‘बी’, ‘सी’ और प्लेट ग्रुप में विभाजित कर दिया है। शक्तिशाली ‘ए’ और ‘बी’ ग्रुप से मिलाकर पॉइंट्स के आधार पांच शीर्ष टीमों को क्वार्टर फाइनल में प्रवेश मिलेगा। ग्रुप ‘सी’ से दो शीर्ष टीमें क्वार्टर फाइनल में खेलेंगी और प्लेट ग्रुप में से सबसे ज्यादा अंक पाने वाली एक टीम को प्रवेश मिलेगा। यानी मुकाबले कड़े हो जाएंगे। सबसे बड़ा फर्क किया गया है पिचों में। हर पिच पर दूब छोड़ी जाती है ताकि सीम गेंदबाजों को पहले दिन मदद मिले। ऐसे स्पोर्टिंग विकेटों पर एक तो देश में अच्छे तेज गेंदबाजों का उदय हो रहा है और साथ ही परिणाम निकलने की संभावना भी बढ़ रही है। पर इससे एक नुकसान यह हो रहा है कि स्पिन गेंदबाज निष्प्रभावी हो रहे हैं। इसी कारण देश में ऊंचे स्तर वाले स्पिन गेंदबाज उभर ही नहीं रहे हैं। विनू मांकड़, सुभाष गुप्ते, प्रसन्ना, बेदी, चंद्रशेखर, वेंकटराघवन, अनिल कुंबले और हरभजन सिंह के देश में ऐसा होना निराशाजनक है। मैच के चौथे दिन स्पिनरों को मदद जरूर मिलना चाहिए। दूसरी बात यह है कि अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट की बहुतायत ने घरेलू क्रिकेट की आत्मा पर ही वार करना शुरू कर दिया है। जब दर्शकों को साल भर अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट परोसा जा रहा है, तब वे घरेलू क्रिकेट की तरफ आकर्षित नहीं होते हैं। इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया में घरू क्रिकेट के मौसम में अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट कम ही खेला जाता है। मतलब साफ है कि क्रिकेट की पाठशाला में घरेलू क्रिकेट की अवहेलना नहीं की जाती है। व्यावसायिकता का लोभ छोड़कर भारत में भी ऐसा होने लगे, तो बेहतर है। जब क्रिकेट को व्यापार के बजाय प्यार की दृष्टि से देखा जाएगा, तभी घरू क्रिकेट का सम्मान लौटेगा।
अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद बीसीसीआइ लोगों में अपने प्रदेशों की रणजी टीमों के प्रति स्वाभिमान जोड़ने में सफल नहीं हुआ है। इंग्लैंड में अगर यॉर्कशायर और लंकाशायर के बीच प्रथम श्रेणी का क्रिकेट होता है। तब भी उतने ही दर्शक आ जाते हैं, जितने कि टेस्ट क्रिकेट में। वहां लोग अपनी टीम के साथ मानसिक रूप से भी जुड़ जाते हैं। ऐसी ही भावुकता हमें भारत में पैदा करनी होगी। वरना 50 हजार क्षमता वाले स्टेडियमों में 50 लोग रणजी ट्रॉफी देखने आ रहे हैं, तो देखकर आपका दिल डूब जाता है। खिलाड़ी भी उत्साहित नहीं होते हैं।
महानतम उद्घाटन बल्लेबाज सुनील गावस्कर भी घरेलू क्रिकेट के हालात से चिंतित हैं। उनका मानना है कि रणजी टीम के खिलाड़ियों को मिलने वाला पैसा आइपीएल के मुकाबले नहीं के बराबर है। इसके लिए संतुलन बैठाया जाना चाहिए। लेकिन तब प्रश्न यह भी उठता है कि क्या भारतीय खिलाड़ी पैसा, ठाठ-बाठ और ग्लैमर देखकर ही प्रोत्साहित होते हैं, वरना नहीं? भारत में पूर्व क्रिकेटर और वर्तमान खिलाड़ी भी यह दर्शाने की कोशिश करते हैं कि क्रिकेट में आया पैसा केवल उनके कारण आता है और इसीलिए उस पर पहला हक भी उनका ही है। वास्तव में यह पैसा युवा पीढ़ी के लिए मूलभूत ढांचे, नए खिलाड़ियों को महंगे साजो-सामान मुहैया कराने, अच्छी कोचिंग की व्यवस्था करने और बेहतर परिस्थितियों का निर्माण करने के काम में आना चाहिए। पूर्व टेस्ट क्रिकेटरों की तो यह भी मांग है कि क्रिकेट संगठन क्रिकेटरों को ही चलाना चाहिए, क्योंकि वे ही क्रिकेट को सबसे बेहतर समझते हैं। यह तर्क एकदम गलत है, क्योंकि कल टाटा और बिड़ला कंपनी का मजदूर कहने लगेगा कि कंपनी का चैयरमैन उसे ही बनाना चाहिए, न कि किसी रतन टाटा को, क्योंकि मशीन को बेहतर तो मजदूर ही समझता है। भारत नं. 1 पर तो आज है विश्व क्रिकेट में, पर वहां कायम तभी रह सकेगा, जब घरेलू क्रिकेट की साज-संभाल होगी।
(लेखक जाने-माने स्पोट्र्स कमेंटेटर हैं)
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सौरभ गांगुली की अध्यक्षता में बीसीसीआइ ने पांच दिवसीय क्रिकेट को चार दिनी बनाने का फैसला किया। हालांकि घरेलू क्रिकेट को लोकप्रिय बनाने के लिए रणजी ट्रॉफी को तीन के बजाय चार दिनों का किया गया है, पिच क्यूरेटर न्यूट्रल किए गए हैं, टीमों का फॉर्मेट भी बदला गया है
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क्रिकेटर वीरेंद्र सहवाग ने कहा, चार दिन की चांदनी होती है, टेस्ट मैच नहीं...जल की मछली जल में अच्छी है, बाहर निकालो तो मर जाएगी। हम डे-नाइट टेस्ट खेल रहे हैं, लोग शायद ऑफिस के बाद मैच देखने के लिए आएं। नयापन आना चाहिए, लेकिन पांच दिन में बदलाव नहीं किया जाना चाहिए