श्वसन तंत्र को प्रभावित करने वाले वायरस की सबसे बड़ी खासियत यह होती है कि वे बहुत तेजी से म्यूटेट करते हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि उनकी अनुवांशिकी संरचना बहुत तेजी से बदलती है। इसलिए पहली लहर के समय जो हर्ड इम्युनिटी विकसित हुई थी, वह अब काम नहीं कर रही है और हम दूसरी लहर झेल रहे हैं। नया स्ट्रेन ऐसे लोगों को अटैक कर रहा है जिनकी इम्युनिटी कमजोर है। ज्यादातर ऐसे लोग शिकार हो रहे हैं जो पहले से ही गंभीर बीमारियों से पीड़ित हैं।
हमें यह भी समझना होगा कि जब वायरस वातावरण में है तो वह फैलेगा। हम हमेशा लॉकडाउन नहीं कर सकते। इसे रोकने के लिए हमें दूसरे कदमों पर जोर देना होगा। हमें इस बात पर जोर देना चाहिए कि संक्रमित लोग ओपीडी में ही ठीक हो जाएं। उन्हें अस्पताल में भर्ती होने की जरूरत न पड़े। लेकिन अभी जो इलाज का तरीका है, वह मुझे भटका हुआ लगता है।
मैं पिछले एक साल से कोविड-19 मरीजों के इलाज के अनुभव से कह सकता हूं कि हमने ऐसी दवाइयों का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है जिन्हें लेकर अभी तक कोई रिसर्च या ट्रायल नहीं हुआ है। सारा ट्रॉयल सीधे मरीजों पर ही हो रहा है, ऐसे में स्थिति बिगड़ेगी।
उदाहरण के तौर पर पहले चरण में हमने हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन (एचसीक्यू) का इस्तेमाल किया, उसके बाद डॉक्सीसाइक्लिन, एजिथ्रोमायिसन और अब रेमडेसिविर का इस्तेमाल कर रहे हैं। साथ ही मरीजों को हाइ डोज स्टेरॉयड दिए जा रहे हैं। इन सब दवाओं का उद्देश्य यह है कि हम वायरस को नियंत्रित कर सकें और बीमारी को बढ़ने न दें। लेकिन इनमें से कोई भी दवा कोविड-19 के इलाज के लिए ट्रायल के चरणों से नहीं गुजरी है। इस समय ट्रीटमेंट का तरीका हर क्षण बदल रहा है। पहले जिस रेमडेसिविर दवा को जादुई माना जा रहा था उसे विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने नवंबर 2020 में वापस ले लिया, क्योंकि कई ऐसे अध्ययन सामने आए हैं जिनके अनुसार दवा देने के बाद मृत्यु दर बढ़ गई।
इसके अलावा हम मरीजों को बहुत ज्यादा ऑक्सीजन दे रहे हैं, उसका भी नुकसान हो रहा है। एक मरीज को एक मिनट में 30 लीटर तक ऑक्सीजन दी जा रही है। 2009 में जब स्वाइन फ्लू के मामले आए थे, उस समय भी मैंने मरीजों का इलाज किया था और उस दौरान न कोई लॉकडाउन लगा था न कोई मॉस्क पहनता था और न ही किसी तरह का प्रतिबंध था। फिर भी इतनी गंभीर स्थिति नहीं बनी थी। उस समय मरीजों को अधिक से अधिक प्रति मिनट 7-8 लीटर ऑक्सीजन दी जा रही थी। उस समय भी फेफड़े बहुत तेजी से संक्रमित होते थे पर हम जो इलाज कर रहे थे उसमें मरीज को फ्लूड देते थे, एंटीबायोटिक्स देते थे। 8-10 दिन बाद मरीज को बहुत कम डोज में स्टेरॉयड दी जाती थी। वह भी उस वक्त जब उसका बुखार खत्म हो जाता था। लेकिन अभी तो पहले दिन से ही हाइ डोज स्टेरॉयड दी जा रही है। अभी जो मात्रा दी जा रही है, वह किसी गंभीर अस्थमा से पीड़ित मरीज को दी जाने वाली डोज से भी ज्यादा है। इसका बुरा असर फेफड़ों पर हो रहा है। इस तरह बिना रिसर्च के दवा देने से मरीजों के फेफड़े खराब हो रहे हैं। यह सब इसलिए ऐसा हो रहा है क्योंकि घबराहट और डर फैलने से कंट्रोलिंग सिस्टम बिगड़ गया है।
