आखिर डिजिटल प्लेटफॉर्म को जिसका डर था, वही हुआ! अमेजन प्राइम वीडियो पर पॉलिटिकल थ्रिलर वेब सीरीज तांडव के रिलीज होते ही वाकई तांडव मच गया है। सीरीज के सीजन वन में 9 एपिसोड हैं जिसमें धार्मिक भावनाओं को आहत करने का आरोप लगाया जा रहा है। नॉर्थ-ईस्ट मुंबई से भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सासंद मनोज कोटक ने सूचना-प्रसारण मंत्रालय से इसे बैन करने की मांग की है। सूचना-प्रसारण मंत्रालय ने अमेजन प्राइम से जबाव-तलब किया है। मनोज कोटक ने ओवर दी टॉप (ओटीटी) प्लेटफॉर्म को रेग्युलेट करने के लिए जल्द-से-जल्द अथॉरिटी गठित करने की भी मांग की है। कोटक ने आरोप लगाया है कि किसी भी तरह की अथॉरिटी नहीं होने की वजह से इनमें सेक्स, हिंसा और अश्लीलता परोसी जा रही है।
दरअसल, मोदी सरकार ने ऑनलाइन सूचना के माध्यमों और उनके कंटेंट को नियंत्रित करने के लिए बीते साल 9 नवंबर को ही ‘सरकारी फंदे’ तैयार कर लिए थे। केंद्रीय कैबिनेट ने ऑनलाइन न्यूज पोर्टलों, ऑनलाइन कंटेंट प्रोवाइडरों को सूचना-प्रसारण मंत्रालय के तहत लाने से जुड़े गाइडलाइन जारी किए। इससे सूचना-प्रसारण मंत्रालय के तहत ऑनलाइन फिल्में यानी ओवर-द-टॉप (ओटीटी) के साथ ऑडियो-विजुअल कार्यक्रम, ऑनलाइन न्यूज आएंगे।
इससे पहले भी नेटफ्लिक्स पर आई सीरीज अ सूटेबल बॉय को लेकर बवाल मचा था। भाजपा नेता राम कदम ने तांडव के लेखक गौरव सोलंकी, निर्माता-निदेशक अली अब्बास जफर समेत अन्य अभिनेताओं के खिलाफ मुंबई के घाटकोपर में मामला भी दर्ज कराया है। तांडव में अभिनेता सैफ अली खान, डिंपल कपाड़िया, सुनील ग्रोवर, कृतिका कामरा, तिग्मांशु धूलिया, सारा जेन डायस सरीखे अन्य कलाकारों ने अभिनय किया है। हालांकि, फिल्म समीक्षकों ने सीरीज को औसत या कमतर ही आंका है। ये भी आरोप लग रहे हैं कि जानबूझकर इसे हवा दी जा रही है। दरअसल तांडव की कहानी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के इर्द-गिर्द घुमती है। आउटलुक ने नेटफ्लिक्स और अमेजन प्राइम वीडियो से इस पर प्रतिक्रिया मांगी। उनका कहना था कि वे अभी कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं हैं।
आलोचकों का आरोप है कि केंद्र पहले ही मेनस्ट्रीम मीडिया को पूरी तरह से अपने पाले में कर चुका है। अब वह ऑनलाइन न्यूज पोर्टलों और ओटीटी के जरिए हो रही आलोचनाओं को नियंत्रित करना चाह रहा है। दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के स्कूल ऑफ आर्ट्स ऐंड एस्थेटिक्स में सिनेमा स्टडीज की प्रोफेसर इरा भास्कर आउटलुक से कहती हैं, “सरकार का यह कदम सीधे तौर पर अपनी बातों को रखने के अधिकारों पर चोट होगी। ऑनलाइन मीडिया और ओटीटी के माध्यम से जिन बातों को कहने, लिखने और दिखाने की स्वतंत्रता है, वह अब शायद नहीं होगी।”
