सर्वे भवन्तु सुखिनःसर्वे सन्तु निरामयाः ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्दुःखभाग्भवेत्।।
जिस मंत्रदृष्टा वैदिक ऋषि ने यह प्रार्थना की, उसने इसमें यह कामना की कि संसार के सभी प्राणी (केवल मनुष्य ही नहीं) सुखी हों, निरोग हों, हमेशा अच्छा देखें और उन्हें कभी दुःख न सहना पड़े। उसने यह प्रार्थना किसी एक समूह या समुदाय के लिए नहीं बल्कि सभी के लिए की। भारतीय दर्शन, विचार परंपरा, जीवन शैली और सामाजिक-सांस्कृतिक मानस पर इस सार्वभौमिक शुभेच्छावृत्ति का बहुत बड़ा असर पड़ा है। हालांकि, भारतीय समाज के भीतर भी हमेशा अंतर्संघर्ष होते रहे हैं, लेकिन इसके बावजूद यह बुनियादी जीवन-दृष्टि बनी रही है। सच्ची धार्मिकता और आध्यात्मिकता का यह सार है।
भारतीय समाज में व्याप्त विविधता में एकता भी इसी दृष्टि के कारण संभव हो पायी है। इसीलिए भारत के विभिन्न स्थानों में जन्मे चिंतकों और मनीषियों ने कभी भी संकुचित दृष्टि को नहीं अपनाया। सिकंदर के भारत पर आक्रमण को पहला ऐतिहासिक और दस्तावेजी हमला माना जा सकता है। लेकिन इस हमले का ही परिणाम था कि भारतीय और यूनानी दर्शन, गणित, ज्योतिष और कला के बीच हुई अंतःक्रियाओं के परिणामस्वरूप दोनों एक-दूसरे से प्रभावित हुए। यूनानियों के बाद भी भारत में अनेक आक्रमणकारी आए और यहीं बस गए। संश्लिष्ट भारतीय संस्कृति के निर्माण में इन सभी विदेशी समूहों का योगदान है। यदि आज हम शुद्ध भारतीय वस्त्र, भोजन और कला-साहित्य ढूंढ़ने निकलें, तो हमें असफलता ही हाथ लगेगी। इन विदेशी समूहों में मुसलमान अंतिम थे, जिन्होंने इस देश को अपना घर बनाया और इसकी समृद्धि में योगदान किया। उनके बाद आने वाले अंग्रेजों ने तो भारत को पैसा बनाने की मशीन ही समझा और इसे कंगाल बनाकर धन अपने देश भेजा। तभी तो भारतेंदु हरिश्चन्द्र को बहुत दुःख के साथ यह कहना पड़ा : “पै धन बिदेस चलि जात यहै अति ख़्वारी”।
हिंदी के भक्त कवि मुस्लिम शासनकाल में ही पैदा हुए, एक स्वतःस्फूर्त असंगठित भक्ति आंदोलन इसी दौर में शुरू हुआ और फैला, और इसी कालावधि में संतों ने काव्य रचना की, जिसे आज हम भक्ति साहित्य के नाम से जानते हैं। किसी भी भक्त कवि के काव्य में किसी भी धार्मिक समुदाय के प्रति घृणा, अवहेलना, अनादर या तिरस्कार का भाव व्यक्त नहीं हुआ है। सिखों के जीवित गुरु माने जाने वाले ग्रंथ साहिब में तो अनेक मुस्लिम सूफी संतों और आज की भाषा में दलित कहे जाने वाले निचली जातियों के संतों की बानी संकलित है। अमृतसर के हरमंदिर साहिब, जिसे हम अब स्वर्णमंदिर भी कहते हैं, की नींव तो एक मुस्लिम सूफी संत ने ही रखी थी।
पिछले एक हजार साल में तुलसीदास से बड़ा रामभक्त कौन हुआ है? उनका पूरा जीवन मुगलों के शासन में बीता। क्या उनकी एक भी ऐसी पंक्ति उद्धृत की जा सकती है, जो मुसलमानों के खिलाफ हो? हां, दकियानूसी ब्राह्मणों के विरोध से तंग आकर उन्होंने आक्रोश व्यक्त करते हुए यह जरूर लिखा:
धूत कहो अवधूत कहो रजपूत कहो, जुलाहा कहो कोऊ।
काहू की बेटी से बेटा न व्याहब, काहू की जाति बिगारि न सोऊ।।
तुलसी सरनाम गुलाम है राम को, जाको रुचै सो कहौ कछु सोऊ।
मांगि के खइबो मसीत में सोइबो, लेइबै को एक न देइबै को दोऊ।।
“चाहे कोई मुझे धूर्त कहे, अवधूत कहे, राजपूत कहे या जुलाहा ही कह डाले, मुझे किसी की कोई चिंता नहीं है। न किसी की बेटी से अपने बेटे का ब्याह करके उसकी जाति बिगाड़ने की ही पड़ी है। सारी दुनिया जानती है कि तुलसी राम का सबसे बड़ा ग़ुलाम है। अब जिसका जो मन करे, वह कहे। मेरा क्या है, मैं तो मांग कर खाता हूं और मस्जिद में सो रहता हूं।”
आज उन्हीं मस्जिदों को जलाया जा रहा है जिनमें राम के सबसे बड़े भक्त तुलसीदास जाकर शरण लिया करते थे। तुलसी ने हिंदू समाज के सामने जिस भक्ति का आदर्श रखा था, आज वह कहां गया? रामचरितमानस में तुलसी ने स्पष्ट घोषणा की है: परहित सरिस धरम नहिं भाई, परपीड़ा सम नहिं अधमाई। दूसरे का हित करने से बड़ा कोई धर्म नहीं है और दूसरे को पीड़ा पहुंचाने से बड़ी कोई अधमता नहीं है। आज तुलसीदास की इस चौपाई को भुला क्यों दिया गया है? क्यों “दूसरे” में दुश्मन नजर आता है? आज पूरे भारत को धर्म के आधार पर अपने और पराए में, देशभक्त और देशद्रोही में, नागरिक और गैर-नागरिक में क्यों बांटा जा रहा है? भारतीय संस्कृति के उस ताने-बाने को क्यों छिन्न-भिन्न किया जा रहा है, जिसमें तुलसीदास मस्जिद में सोने की सोच सकते हैं, रसखान कृष्ण के गीत गा सकते हैं, नजीर अकबराबादी होली और बसंत के तराने छेड़ सकते हैं और मौलाना हसरत मोहानी मथुरा-वृंदावन पर कविता लिख सकते हैं? तुलसीदास हमारे सामने भक्ति का आदर्श प्रस्तुत कर गए हैं। वे गणेश की स्तुति करते हुए उनसे सिर्फ इतना कहते हैं: मांगत तुलसीदास कर जोरे, बसहुं राम-सिय मानस मोरे। (हाथ जोड़ कर तुलसीदास अपने लिए केवल यह मांगता है कि उसके हृदय में हमेशा राम और सीता बसे रहें)। एक समय था जब “जय सिया राम” अभिवादन हुआ करता था। अब राम को सीता से अलग कर दिया गया है और “जय श्री राम” को एक आवेशपूर्ण आक्रामक नारा बना दिया गया है। यूरोपीय सेकुलरिज्म जहां राज्य और धर्म को अलगाने की बात करता है, वहीं भारतीय सेकुलरिज्म की विशिष्टता सर्वधर्म-समभाव बताई जाती है, यानी शासन सभी धर्मों को समान दृष्टि से देखेगा। क्या आज ऐसा हो रहा है?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, राजनीति और कला-संस्कृति पर लिखते हैं)
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भारतीय संस्कृति के उस ताने-बाने को क्यों छिन्न-भिन्न किया जा रहा है, जिसमें तुलसीदास मस्जिद में सोने की सोच सकते हैं और रसखान कृष्ण के गीत गा सकते हैं