मरीजों को गूगल आधारित इलाज न आजमा कर डॉक्टर पर भरोसा करना चाहिए, नियमों का पालन करें तो 95 फीसदी मरीज घर पर ही ठीक हो सकते हैं
अभी तक जो आंकड़े सामने आए हैं उनसे यही लगता है कि नया स्ट्रेन इंग्लैंड से आया है, हालांकि इसकी अभी तक पुष्टि नहीं हो पाई है। एक और बात समझनी होगी कि इस समय हर दिन जो 3.5 लाख के करीब संक्रमण के मामले आ रहे हैं, उसका मतलब यह कतई नहीं कि सभी लोग वायरस की गंभीर चपेट में आ गए हैं। इसका मतलब केवल यही है कि इन लोगों के अंदर कोविड-19 वायरस पहुंच गया है। इस समय संक्रमण दर बहुत ज्यादा है। महाराष्ट्र, दिल्ली, यूपी जैसे राज्यों में यह 25-35 फीसदी तक है, जो चिंता का विषय है।
अब कोरोनावायरस के इलाज की बात करते हैं। संकट जरूर पहले से ज्यादा भयावह है। लेकिन ऐसे समय में जब इसका कोई स्टैण्डर्ड इलाज अभी तक तय नहीं हो पाया है, तो हमें पुराने अनुभवों से सीखना होगा। हमें यह भी विश्लेषण करना होगा कि 2009 के वायरस अटैक के समय और अभी के समय में हमने इलाज की प्रक्रिया में क्या बदलाव किए हैं। मुझे पूरा भरोसा है कि अगर हम ऐसा करते हैं तो निश्चित तौर पर मरीजों की मृत्यु दर कम हो जाएगी।
कुल मिलाकर, पूरी व्यवस्था एक चक्रव्यूह में फंस गई है। इसे संभालने के लिए जब तक कोई शीर्ष अथॉरिटी सामने नहीं आएगी, तब तक स्थिति नियंत्रण में नहीं आएगी। उसे इलाज के लिए एक स्टैण्डर्ड प्रोटोकॉल बनाना होगा। पहले दिन ओपीडी से लेकर आइसीयू मैनेजमेंट तक के लिए ट्रीटमेंट प्रोटोकॉल तैयार करने होंगे और उसकी निगरानी करनी होगी। हमें लोगों में फैले डर और घबराहट को कम करना है तो तीन बातों पर ध्यान देना होगा। पहला कदम यह होना चाहिए कि स्वाइन फ्लू के इलाज के समय का जो अनुभव हमारे पास है उसका इस्तेमाल करें। हमें उन दवाओं का इस्तेमाल तुरंत रोक देना चाहिए जिनके बारे में कोई रिसर्च और प्रामाणिकता अभी तक नहीं आई है। मरीजों को भी गूगल आधारित इलाज पर भरोसा नहीं करना चाहिए, उन्हें डॉक्टर पर भरोसा करना चाहिए और किसी भी तरह से डॉक्टर पर दबाव नहीं बनाना चाहिए। अगर हम मॉडर्न मेडिसिन ट्रीटमेंट घर पर लें, ठीक से उसका पालन करें, तो मुझे लगता है कि 95 फीसदी लोग आराम से घर पर ठीक हो जाएंगे। स्थिति की भयावहता को देखते हुए हमें इन उपायों को लागू करने में जरा भी देरी नहीं करनी चाहिए।
(लेखक श्वसन रोग और क्रिटिकल केयर विशेषज्ञ हैं और ग्रेटर नोएडा में कैलाश हॉस्पिटल के कोविड केयर यूनिट के इंचार्ज हैं)