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आवरण कथा/छोटे शहरों में प्रदूषण: दहकते, दमघोंटू बेजुबान शहर

धू-धू कर जलती झारखंड में झरिया की जमीन और देश में, खासकर गंगा के मैदान में बसे छोटे और दूरदराज के नगरों-शहरों में जानलेवा प्रदूषण स्तर सरकारी अनदेखी और लापरवाही की ऐसी मिसाल, जो लोगों के लिए जानलेवा बन गई
कोई उपाय नहीं सूझताः सौ साल में भी झरिया की आग पर काबू नहीं पाया जा सका। यह तस्वीर नवंबर के पहले हफ्ते की

धुआं-धुआं-सी हवा, कुहासा इस कदर कि सूरज की किरणें भी रोती-रोती उतरें, सड़क चलते लोगों की आंखें जलने लगीं, सांसें उखड़ने लगीं। जाहिर है, राजधानी दिल्ली में हाल के कुछ वक्त में यह घटाटोप घिरा तो देश की सर्वोच्च न्यायालय का भी सिंघासन डोल उठा। उसने केंद्र और दिल्ली सरकारों को डांट पिलाई और सुर्खियां चीखने लगीं। यह अपवाद भर नहीं है। कुछ साल से लगातार दिल्ली, मुंबई, बेंगलूरू समेत तमाम महानगरों और राज्यों की राजधानियों में वायु और तमाम तरह के प्रदूषण को लेकर हाहाकार जैसा मचता रहा है और नीतियां भी कठोर से कठोर इस कदर बनती रही हैं, जो कई बार गले की हड्डी बनती रही हैं। जैसे दिल्ली के आसपास किसानों को पराली जलाने पर कठोर दंड और करोड़ों के जुर्माने का प्रस्ताव बड़ा किसान मुद्दा और केंद्र के लिए आफत बना हुआ है। लेकिन देश के छोटे शहरों के दमघोंटू माहौल और धधकती जमीन की सुध लेने वाला कोई नहीं है, जिससे लोगों को न सिर्फ जानलेवा बीमारियां लपेट रही हैं, बल्कि घर उजड़ रहे हैं और शहर छोड़ने तथा पुनर्वास की मजबूरियों से बावस्ता होना पड़ रहा है। इसी 4 दिसंबर को खिंची तस्वीरें गवाह हैं कि झारखंड में झरिया शहर की चौहदी की जमीन धू-धू कर जल रही है, लेकिन कोई बड़ी नीतिगत या समाधान की गंभीर पहल नहीं दिखती। अलबत्ता यहां की जमीन के नीचे दबे दुनिया में सबसे उम्दा किस्म के कोयले के इस भंडार के कुछ इलाकों में कई वजहों और लापरवाही भरे बेहिसाब तथा बेजा खनन से आग तकरीबन सौ साल से जल रही है। उसके 105 वर्ष होने पर इसी 31 अक्टूबर को कुछ सजग नागरिक संगठनों और आम लोगों ने वहां जागरूकता अभियान चलाया, ताकि सरकारी हाकिमों और अफसरान के कानों पर जूं रेंगे। उस दिन ‘अग्नि वंदना’ में रात के अंधेरे में जलते हुए कोयले के सामने युवतियों ने नृत्य किया। इस सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन इंस्टीट्यूशन फॉर नेशनल एमिटी और कोलफील्ड चिल्ड्रेन क्लासेज ने संयुक्त रूप से किया था। सुलगते कोयले के 105 दीये भी जलाए गए। बैनर पर लिखा था: ‘झरिया कोल फायर एक भौगोलिक आश्चर्य।’ फिर, 3-4 दिसंबर की रात स्थानीय फोटोग्राफर पिनाकी रॉय की खींची तस्वीरें भी इस अंक में आग की बढ़ती भयानकता और शहर की मजबूरियों से वाकिफ करा रही हैं।

यही नहीं, छोटे नगरों-शहरों में प्रदूषण स्तर के उस हालिया आंकड़ों पर गौर कीजिए, जो महानगरों से ज्यादा भयावह हैं लेकिन सुर्खियों से गायब हैं।  3 दिसंबर को पश्चिमी बिहार के गंगा किनारे ऐतिहासिक नगर बक्सर में वायु गुणवत्ता सूचकांक (एक्यूआइ) भयावह 427 दर्ज किया गया। प्राचीन नगरों राजगीर और नालंदा से सटे दूसरे छोटे नगर बिहारशरीफ का आंकड़ा भी 407 पर था। उसी दिन सासाराम और बेतिया का एक्यूआइ क्रमश: 394 और 387 दर्ज हुआ। ये सभी आंकड़े दिल्ली की ‘बेहद खराब’ वायु प्रदूषण स्तर 346 से ऊपर थे। दरअसल 3 दिसंबर को केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की बुलेटिन में ‘बेहद खराब’ से ‘गंभीर’ वायु प्रदूषण वाले स्तर के 11 शहरों में एक को छोड़कर सभी बिहार के हैं।

