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नजरिया: आंकड़े अधूरे, महंगाई कमरतोड़

कीमतों पर फौरन काबू पाए सरकार और लोगों के हाथ में पैसा दे
लॉकडाउन होने से ग्रामीण इलाकों में सप्लाई चेन प्रभावित हुई

महंगाई की समस्या बहुत गंभीर है। देश का 94 फीसदी कामगार वर्ग असंगठित क्षेत्र में है, ये लोग कर्मचारी संगठनों के जरिए अपनी तनख्वाह नहीं बढ़वा सकते। विकसित देशों में संगठित क्षेत्र अधिक होता है, वहां महंगाई दर 20 फीसदी भी पहुंच जाए तो इंडेक्सेशन से काम चल जाता है। लेकिन भारत में 10 फीसदी महंगाई दर भी बहुत ज्यादा है। असंगठित क्षेत्र में बड़ी संख्या में लोग बेरोजगार भी हुए हैं। यानी एक तरफ तो नौकरी चली गई या वेतन घट गया, और दूसरी तरफ महंगाई बढ़ गई। इस तरह उन पर दोहरी मार पड़ी। बुजुर्ग पेंशन या बचत पर मिलने वाली ब्याज की रकम पर आश्रित होते हैं। सरकार ने महंगाई भत्ता फ्रीज कर दिया है और डेढ़ साल में बैंकों ने ब्याज दरें घटा दी हैं। इससे बुजुर्गों पर भी दोहरी मार पड़ी है। मेरे विचार से अर्थव्यवस्था के 95 फीसदी हिस्से पर खाद्य महंगाई का असर पड़ा है।

पेट्रोल-डीजल पर अप्रत्यक्ष कर लगता है और यह गरीबों को ज्यादा प्रभावित करता है। आप कुछ भी उत्पादन करना चाहें, ऊर्जा की जरूरत तो पड़ती ही है। ऊर्जा महंगी करेंगे तो हर चीज महंगी होगी। जैसे, गेहूं पर जीएसटी नहीं है, लेकिन डीजल महंगा होने से गेहूं की ढुलाई, पंपसेट आदि का खर्च बढ़ने के कारण यह महंगा हो जाएगा। पेट्रोलियम उत्पादों पर केंद्र का उत्पाद शुल्क और राज्यों का वैट बढ़ाना गलत रणनीति है।

भारत भले अभी लॉकडाउन से उबर रहा है, विकसित देशों में परिस्थितियां बेहतर होने के कारण वहां मांग बढ़ गई है। इससे मेटल और दूसरी कमोडिटी के दाम बढ़ रहे हैं। एक तो भारत अभी अर्थव्यवस्था को पूरी तरह खोलने की स्थिति में नहीं है और दूसरी तरफ उसे महंगी कमोडिटी को झेलना पड़ रहा है। अनलॉक के समय संगठित क्षेत्र में सिर्फ 63 फीसदी क्षमता का इस्तेमाल हो रहा था। अब वह और घट गया है। जब क्षमता का इस्तेमाल इतना कम होगा तो कंपनियां नया निवेश क्यों करेंगी। 85 से 90 फीसदी क्षमता का इस्तेमाल होने पर ही कंपनियां नया निवेश करती हैं। निवेश और खपत कम होगी तो अर्थव्यवस्था में सुस्ती बनी रहेगी। इसलिए अभी चाहे जैसे हो, महंगाई को नियंत्रित करना बहुत जरूरी है।

लगातार तीसरे साल फसलें अच्छी होने की उम्मीद है। 10 करोड़ टन से ज्यादा अनाज का भंडार है, फिर भी खाने-पीने की चीजों के दाम बढ़ रहे हैं। इसकी एक वजह तो आपूर्ति की समस्या है। मुझे लगता है कि गांवों में कोरोना फैलने से वहां श्रमिकों की समस्या आई, इसका भी असर पड़ा है। सरकार को इस बात का ध्यान रखना चाहिए था कि आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति में किसी तरह की बाधा न आए। अभी जरूरी वस्तुओं की आपूर्ति में भी बाधा आ रही है जिसका असर महंगाई पर दिखता है।

