पुलिस बिरादरी का सदस्य होने के नाते मैं बेहद शर्मिंदगी के साथ दिल्ली पुलिस की आलोचना करने पर मजबूर हूं, जिसका नेतृत्व सांप्रदायिक दंगों पर काबू करने में बुरी तरह नाकाम रहा। इसकी आग में राष्ट्रीय राजधानी कई दिनों तक धधकती रही। अनेक कीमती जिंदगियां भस्म हो गईं। धार्मिक स्थलों को आग के हवाले कर दिया गया। महिलाओं, बच्चों तक को निशाना बनाया गया। स्कूल, घर-दुकान खाक कर दिए गए। सांप्रदायिक आग कई दिनों तक धू-धूकर जलती रही, जैसे कानून का राज खत्म हो गया हो, और पुलिस मूकदर्शक भर थी।
रिटायर्ड पुलिस अधिकारी होने के नाते मैं दंगे के लिए नेताओं को दोषी ठहराकर असली मुद्दे से नहीं भटकना चाहूंगा, बल्कि कहूंगा कि पुलिस बल शीर्ष अधिकारियों के निर्देशों के अभाव में बेरोकटोक दंगे, हत्या और संपत्ति को नुकसान पहुंचाने से रोकने में दिशाहीन और असहाय थी। कानून और पुलिस से बेखौफ हथियारों से लैस दंगाई लोगों को मारते रहे और तोड़फोड़ तथा आगजनी करते रहे। पुलिस हाथ बांधे खड़ी रही तो हालात बिगड़ते गए। मेरे विचार से पुलिस व्यवस्था का सबसे महत्वपूर्ण अंग खुफिया सूचनाएं होती हैं जो साफ-साफ नदारद थीं। यह भयंकर कोताही है जिसे किसी भी तरह माफ नहीं किया जा सकता। हर इलाके की पुलिस के पास लोकल इंटेलीजेंस यूनिट (एलआइयू) नाम का खुफिया तंत्र और बीट कांस्टेबल का नेटवर्क होता है, जो हर थाने के इलाके की घटनाओं पर तीखी नजर रखता है। यह अहम तंत्र निष्क्रिय था और उस पर जरूरी तवज्जो नहीं दी गई।
अब हालात के आकलन पर नजर दौड़ाइए। शाहीन बाग पिछले काफी समय से सुर्खियों में है और अंतरराष्ट्रीय ध्यान भी खींच रहा है। इससे आम लोगों को भारी असुविधा भी झेलनी पड़ रही है, लेकिन पुलिस उदासीन बनी रही। कहा जा रहा है कि उत्तर-पूर्व दिल्ली में 1984 के सिख दंगों के बाद की सबसे भीषण सांप्रदायिक झड़पें हुई हैं। आम तौर पर यही माना जाता है कि कानून लागू करने वाली एजेंसियों को बाहरी अशांति के बाद सांप्रदायिक तनाव और दंगों पर सबसे ज्यादा ध्यान देना होता है। असामाजिक तत्वों ने भड़काऊ भाषण दिए, खुलेआम बंदूक और पिस्तौल लहराई गईं और गोलियां चलाई गईं, लेकिन इन अपराधों में लिप्त लोगों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई। इससे सांप्रदायिक तत्वों का हौसला बढ़ गया। शीर्ष अधिकारी क्या कर रहे थे?
सांप्रदायिक या कानून व्यवस्था की समस्या के लिए नेताओं पर दोष मढ़ना और राजनीतिक हस्तक्षेप का बहाना बनाना पुलिस के एक वर्ग की आदत बन गई है। कोई भी सरकार पुलिस से किसी सांप्रदायिक तनाव या हिंसा के प्रति उदासीन रहने को शायद ही कहे। फिर, किसी भी अप्रिय स्थिति से निपटने के लिए पुलिस के पास पर्याप्त स्वतंत्रता है। उसके पास हथियार हैं, ट्रेनिंग है और दंगों से निपटने की क्षमता है। सबसे बड़ी बात, उसके पास भारतीय दंड संहिता (आइपीसी) और अपराध प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की संस्थागत शक्ति है। इसके बावजूद दिल्ली पुलिस में जड़ता और लापरवाही दिखाई देती है, क्यों?