आग के 105 वर्ष होने पर 31 अक्टूबर को 'अग्नि वंदना' करतीं युवतियां

आग के 105 वर्ष होने पर 31 अक्टूबर को 'अग्नि वंदना' करतीं युवतियां

दरअसल देश में मौजूदा वायु गुणवत्ता का स्तर विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) के मानक पीएम 2.5 से 10.4 गुना अधिक है, इसलिए ये खबरें कोई हैरान करने वाली भी नहीं हैं। विशेषज्ञों के मुताबिक, लगातार बढ़ते वायु प्रदूषण के प्रति अधिकारियों की घोर अनदेखी, जलवायु परिवर्तन से मौसम की बदलती फिजा और कुछ हद तक भौगोलिक परिस्थितियां गंगा के मैदान और आसपास के इलाकों को खासकर सर्दियों में लगभग गैस चैंबर में बदल रही हैं। फिर भी इन दमघोंटू बेजुबान-सरीखे छोटे शहरों की दुर्दशा की चर्चा शायद ही होती है, जबकि विश्व मानकों के मुताबिक 200 से अधिक एक्यूआइ स्तर को खराब और 400 से ऊपर होना तो जानलेवा माना जाता है।

हालांकि यह इस साल अचानक नहीं हुआ है, मगर अब वातावरण की दुर्दशा लाइलाज जैसी होने लगी है। दो हफ्ते पहले बिहार के कुछ और शहरों- कटिहार (386), पूर्णिया (384), सिवान (381), दरभंगा (369) और किशनगंज (358) में एक्यूआइ स्तर देश में सबसे खराब दर्ज की गई, जो भीड़-भरी राज्य राजधानियों और औद्योगिक नगरों को भी पीछे छोड़ चुके हैं। यही नहीं, स्विट्जरलैंड स्थित जलवायु पर नजर रखने वाली संस्था एक्यूएयर द्वारा जारी विश्व के सबसे प्रदूषित शहरों की ताजा फेहरिस्त में बिहार के मुजफ्फरपुर (303) और पटना (250) का स्थान 28वां और 32वां है, जबकि गया और हाजीपुर भी शीर्ष 100 शहरों में हैं।

जाहिर है, देश के छोटे, दूसरे-तीसरे दर्जे के शहरों-नगरों को जहरीली हवा में सांस लेने को छोड़ दिया गया। उनके लिए किसी कारगर योजना का सिरे से अभाव है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) ने पूरे देश में राज्य प्रदूषण बोर्डों के साथ तालमेल से राष्ट्रीय वायु गुणवत्ता निगरानी कार्यक्रम (एनएपीएम) शुरू किया है, लेकिन दूरदराज के नगर-शहर अभी इसके दायरे से बाहर हैं। हालात ये हैं कि 2016 में ही डब्लूएचओ ने पटना को दुनिया में चौथा सबसे प्रदूषित शहर घोषित कर दिया था, उससे ऊपर ईरान के जाबोल और अपने देश के ग्वालियर और इलाहाबाद जैसे शहर थे। गौरतलब यह भी है कि उस वक्त प्रदूषित शहरों की सूची में सबसे ऊपर स्थित जाबोल में पीएम 2.5 का स्तर 217 दर्ज किया गया था। दो साल बाद पटना पांचवे स्थान पर था तो गया चौथे स्थान पर पहुंच गया।

पर्यावरण निगरानी संस्था ग्रीन पीस ने 2019 में पटना को दुनिया में सातवां सबसे प्रदूषित शहर आंका तो मुजफ्फरपुर 13वें स्थान पर था। उसकी रिपोर्ट में दोनों शहरों में पीएम 2.5 के स्तर में भारी बढ़ोतरी दर्ज की गई, जो फेफड़ों की बीमारी, कैंसर, दिमागी और दिल के दौरे का कारण बन सकता है। 2019 में कानपुर आइआइटी और पटना के शक्ति फाउंडेशन के एक अध्ययन में गंगा के मैदान में बसे पटना को सबसे प्रदूषित शहर आंका गया और उसके बाद वाराणसी और कानपुर थे। कह सकते हैं कि दिल्लीवालों को सांस लेने के लिए उससे तो बेहतर हवा मिल रही है।

