उत्तर-पूर्व दिल्ली के शिव विहार में रहने वाली रुबीना बेगम और उनके पति जावेद बच्चों के साथ जले घर में रहने को मजबूर हैं क्योंकि उन्हें मुआवजा नहीं मिला है। वह अपने घर की रंगाई-पुताई और मरम्मत भी नहीं करवा सकती हैं। उन्होंने सफाई करके दो-तीन बल्ब लगाकर अपने घर को रहने योग्य बनाया। लेकिन जलने की गंध उन्हें हर क्षण परेशान करती है और दंगों की याद दिलाती है। बल्ब भी घर की दीवारों और छत पर लगी कालिख छिपाने में नाकाम दिखाई देते हैं। इसी तरह मोहम्मद अख्तर के भी तीन मंजिला घर में आग लगा दी गई थी और सोने-चांदी के जेवरात और 14 भैंसें चुरा ली गई थीं। अख्तर को दस लाख रुपये का नुकसान हुआ। लेकिन उन्हें सिर्फ 50 हजार रुपये मुआवजा मिला है। बाकी मुआवजे के लिए वह पिछले दो-ढाई माह से इंतजार कर रहे हैं। 18 गज के घर में रहने वाले शेरू की रजाई-गद्दे की दुकान को दंगाइयों ने जला दिया था। शेरू को करीब पांच लाख का नुकसान हुआ लेकिन 25 हजार रुपये के अलावा उन्हें और कोई मदद सरकार से नहीं मिली।
रुबीना, मोहम्मद अख्तर और शेरू की तरह सैकड़ों परिवारों के लिए यह दोहरे संकट का दौर है। उन्हें सरकार से मुआवजा मिल पाता, उससे पहले ही कोविड-19 का संक्रमण फैलने लगा और पूरे देश में लॉकडाउन लागू हो गया। ये लोग ऐसे घरों में कैद हो गए, जो रहने लायक बिलकुल नहीं हैं। 23 फरवरी को उत्तर-पूर्वी दिल्ली के करावलनगर, यमुना विहार और सीलमपुर क्षेत्र में सांप्रदायिक दंगे भड़के, जिनमें 53 लोगों की जान चली गई और 200 लोग घायल हो गए। दंगों में 300 के करीब मकानों और दुकानों को दंगाइयों ने आग के हवाले कर दिया था।
मुस्तफाबाद की ईदगाह के राहत शिविर में 600 दंगा पीड़ित मुआवजा मिलने पर मकान-दुकान की मरम्मत कराकर शिफ्ट होने की सोच रहे थे लेकिन मार्च के तीसरे हफ्ते में मजबूरन उन्हें शिविर छोड़ना पड़ा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 23 मार्च रविवार को जनता कर्फ्यू और उसके बाद 25 मार्च से देशव्यापी लॉकडाउन लागू कर दिया। इससे राहत शिविर के अधिकारियों ने भी राहत की सांस ली। दंगा पीड़ितों को गुजर-बसर के लिए 3000-3000 रुपये के अलावा 20 किलो आटा, 10 किलो आलू देकर जाने को कह दिया गया। हालांकि राहत शिविर की जिम्मेदारी संभालने वाले दिल्ली वक्फ बोर्ड का कहना है कि अधिकांश दंगा पीड़ित खुद ही घर चले गए।
गैर सरकारी संगठन सोफिया के सामाजिक कार्यकर्ता सुहेल सैफी बताते हैं कि अधिकांश दंगा पीड़ितों को मुआवजा राशि नहीं मिल पाई है। यह हाल तब है, जब उन्होंने अधिकारियों के पीछे लगकर बहुत से केसों में निरीक्षण करा दिए थे। दंगा पीड़ितों को निरीक्षण रिपोर्ट के आधार पर ही मुआवजा मिलना है। वैसे मुआवजे के लिए 2000 आवेदन जमा किए गए हैं, लेकिन मुआवजा मुश्किल से दस फीसदी दंगा पीड़ितों को मिल पाया है।
सरकार भूल गई अपनी जिम्मेदारी
मुआवजे पर दिल्ली की आम आदमी पार्टी सरकार कोरोना संकट के दौर में कुछ भी कहने से बच रही है। दिल्ली सरकार के एक अधिकारी ने कहा कि अभी वह कुछ नहीं कह सकते हैं। सरकार मुआवजा देने की प्रक्रिया तेज करेगी। लेकिन यह आश्वासन खोखला प्रतीत होता है। सरकार के लिए दंगा पीड़ितों का पुनर्वास अहम मुद्दा नहीं रह गया है। सादिक मसीह एनजीओ के विनय स्टीफन कहते हैं, “प्रशासन का रवैया टालने वाला और समस्या को नजरंदाज करने वाला रहा है। कोरोना संक्रमण और लॉकडाउन के दौर में दंगा पीड़ितों का दो महीने किसी को कोई ख्याल नहीं है।” दो महीने पहले दिल्ली के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने बताया था कि दंगा पीड़ितों को 13.51 करोड़ रुपये की आर्थिक मदद दी गई है। लेकिन उसके बाद सरकार ने आगे मुआवजा बांटने के लिए कोई प्रयास नहीं किया। उत्तर-पूर्व जिले में राहत और पुनर्वास के प्रभारी अतिरिक्त जिलाधिकारी आर. पी. अग्रवाल बताते हैं कि बड़ी संख्या में दंगा पीड़ितों को मुआवजा दिया जा चुका है। जब उनसे लंबित आवेदनों की संख्या की जानकारी मांगी तो वह प्रवासी श्रमिकों को भेजने में व्यस्तता की बात कहकर टाल गए।
स्वास्थ्य पर खतरा और ज्यादा
दंगा पीड़ित इन दिनों जिन हालात में रहने को मजबूर हैं, उससे उन्हें स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं ज्यादा हो सकती हैं। स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि जब ये लोग खाने के लिए भी मोहताज हैं, तो ऐसे में उनके लिए कोरोना संक्रमण से बचाव के उपाय करना बेमानी हो जाता है। इसलिए उन पर संक्रमण का खतरा ज्यादा है।