हालांकि सेंसर बोर्ड की सबसे युवा सदस्य वाणी त्रिपाठी ने बीते साल की शुरुआत में आउटलुक के लिए लिखे एक कॉलम में कबूल किया था कि जिस तरह से फिल्मों को सेंसर बोर्ड यानी केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड से प्रमाणित किया जाता है, वैसे डिजिटल कंटेंट पर नियंत्रण नहीं रखा जा सकता है। उनका मानना है कि सिनेमा का कंटेंट लोग बड़े स्क्रीन पर समूह में बैठकर देख सकते हैं, जबकि डिजिटल कंटेंट तो निपट व्यक्तिगत खपत के लिए है, लोग उसे स्मार्टफोन वगैरह पर अपनी हथेलियों में देख सकते हैं। एक सर्वे के अनुसार तकरीबन 80 फीसदी लोग इसे अपने स्मार्टफोन पर देखते हैं, कंप्यूटर या आइ-पैड पर नहीं। हालांकि वाणी यह भी कहती हैं कि डिजिटल कंटेंट भी सार्वजनिक परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए, क्योंकि अंततः उसका असर तो सामाजिक माहौल पर ही पड़ता है।
दरअसल, यह बखेड़ा पिछले साल अगस्त में शुरू हुआ था जब सुदर्शन न्यूज ने ‘बिंदास बोल’ कार्यक्रम के लिए ‘यूपीएससी जिहाद’ शीर्षक से एक कार्यक्रम तैयार किया था। उसमें एक समुदाय विशेष के साथ-साथ दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लामिया के छात्रों को टारगेट करने का आरोप उछला और मामला दिल्ली हाइकोर्ट में पहुंचा। कोर्ट ने कार्यक्रम के प्रसारण के दिन (28 अगस्त) ही इस पर रोक लगा दी। हालांकि 10 सितंबर को केंद्रीय सूचना-प्रसारण मंत्रालय ने चैनल को कार्यक्रम प्रसारित करने की अनुमति दे दी। लेकिन, 15 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस डीवाइ चंद्रचूड़ की अगुआइ वाली तीन जजों की बेंच ने केंद्र के आदेश को पलटते हुए प्रसारण पर रोक लगा दी। अदालत ने कहा, “एंकर कहता है कि एक विशेष समुदाय यूपीएससी में घुसपैठ कर रहा है। क्या इससे ज्यादा घातक बात कोई हो सकती है? ऐसे आरोपों से देश की स्थिरता पर असर पड़ता है और यूपीएससी परीक्षाओं की विश्वसनीयता कलंकित होती है।”
दरअसल, बॉलीवुड अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत मामले से लेकर सुदर्शन चैनल के ‘यूपीएससी जिहादी’ जैसे कार्यक्रमों को लेकर मीडिया की भूमिका पर लगातार सवाल उठते रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से टेलीविजन, मीडिया के प्रसारण पर नियंत्रण और कंटेंट पर नियंत्रण करने के संबंध में जवाब मांगा था। उस पर सरकार का जवाब था कि टीवी से ज्यादा ऑनलाइन मीडियम के रेगुलेशन की जरूरत है, क्योंकि न्यूज चैनलों के लिए पहले से पर्याप्त कानून हैं।
उधर, कोविड-19 महामारी की वजह से सिनेमाघरों में ताला लग गया, तो मनोरंजन के साधन स्मार्टफोन वगैरह के जरिए ओटीटी प्लेटफॉर्म ही रह गए। अब इसके माध्यम में भी तब्दीली आ चुकी है और ऑनलाइन वेब सीरीज की लोकप्रियता तेजी से बढ़ी है। नेटफ्लिक्स, हॉटस्टार, अमेजन प्राइम वीडियो, डिज्नी-हॉटस्टार, एमएक्स प्लेयर, अल्ट बालाजी जैसे ओटीटी प्लेटफॉर्म दर्शकों के लिए कई एपिसोड में कोई कहानी पेश कर रहे हैं। कंप्लिट सिनेमा के एडिटर अतुल मोहन आउटलुक से कहते हैं, “इस महामारी ने इस क्षेत्र को नया उछाल दिया है। दो-तीन साल में इसका मार्केट काफी बढ़ा है। अभी 40 से अधिक ओटीटी प्लेटफॉर्म हमारे यहां मौजूद हैं।”