एनसीएपी के मुताबिक पटना उन 122 शहरों में है, जहां वायु गुणवत्ता देश के मानक से ज्यादा खराब है और प्रदूषण स्तर घटाने के लिए विशेष उपायों की दरकार है। पटना, मुजफ्फरपुर और गया के लिए बिहार राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने अप्रैल 2019 में स्वच्छ हवा कार्य योजना बनाई। उसमें 15 साल से अधिक के वाहनों का संचालन रोकने, पेड़ लगाने, ई-रिक्शा को बढ़ावा देने और निर्माण स्थलों को ढंकने जैसे उपायों से 2024 तक हालात काबू में लाने का लक्ष्य रखा गया। लेकिन ये लक्ष्य फिलहाल दूर की कौड़ी लगते हैं। पर्यावरण कार्यकर्ता मानस कुमार कहते हैं, ‘‘लॉकडाउन के दौरान प्रदूषण स्तर थोड़ा घटा मगर फिर हालात वहीं पहुंच गए।’’ विधान परिषद के मौजूदा शीतकालीन सत्र में इस हालत पर चिंता तो जरूर व्यक्त की गई लेकिन अभी सरकार के कदम इस दिशा में नहीं बढ़े हैं। बकौल मानस कुमार, ‘‘वजह यह है कि वायु प्रदूषण जैसे मुद्दे चुनावी मसले कहां बनते हैं।’’

विशेषज्ञों का मानना है कि मौजूदा हालात तो उस आसन्न भयावह स्थिति का एक हल्का संकेत भर है क्योंकि सबसे ज्यादा प्रदूषित जगहों की निगरानी का कोई तंत्र ही नहीं है। रांची स्थित पर्यावरणवादी नीतीश प्रियदर्शी झारखंड में झरिया का उदाहरण देते हैं, जहां लगातार जलते कोयले की आग से होने वाला प्रदूषण वर्षों से लोगों की सेहत खराब कर रहा है। उन्होंने आउटलुक से कहा, ‘‘आग से निकलने वाली जहरीली गैसें 10 से 15 लाख लोगों के लिए अनेक तरह की बीमारियों का कारण बन रही हैं। हवा में नाइट्रोजन, सल्फर, कार्बन डाइऑक्साइड और कार्बन मोनो ऑक्साइड जैसी गैसों की प्रचुरता से फेफड़े और त्वचा की बीमारियां हो रही हैं। सैटेलाइट इमेज में भी शहर के चारों ओर लगातार आग धधकती दिखती है।’’ वे यह भी बताते हैं कि ‘‘दक्षिणी झारखंड के कई इलाकों में आग धधक रही है, जो एक दिन उजाड़ हो जाएंगे।’’

झरिया दास्तान 

झरिया देश के सबसे प्रदूषित शहरों में है। बीते तीन दशक में ओपन कास्ट माइनिंग (खुली खदानों) के कारण प्रदूषण में ज्यादा इजाफा हुआ है। जायज-नाजायज सैकड़ों खदानें हैं। भूमिगत आग, खनन, खनन के लिए विस्फोट के कारण निकलने वाले धूल-कण, गैस, खराब सड़कों पर कोयला लदे वाहनों का परिचालन आदि के कारण प्रदूषण की मात्रा बढ़ी है। गर्मी में प्रदूषण और बढ़ जाता है। दीपावली के दौरान भी रांची में उतना प्रदूषण नहीं होता, जितना सामान्य दिनों में कोलफील्ड में होता है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण रिपोर्ट की ताजा रिपोर्ट के अनुसार 2020 में प्रदूषण मानक पीएम-10 झरिया में सालाना औसत 247 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर रहा, जबकि दैनिक अधिकतम 509 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर तक गया। 2019 में झरिया का सालाना औसत 302 था जबकि दैनिक अधिकतम 427 था।