यह महंगाई मौद्रिक कारणों से नहीं आई, इसलिए इसे नियंत्रित करने में रिजर्व बैंक की भूमिका अधिक नहीं है। सरकार को ही जरूरी कदम उठाने पड़ेंगे। मेरे विचार से सरकार ने रिजर्व बैंक को विकसित देशों की तरह 4 फीसदी (इसमें 2 फीसदी कम या अधिक) महंगाई दर का जो लक्ष्य दिया है, वह ठीक नहीं। सूखा पड़ गया, या अंतरराष्ट्रीय बाजार में दाम बढ़े तो यहां भी महंगाई बढ़ेगी। तब मौद्रिक नीति को सख्त करके महंगाई पर नियंत्रण नहीं किया जा सकता है।

हमारा महंगाई का आंकड़ा भी अधूरा है। जीडीपी में सर्विस सेक्टर का हिस्सा 60 फीसदी है, लेकिन थोक महंगाई दर के इंडेक्स में सर्विस सेक्टर को गिना ही नहीं जाता। खुदरा महंगाई में भी सर्विसेज का हिस्सा सिर्फ 30 फीसदी है। इससे सर्विस सेक्टर में महंगाई का पता ही नहीं चल पाता है।

अभी तक सरकार सिर्फ सप्लाई बढ़ाने पर ध्यान दे रही है, मांग बढ़ाने पर नहीं। आत्मनिर्भर भारत स्कीम भी पूरी तरह सप्लाई पर आधारित है। सरकार नौ लाख करोड़ रुपये अतिरिक्त कर्ज देने की बात कह रही है, लेकिन कोई भी कंपनी कर्ज तब लेगी जब उसके प्रोडक्ट की मांग बढ़ेगी। सरकार ने मांग बढ़ाने के लिए सिर्फ ढाई लाख करोड़ रुपये दिए हैं, बाकी सप्लाई बढ़ाने के लिए है। आरबीआइ बैंकों से कह रहा है कि आप हमारे पास नकदी जमा न करके बिजनेस को कर्ज दें। लेकिन बैंकों का कहना है कि मांग में कमी के कारण कंपनियों की तरफ से ही कर्ज की मांग नहीं आ रही है, फिर भी अगर उन्हें कर्ज दिया गया तो एनपीए बढ़ने का खतरा होगा।

सरकार को कमजोर वर्ग के हाथ में पैसा देना चाहिए था, इससे तत्काल मांग बढ़ती और अर्थव्यवस्था में सुधार होता। सरकार का यह तर्क गलत है कि लोग इस तरह दी गई रकम को खर्च करने के बजाय उसकी बचत करेंगे। जिन लोगों के पास खाने तक के पैसे नहीं हैं वे बचत क्या करेंगे। उच्च मध्यवर्ग को ऐसी राहत की जरूरत नहीं, लेकिन जिनकी कोई आमदनी नहीं उन्हें तत्काल मदद चाहिए। इसके लिए सरकार के पास राजकोषीय घाटा बढ़ाने की भी गुंजाइश है।

सरकार को वैक्सीनेशन में भी तेजी लानी पड़ेगी। मौजूदा गति से हम अगले साल के मध्य तक ही सबको टीका लगा सकेंगे। सरकार को वैक्सीन की उपलब्धता बढ़ाने के उपाय करने होंगे। सीरम इंस्टीट्यूट साल में 100 करोड़ वैक्सीन बना सकती है, लेकिन उसे अमेरिका से कच्चा माल ही नहीं मिल रहा है। यूनिसेफ ने 90 गरीब देशों को वैक्सीन देने की योजना बनाई है, लेकिन उसे वैक्सीन मिल ही नहीं रही। जब यूनिसेफ को नहीं मिल रही तो भारत को भी वैक्सीन नहीं मिलेगी। कोरोनावायरस के नए म्यूटेंट पर वैक्सीन का असर कम होता है। इसलिए सबको जल्दी वैक्सीन लगाने की जरूरत है, वरना नए म्यूटेंट आते रहेंगे और लोगों की समस्याएं बढ़ती जाएंगी।

(लेखक इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज में मैल्कम आदिशेषैया चेयर प्रोफेसर हैं, जेएनयू में सेंटर फॉर इकोनॉमिक स्टडीज एंड प्लानिंग के चेयरमैन थे। यह लेख एस.के. सिंह से बातचीत पर आधारित)

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