पुलिस का यह भी काम है कि वह हर थाना क्षेत्र में सम्मानित और प्रभावी लोगों के साथ अच्छे संबंध बनाकर चले। ऐसे लोगों का स्थानीय लोगों पर काफी प्रभाव होता है और वे तनाव दूर करने में प्रभावशाली साबित होते हैं। जिला पुलिस अधिकारी रहने के नाते हम सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील जिलों जैसे मेरठ और लखनऊ के पुराने शहर में ऐसे लोगों का प्रभावी इस्तेमाल करते थे और तनाव दूर करते थे। लगता है, दिल्ली पुलिस ने इस पुरानी व्यवस्था को ज्यादा महत्व नहीं दिया। दंगों से समुदायों के बीच दूरियां बढ़ गई हैं।
राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) अजित डोभाल पहले और एकमात्र शीर्ष स्तर के अधिकारी थे, जो दंगा प्रभावित क्षेत्रों में गए। स्थानीय लोगों के साथ संवाद के लंबे अनुभव के कारण वे लोगों को सांत्वना दे पाए। इस मौके पर दिल्ली में उप-राज्यपाल की भूमिका पर भी बात होनी चाहिए। केंद्र शासित दिल्ली में वे केंद्रीय गृह मंत्रालय के प्रमुख प्रतिनिधि हैं। औपचारिक पद पर बैठे व्यक्ति के पास व्यापक प्रशासनिक अनुभव होता है। वे सांप्रदायिक दंगों जैसी आपात स्थिति में सकारात्मक भूमिका निभा सकते हैं, पुलिस को सांप्रदायिक आग को शांत करने के निर्देश दे सकते हैं। किसी हाई प्रोफाइल विदेशी मेहमान के दौरे के समय दिल्ली में शांति व्यवस्था बनाए रखने में अहम भूमिका निभा सकते थे।
ऐसे पुलिस अधिकारियों की जिम्मेदारी तय करने की भी आवश्यकता है, जिन्होंने लापरवाही बरती और दुखद घटनाएं रोकने के लिए कदम नहीं उठाए। अभी रिटायर हुए पुलिस आयुक्त के बारे में माना जा रहा है कि वे अपने अधीन पुलिस बल को स्थिति नियंत्रण में रखने के लिए सक्रिय करने में न सिर्फ नाकाम रहे, बल्कि समझ ही नहीं पाए कि क्या करना है। पिछले साल भी ऐसी स्थिति बनी, जब पुलिस का वकीलों के साथ टकराव हो गया। कई बार चूकने के बावजूद पद पर बने रहे आयुक्त सांप्रदायिक दंगों जैसी गंभीर स्थिति में भी खुद को साबित नहीं कर पाए। नए पुलिस आयुक्त की नियुक्ति हो गई है। उनका पहला काम पुलिस बल का मनोबल बढ़ाना है। उन्हें दंगा प्रभावित क्षेत्रों में पीड़ितों से मिलना होगा और हालात का जायजा लेना होगा ताकि जनता का विश्वास जीता जा सके। सुरक्षा का भाव पैदा करना उनकी प्राथमिकता होनी चाहिए, फिर भले ही लोग किसी भी समुदाय के हों। उनकी गतिविधियां निष्पक्ष दिखनी चाहिए।
आखिर में, हमारे प्रतिद्वंद्वी पड़ोसी संकट के समय हाथ सेंकने का शायद ही कोई मौका गंवाएं। इसलिए जासूसी संगठनों को अतिरिक्त रूप से सतर्क और सक्रिय करना होगा, ताकि सांप्रदायिक तनाव फैलाने और इस मकसद से एजेंट भर्ती करने के पाकिस्तानी आइएसआइ के किसी भी प्रयास को नाकाम किया जा सके।
सांप्रदायिक सद्भाव कायम करना पहली जरूरत है और नए पुलिस आयुक्त और उनका पुलिस बल यह सब कर सकता है, क्योंकि दिल्ली पुलिस का कई गंभीर स्थितियों से प्रभावी तरीके से निपटने का गौरवशाली इतिहास रहा है। इसके लिए कोई अलग मंत्र नहीं है, बल्कि पेशेवर की तरह काम करना ही होगा।
(लेखक यूपी काडर के रिटायर्ड आइपीएस अधिकारी, सुरक्षा विश्लेषक और मॉरीशस के प्रधानमंत्री के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार रहे हैं। ये उनके निजी विचार हैं)
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असामाजिक तत्वों ने भड़काऊ भाषण दिए, बंदूकें लहराई गईं और गोलियां चलाई गईं, लेकिन इन लोगों के खिलाफ कार्रवाई में ढिलाई बरती