धनबाद के दूसरे इलाकों की हालत भी कमोवेश यही है। धनबाद के वरिष्ठ पत्रकार रंजन बताते हैं कि बड़े हाइवा चलाने वाले ड्राइवर, मजदूर या नाजायज कोयला चुनने वाले लोग धूल-कण की काट के लिए गुड़, चूना और शराब का इस्तेमाल करते हैं। बीमारी की चपेट में आकर कौन कब काल की गाल में समा गया, इसकी अब खबर तक नहीं बनती। बाहर की दुनिया यहां की बीमारी से अनजान सी है। सवाल सिर्फ वायु प्रदूषण का नहीं है। वायु प्रदूषण के बाद भूमिगत आग और बारिश से भूमिगत जल भी दूषित हो रहा है। पीलिया और दूषित जल जनित बीमारियां यहां आम हैं। बीसीसीएल के स्पांसरशिप में प्रदूषण को लेकर नीरी (नेशनल इन्वायरमेंटल इंजीनियरिंग रिसर्च इंस्टीट्यूट, नागपुर) की हाल में ही आई प्रारंभिक रिपोर्ट भी इन बातों की तस्दीक करती है।

पहली आग

केंद्रीय खनन अनुसंधान संस्थान, धनबाद के तत्कालीन निदेशक डॉ. त्रिभुवन नाथ सिंह की 2003 में प्रकाशित किताब ‘झरिया कोयलांचल त्रिकाल दर्शन एवं नगर लक्ष्मण रेखा’ के मुताबिक, पहली बार आग 1911 में केंदुआडीह में दिखी थी। 1950 के दशक में 110 आग केंद्र सक्रिय थे। आग की 97 घटनाओं के विश्लेषण से पता लगता है कि 60 प्रतिशत आग कोयले में घर्षण से प्रारंभ हुई जबकि 30 प्रतिशत लोगों की असावधानी के कारण। जलती राख फेंकने, आग जलाने या वनतुलसी आदि की वजह से।

लोगों को प्रदूषण से बीमारी के अलावा घर-मकान के धंस जाने, विस्थापन, पुनर्वास, रोजगार की चिंताएं भी खाए जा रही हैं। कब कहां की जमीन आपके कदमों तले से खिसक जाए, आप पचास-सौ फुट या इससे भी गहरे गोफ (जमीन धंसने से बनी सुरंग) में समा जाएं, कहना मुश्किल है। चारों तरफ जमीन की दरारों से निकलते धुएं, गैस से दम घुटता है। अनेक इलाके हैं जहां जूता पहनने के बाद भी तपिश का एहसास होता है। कई स्थानों पर तो जूते-चप्पल के सोल पिघल जाते हैं।

इसी साल सितंबर के अंतिम दिन धनबाद के केंदुआडीह की अग्नि प्रभावित राजपूत बस्ती में तड़के कोई साढ़े तीन बजे तेज आवाज के साथ जमीन धंस गई। आशा देवी उसकी जद में आईं तो जमींदोज होती मां की चीख सुन बेटा आनंद भी गोफ (गड्ढे) में कूदकर मां को बचाने में जुट गया। शोर सुन करीब के लोग आए और किसी तरह मां-बेटे को निकाल अस्पताल पहुंचाया। कुछ दिनों पूर्व केंदुआडीह के ही गंवाडीह में एक युवक जमींदोज हुआ था। 2017 में झरिया के अलकडीहा में ऑटो मैकेनिक अपनी दुकान खोल रहा था कि अचानक जमीन धंसी और 10 साल का रहीम उसमें समा गया, बचाने की कोशिश में पिता बबलू खान भी गोफ में समा गए थे। पिछले साल के अंत की ही बात है, बीसीसीएल कुसुडा एरिया में सात साल की कोमल शौच के लिए मां के साथ गई थी। अचानक जमीन धंसी और कोमल की मां देखते-देखते जमींदोज हो गई। ऐसी भी कई घटनाएं हुईं जब जमीन धंसने से सौ-दो सौ मकानों में दरार पड़ गई। भीतर से हिला देने वाले ऐसे किस्सों की यहां भरमार है।