इंक 42 डॉट कॉम की रिपोर्ट के मुताबिक ओटीटी का बाजार भारत में 2024 तक 21,598 करोड़ रुपये (2.9 अरब डॉलर) का होने वाला है। करीब 93 फीसदी उपलब्ध वीडियो कंटेंट सब्सिक्रिप्टेड है। अतुल मोहन कहते हैं कि ओटीटी का इकोनॉमी मॉडल पूरी तरह से ग्राहकों के सब्सिक्रिप्शन पर आधारित है। अगले तीन-चार साल में इसका मार्केट और बड़ा होने वाला है। इस वजह से ऑनलाइन फ्लेटफॉर्म को रेगुलेट करने की मांग उठ रही है। लेकिन साइबर और फिल्म विशेषज्ञों का मानना है कि ऑनलाइन सेंसरशिप संभव नहीं है। दरअसल, सेक्रेट गेम्स, रसभरी और मिर्जापुर जैसी पॉपुलर सीरीज के कंटेंट ने युवा दर्शकों को आकर्षित किया है, उससे रेगुलेशन की बहस तेज हुई है। लेकिन, अब इस पर सरकारी नियंत्रण के फैसले को आवाज दबाने का एक और कदम बताया जा रहा है। 2019 में नेटफ्लिक्स की हुमा कुरैशी अभिनित लैला वेब सीरीज में भारत में हिंदू राष्ट्र की अवधारणा पर ‘आर्यावर्त देश’ की स्थापना और उसके आगे के परिदृश्य की ओर ध्यान खींचा गया। इरा भास्कर का मानना है कि सरकार इन माध्यमों को रेगुलेट करेगी तो वह बिल्कुल नहीं चाहेगी कि इस तरह के कंटेंट लिखे जाएं। हालांकि अतुल मोहन कहते हैं, “अभी वेब सीरीज में मनोरंजन के नाम पर सॉफ्ट पॉर्न परोसे जा रहे हैं। जो सही नहीं है।”
इसी के साथ दूसरी बहस मीडिया को लेकर है। कथित तौर पर मेनस्ट्रीम मीडिया में स्वतंत्र पत्रकारों के लिए सिकुड़ती जगह भी ऑनलाइन मीडिया को बढ़ावा दे रही है। इस वक्त 70 न्यूज चैनलों का एक स्वतंत्र निकाय संस्थान नेशनल ब्रॉडकास्टिंग स्टैंडर्ड्स अथॉरिटी (एनबीएसए) है। वहीं, रिपब्लिक, टीवी9 भारतवर्ष समेत करीब 45 अन्य चैनलों ने न्यूज ब्रॉडकास्ट फेडरेशन (एनबीएफ) नाम से एक अन्य निकाय की हाल ही में स्थापना की है। डिजिटल न्यूज चैनलों की बढ़ती पहुंच को लेकर अब 11 डिजिटल न्यूज चैनलों ने ‘डिजिपब न्यूज इंडिया फाउंडेशन’ के नाम से अपना एक संगठन स्थापित किया है। इसी का एक सदस्य न्यूज लॉन्ड्री है। इसके सीईओ और ‘डिजिपब’ के जनरल सेक्रेटरी अभिनंदन सेखरी कहते हैं, “यह साफ नहीं है कि सरकार क्या करना चाह रही है। लेकिन उसके रुझान से स्पष्ट है कि केंद्र का नियंत्रण जिस तरह मेनस्ट्रीम मीडिया में दिख रहा है, कुछ उसी तरह का नियंत्रण वह डिजिटल मीडिया में भी चाहती है।” आउटलुक से बातचीत में वे कहते हैं, “सरकार डिजिटल मीडिया में विदेशी निवेश (एफडीआइ) की सीमा तय कर चुकी है। साफ तौर से आर्थिक रूप से इस माध्यम को कमजोर करने का प्रयास है, ताकि वह सरकारी विज्ञापनों और पार्टी फंडिंग पर चले और उसके मुताबिक काम करें।”
सरकार के इस कदम को लेकर कानूनी विशेषज्ञों की राय अलग है। आउटलुक से बातचीत में साइबर लॉ एक्सपर्ट और साइबर सुरक्षा कानून पर अंतरराष्ट्रीय आयोग के अध्यक्ष एडवोकेट पवन दुग्गल कहते हैं, “यह बात कई वर्षों से उठाई जा रही थी कि डिजिटल मीडिया के लिए भी एक नियामक तंत्र होना चाहिए। सरकार को सावधानी से कदम उठाने होंगे, क्योंकि यह अभिव्यक्ति की आजादी से जुड़ा मामला है।”
बहरहाल, मीडिया को नियंत्रित करने की कोशिश हर दौर में चलती रही है और सरकारें जनमत पर अपनी पकड़ बनाए रखने को हमेशा तत्पर रहती हैं। लेकिन इस दौर में मीडिया पर नियंत्रण पाने की कोशिश कुछ ज्यादा ही दिख रही है। देखना है, सरकार इसके लिए क्या कदम उठाती है।