डायरेक्ट यानी प्रत्यक्ष का रास्ता कई इनडायरेक्ट यानी अप्रत्यक्ष दिक्कतें लेकर आता है। यह बात कृषि क्षेत्र और किसानों के मामले में काफी हद तक लागू होती है। मसलन, सरकार को पता है कि दूध, गन्ना, आलू और प्याज जैसी फसल उगाने वाले किसानों के मुकाबले इनके उपभोक्ता ज्यादा हैं यानी वोट भी ज्यादा हैं। इसलिए अक्सर इन फसलों की कीमतों पर अंकुश लगाने की कोशिशें सरकारें लगातार करती रही हैं। सारा मामला वोट का जो है। इसे पॉलिटिकल इकोनॉमी भी कह सकते हैं। लेकिन कभी-कभी यह दांव उल्टा पड़ जाता है। हाल के एक दशक में तो दो सरकारों को इस कड़वे सच से जूझना भी पड़ा है। कांग्रेस की मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए-दो सरकार को महंगाई की मार झेलनी पड़ी थी। राजनैतिक स्तर पर भ्रष्टाचार और नीतिगत पंगुता के आरोप झेलती सरकार को खाने-पीने की वस्तुओं की महंगाई पर नियंत्रण न रख पाने का खामियाजा भुगतना पड़ा था।
अब बात मौजूदा मोदी-दो सरकार की। पहली सरकार के दौरान स्थितियां उसके लिए कुछ अच्छी थीं। खाद्य महंगाई दर नियंत्रण में थी लेकिन इसके साथ ही किसानों की वित्तीय स्थिति भी खराब होती गई क्योंकि उनकी उपज के दाम काफी कम रहे या पहले से काफी गिर गए। ऐसे में सरकार के पास तेल की कीमतों के कम होने के चलते राजस्व भी काफी आ रहा था। नतीजा किसानों की कम चिंता करके तमाम तरह की लोक-लुभावन योजनाएं चलाई गईं और खर्च का आवंटन किया गया। उसी में ‘उज्ज्वला’ से लेकर ‘सौभाग्य’ और ‘ग्रामीण आवास’ से लेकर ‘स्वच्छ भारत’ जैसी योजनाएं परवान चढ़ीं। लेकिन अब मामला थोड़ा मुश्किल हो गया है। खाद्य महंगाई दर दहाई में चली गई है और आने वाले कुछ माह में काबू में आने की संभावना न के बराबर है। बात दूध की हो, प्याज की हो, आलू की हो या चीनी की, सभी की कीमतों में ऊपर का रुख है। इसके लिए विश्व बाजार में भी जाएंगे तो वहां भी सस्ती दर नहीं मिलेगी। यह बात अलग है कि एक बार फिर घरेलू किसानों के हितों की कीमत पर उपभोक्ताओं के हितों के लिए सीमा शुल्क में कटौती कर कुछ कृषि और डेयरी उत्पादों के सस्ते आयात का रास्ता खोलने की कोशिश हो सकती है। जहां तक राजकोषीय मोर्चे की बात है तो वहां हाथ सिकुड़ रहा है क्योंकि कच्चे तेल की कीमतें तो 70 डॉलर के आसपास ही रहने के आसार हैं, इसलिए वहां से अतिरिक्त राजस्व के बजाय महंगाई बढ़ाने वाले कारक जरूर जुड़ सकते हैं। इसलिए जो प्रत्यक्ष नहीं है, वह भी राजनैतिक रूप से कुछ दिक्कतें पैदा कर सकता है।
वैसे, कृषि के मोर्चे पर कुछ पैसा बचाने की कवायद भी चल रही है। इसके लिए खाद सब्सिडी को सीधे किसानों के खाते में डालने की योजना है। इसमें हर किसान को एक वॉलेट मिलेगा और उसमें पहले से सब्सिडी का पैसा होगा जिसका उपयोग वह खाद डीलर के यहां खाद खरीदने में कर सकता है। यह अभी विचार के स्तर पर है। पहले इसका डाटा एकत्र करने की प्रक्रिया शुरू हो रही है क्योंकि पहले चरण में डीलर के स्तर पर खाद खरीदने वाले किसानों का डाटा इकट्ठा किया जाएगा। हालांकि, इस मसले पर बातें काफी समय से हो रही हैं लेकिन अभी तक कुछ नहीं हो पाया है। वैसे, बड़े पैमाने पर ऐसे बंटाईदार किसान हैं जो दूसरों की जमीन पर खेती करते हैं। इनके और जमीन के मालिक के बीच कोई वैध समझौता दस्तावेज भी नहीं होता है, तो उन किसानों को कैसे सब्सिडी मिलेगी। दूसरे, सब्सिडी के पहले तमाम नियम और शर्तें भी तय करनी होंगी। कम से कम इसे आधार और बैंक एकाउंट के साथ भी जोड़ना पड़ेगा। ये ऐसे मसले हैं जिन पर कई तरह की प्रतिक्रियाएं आएंगी।
फिर बात परोक्ष फायदे की। अभी सरकार उर्वरक उत्पादक कंपनियों को सीधे सब्सिडी देती है जिनमें कुछ दर्जन कंपनियां ही शामिल हैं। कुछ बरसों से उनको सब्सिडी में देरी होना सामान्य सा हो गया है। हर साल तीस से चालीस हजार करोड़ रुपये की सब्सिडी बकाया होती है जो अगले साल में ट्रांसफर कर दी जाती है। इस साल अभी तक उर्वरक कंपनियों की सब्सिडी का 40 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा बकाया सरकार पर है। ऐसे में, किसानों को खाद खरीदने के पहले सब्सिडी देने के लिए संसाधन आसानी से उपलब्ध होंगे, यह कहना थोड़ा मुश्किल है। इसलिए खेती किसानी, कारोबार, महंगाई और सरकार के बीच डायरेक्ट और इनडायरेक्ट का मसला काफी पेचीदा है। हां, एक बात सच है कि यह मसला है पूरी तरह से पॉलिटिकल इकोनॉमी का। इसका फायदा भी होता है और सरकार को नुकसान भी होता है। इस बार ऊंट किस करवट बैठेगा, यह आने वाले समय में ही पता चलेगा।