पुनर्वास का पचड़ा

केंद्र सरकार ने बेकाबू आग के आगे हथियार डाल दिए हैं। अब पुनर्वास ही रास्ता है। जहां एक लाख से अधिक परिवारों का पुनर्वास किया जाना है, महज 2200 परिवारों को ही पुनर्वासित किया जा सका है। दरअसल झरिया से कोई आठ-दस किलोमीटर दूर बेलगड़िया में बसाने की व्यवस्था की जा रही है। दो छोटे-छोटे कमरों का घर है और परिवार बड़ा। न कोई सुविधा है, न बाजार कि ठेला लगा मजदूरी करके भी जीवन यापन किया जा सके। झरिया में तो लोग जानवर पाल, दो-चार बोरा कोयला बेचकर भी पेट पालते रहे हैं। जो मूल रैयत रहे हैं उनमें शायद ही किसी परिवार को पुनर्वासित किया गया है। झरिया पुनर्वास एवं विकास प्राधिकार तदर्थवाद पर ही चल रहा है। पुनर्वास न होने की सबसे बड़ी वजह बीसीसीएल के प्रति यहां के लोगों, रैयतों का अविश्वास है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद प्रधानमंत्री कार्यालय की सक्रियता से उम्मीद जगी है। पीएमओ के प्रमुख सचिव की अध्यक्षता में झरिया पुनर्वास पर समीक्षा बैठक हुई। हाइपावर कमेटी बनी। विशेष कमेटी ने सितंबर माह में झरिया के भू धंसान वाले इलाकों, बेलगड़िया पुनर्वास क्षेत्र का दौरा भी किया। प्रधानमंत्री कार्यालय की सक्रियता के बाद नीति आयोग की टीम ने भी सितंबर के पहले सप्ताह में दौरा किया। अधिकारियों और प्रभावित लोगों से बात की, लेकिन अभी बात आगे नहीं बढ़ पाई है।

पुनर्वास के लिए दो छोटे-छोटे कमरों का घर है और परिवार बड़ा। न कोई सुविधा है, न बाजार कि ठेला लगा मजदूरी करके भी जीवन यापन किया जा सके

पुनर्वास के लिए दो छोटे-छोटे कमरों का घर है और परिवार बड़ा। न कोई सुविधा है, न बाजार कि ठेला लगा मजदूरी करके भी जीवन यापन किया जा सके

पुनर्वास योजना के सर्वे में 72,882 अतिक्रमणकारी हैं। उन्हें बसाने के लिए झरिया शहर से आठ-दस किलोमीटर दूर बेलगड़िया में 6,352 आवास बनाए गए हैं, जिनमें 2,655 अतिक्रमणकारी परिवारों को बसाया गया है। एक सर्वे के अनुसार 32,064 रैयत परिवार हैं। इनमें एक भी परिवार को अभी तक नहीं बसाया गया है। झरिया कोलफील्ड में 595 अग्नि प्रभावित असुरक्षित क्षेत्रों से लोगों को हटाना है। इनमें 333 क्षेत्र में रैयत रहते हैं। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद करीब एक लाख परिवारों को 12 साल में पुनर्वासित करना था। इस पुनर्वास योजना की मियाद 11 अगस्त को समाप्त हो गई। अब झरिया पुनर्वास एवं विकास प्राधिकार (जेरेडा) सात साल का और विस्तार मांग रहा है।

झरिया कोलफील्ड बचाओ समिति के अध्यक्ष मुरारी शर्मा कहते हैं कि बेलगड़िया शहर से दूर है। वहां न ट्रांस्पोर्टेशन की सुविधा है न आजीविका का कोई साधन। जंगल में लोगों को छोड़ देंगे तो वापस चले आएंगे, वही हो रहा है। झरिया की विधायक पूर्णिमा नीरज सिंह कहती हैं कि पुनर्वास को लेकर जनवरी में पहली बार जनप्रतिनिधियों को बुलाया गया था। ओपन कास्टन माइनिंग के लिए जमीन चाहिए, इसलिए बीसीसीएल रातों-रात किसी इलाके को खाली करा देती है। आरएसपी कॉलेज के साथ भी ऐसा ही हुआ। 2017 में आरएसपी को बेलगड़िया के हाइस्कूल में भेज दिया गया। बीसीसीएल के रवैये से लोगों में यह धारणा घर कर गई है कि उसे लोगों की नहीं, सिर्फ कोयले की चिंता है।

दरअसल झरिया के हालात और पुनर्वास पर दिसंबर 1996 में ही अविभाजित बिहार में विधान परिषद की पर्यावरण समिति ने अपनी रिपोर्ट सौंपी थी। समिति ने सिफारिश की कि बिना देर किए पूरे झरिया कोयला खदानों के ऊपर तथा अग्नि प्रभावित क्षेत्र पर बसे लोगों अलग जगह बसाया जाए। खनन के बाद खाली स्थानों में बालू आदि भराई में अनियमितता बताते हुए तकनीकी विशेषज्ञों से इसकी जांच की सिफारिश भी की गई थी। मगर हुआ कुछ नहीं। दरअसल 27 अक्टूबर 1996 की रात धनबाद के चौधाई कुली और कतरास मोड़ के साथ झरिया के आसपास की जमीन धंस गई थी। इससे करीब सवा दो सौ मकानों में दरार पड़ी थी। पर्यावरण समिति के तत्कालीन चेयरमैन गौतम सागर राणा उसी दौरान धनबाद आए थे। तब सदन की विशेष जांच समिति समिति बनी थी।

मुरारी शर्मा के मुताबिक, शुरू में पुनर्वास के लिए 7,111 करोड़ रुपये की योजना बनी थी, लेकिन अब एक लाख करोड़ रुपये से अधिक की जरूरत होगी। झरिया कोलफील्ड यानी पूरे धनबाद के लिए पहली बार झरिया मास्टर प्लान 1999 में बना था, फिर पुनर्वास योजना के रूप में 2004 में और 2008 में इसमें बदलाव किए गए। झरिया कोलफील्ड बचाओ समिति ने 1997 में पटना हाइकोर्ट में केस दायर किया था। 2002 में वह रांची हाइकोर्ट ट्रांसफर हो गया। 2004 से पहले सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में लिखकर दिया था कि यहां भूमिगत आग को लेकर दो किस्मों की स्थिति है। एक नियंत्रण के लायक और दूसरा बेकाबू। जो नियंत्रण के लायक नहीं है, वहां से लोगों को विस्थापित किया जाएगा। बाद में डीजीएमएस के संदर्भ से केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि भूमिगत आग को किसी तरह बुझाया नहीं जा सकता। सब को हटाना पड़ेगा। मगर 12 साल में एक लाख के बदले सिर्फ करीब 2200 लोगों को ही पुनर्वासित किया जा सका है।

इस बीच सबसे उम्दा किस्म के कोकिंग कोल के लिए यहां बीसीसीएल ने ओपन कास्ट माइनिंग शुरू कर दी। उससे नुकसान यह हुआ कि कोकिंग कोल और नॉन कोकिंग कोल आपस में मिल गया। कोकिंग कोल स्टील प्लांट में देना चाहिए मगर 80 प्रतिशत बिजली घरों को दे देते हैं। अब विदेश से कोकिंग कोल मंगाते हैं जिससे विदेशी मुद्रा भी गई।

भ्रष्टाचार का बोलबाला

कोयला के काले धंधे और माफियागीरी को लेकर हमेशा सुर्खियों में रहने वाले धनबाद में अफसरों की पोस्टिंग के लिए बहुत ऊंची बोली लगती है। डीसी लाइन यानी धनबाद-चंद्रपुरा रेल लाइन भूमिगत आग के कारण असुरक्षित घोषित करते हुए 17 जून 2017 को उस पर ट्रेनों का परिचालन बंद कर दिया गया था। लेकिन फरवरी 2019 में उसे फिर चालू कर दिया गया। सवाल जिंदा है कि किस परिस्थिति में इसे असुरक्षित घोषित किया गया और 20 माह में ही उसे सुरक्षित घोषित कर दिया गया। चर्चा यह भी है कि रेल लाइन बंद कर देश के एक बड़े प्राइवेट प्लेयर को यहां खनन की जिम्मेदारी दी जाने वाली थी।

नेशनल रिमोट सेंसिंग सेंटर हैदराबाद ने इसी साल अक्टूबर में बीसीसीएल के 37 कोलियरी क्षेत्रों में भूमिगत आग की स्थिति के बारे में रिपोर्ट सौंपी है। रिपोर्ट के अनुसार दस स्थानों पर आग बुझ चुकी है, 12 स्थानों पर फैल रही है जबकि 15 क्षेत्रों में दायरा घटा है। हर तीन साल पर तैयार होने वाली यह रिपोर्ट 2020 की है। 2017 में 3.26 वर्ग किलोमीटर दायरे में आग थी जो घटकर 1.89 किलोमीटर रह गई है। बस्ताकोला, लोदमा, कुजामा में आग को शून्य बताया गया है मगर वहां रहने वाले लोग कह रहे हैं कि आग देख सकते हैं, उसकी तपिश भी महसूस की जा सकती है।

बहरहाल, ये सरकारी लेट-लतीफी और लापरवाहियां लोगों की जान से खिलवाड़ कर रही हैं। जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण की बिगड़ती हालत भयावह भविष्य का संकेत दे रही हैं। अगर फौरन कदम नहीं उठाए गए तो आगे आने वाली पीड़ियों के लिए धरती रहने लायक नहीं रह जाएगी।

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