भारतीय इकोनॉमी इस समय ढांचागत आर्थिक सुस्ती का शिकार है या फिर चक्रीय सुस्ती का सामना कर रही है? यह सवाल इस समय सबसे ज्यादा पूछा जा रहा है। आज के दौर में आपको बहुत कम लोग मिलेंगे जो इस बात को मानते हैं कि अर्थव्यवस्था ढांचागत सुस्ती का सामना कर रही है।
मौजूदा आर्थिक सुस्ती को समझने के लिए जरूरी है कि हम सबसे पहले वैश्विक आर्थिक संकट से पूर्व और बाद की परिस्थितियों को समझने की कोशिश करें। वैश्विक आर्थिक संकट शुरू होने से पहले करीब एक दशक तक दुनिया की अर्थव्यवस्था की विकास दर ऊंची थी। लेकिन 2011 आते-आते कई उभरती अर्थव्यवस्थाओं में विकास दर गिरनी शुरू हो गई। उस दौर में कच्चे तेल की कीमतें लगातार गिर रही थीं, इसके बावजूद भारत इस संकट से अछूता नहीं रह सका। लेहमन संकट को देखते हुए घरेलू स्तर पर जो राहत पैकेज दिए गए थे, उसने भारतीय अर्थव्यवस्था को काफी हद तक संभाल लिया। लेकिन जैसे ही पैकेज वापस लिया जाने लगा, अर्थव्यवस्था की ढांचागत समस्याएं सामने आने लगीं।
अर्थव्यवस्था को गति देने में सबसे अहम भूमिका लोगों की खपत, निजी निवेश, निर्यात और सरकार के खर्च की होती है। मौजूदा समय में इनकी क्या स्थिति है, इसे समझना बेहद जरूरी है। सबसे पहले लोगों की खपत यानी खर्च की बात करते हैं। समस्या ढांचागत है, इसका सबसे बड़ा संकेत यह है कि ग्रामीण और शहरी क्षेत्र में 2012 से 2018 के बीच वास्तविक वेतन में बढ़ोतरी नहीं हुई है। यह स्थिति साल 2004-05 से 2011-12 के ठीक उलट है। उस समय गैर-कृषि क्षेत्र में हर साल 75 लाख नई नौकरियां पैदा हो रही थीं। इसी का परिणाम था कि उस वक्त बेरोजगारी दर केवल 2.2 फीसदी थी। दूसरी ओर, 2012-2018 के बीच गैर-कृषि क्षेत्र में हर साल केवल 22 लाख नौकरियां सृजित हुईं और बेरोजगारी दर 6.1 फीसदी के रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गई। 2004-05 से 2011-12 के बीच शहरों में नियमित कामगारों का वेतन 183 रुपये प्रति दिन से 24 फीसदी बढ़कर 226 रुपये पर पहुंच गया था। लेकिन 2012 से 2018 के बीच वेतन 226 से 8.9 फीसदी गिरकर 205 रुपये पर आ गया। इसी तरह ग्रामीण क्षेत्र में भी वेतन में थोड़ी गिरावट दर्ज की गई, जबकि पहले इसमें 13 फीसदी बढ़ोतरी हुई थी। शहरी क्षेत्र में काम करने वाले अस्थायी कर्मचारियों के वेतन की तुलना की जाए तो वह 2004 से 2012 के बीच 31 फीसदी बढ़ा था, जबकि 2012 से 2018 के बीच उसमें केवल 7.1 फीसदी बढ़ोतरी हुई। इसी तरह, ग्रामीण क्षेत्र में अस्थायी कामगारों का वेतन पहले 44.5 फीसदी बढ़ा था, जबकि 2012 से 2018 के दौरान यह बढ़ोतरी गिरकर छह फीसदी पर आ गई।
दूसरे शब्दों में कहें तो आमदनी में लगातार हो रही कमी की वजह से मौजूदा आर्थिक संकट खड़ा हुआ है। गैर-कृषि क्षेत्र में नौकरियां मुश्किल से निकल रही हैं। इसे और विस्तार से देखा जाए तो मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में 2004-05 और 2011-12 के बीच नौकरियों में 11 फीसदी की बढ़ोतरी देखी गई थी, जो 2012 से 2018 के दौरान 5.7 फीसदी गिर गई। इसी तरह कंस्ट्रक्शन क्षेत्र में नौकरियों की ग्रोथ 96.5 फीसदी की तुलना में गिरकर आठ फीसदी पर आ गई है। यह क्षेत्र सबसे ज्यादा ग्रामीण क्षेत्र से शहरों में आए कामगारों को नौकरियां मुहैया कराता है। ऐसा ही हाल सर्विस सेक्टर का भी हुआ है, जहां नौकरियां बढ़ने की दर 18.6 फीसदी से गिरकर 13.4 फीसदी पर आ गई है।
जब वेतन और आय में कमी होती है, तो लोग अपने खर्चे पूरे करने के लिए बचत में कटौती करने लगते हैं। इसी का परिणाम है कि 2011-12 में जो घरेलू बचत (2011-12 की सीरीज के आधार पर) सकल घरेलू उत्पाद का 23.6 फीसदी थी, वह इस समय गिरकर 17 फीसदी रह गई है। घरेलू बचत का जो मौजूदा स्तर है, वह 1990 के शुरुआती दौर में हुआ करता था। यानी देश के परिवारों की बचत दर बढ़ने के बजाय 29 साल पहले के स्तर पर आ गई है। ऐसे में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में रफ्तार लाने वाला दूसरा अहम सूचकांक, सकल पूंजी निर्माण (जीएफसीएफ) 2004-05 के स्तर से भी नीचे चला गया है। अभी इसकी दर 28 फीसदी है, जो 2011-12 की तुलना में छह फीसदी कम है। जब आमदनी बढ़ने की दर कम होगी तो लोग खर्च कम करेंगे, या खर्च करेंगे तो उनकी बचत कम होगी। निजी कंपनियों की बचत दर 2011-12 में जीडीपी के 9.5 फीसदी के बराबर थी, जो 2017-18 में बढ़कर 11.6 फीसदी हो गई। लेकिन उनकी निवेश की मांग इतनी नहीं बढ़ रही है।
इकोनॉमी को रफ्तार देने में तीसरी अहम भूमिका निर्यात की होती है। यहां भी आंकड़े निराशाजनक स्थिति बयां करते हैं। 2014-18 के बीच निर्यात का स्तर 2013-14 की तुलना में कम रहा है। जीडीपी में निर्यात की हिस्सेदारी 2013-14 के 17.2 फीसदी की तुलना में गिरकर 2017-18 में 11.6 फीसदी पर आ गई।
चौथा कारक सरकारी खर्च है, जिसकी मांग बढ़ाने में अहम भूमिका रहती है। क्या उसमें इजाफा किया जा सकता है? मौजूदा स्थिति को देखते हुए ऐसा करना सरकार के लिए आसान नहीं है। सरकार के सामने अनकहा राजकोषीय संकट है। बजट में तय मदों के अलावा खर्च करने से सरकार के सामने पूंजीगत खर्च की गुंजाइश बहुत कम है। सरकार ने 2019-20 के बजट में पूंजीगत खर्च का लक्ष्य जीडीपी का 1.3 फीसदी रखा है, जो 2018-19 में 1.4 फीसदी था। सरकार घाटा नियंत्रित रखने का मार्ग भी नहीं छोड़ सकती है। ऐसे में वित्तीय बचत की रकम निजी क्षेत्र को निवेश के लिए नहीं मिल पा रही है।
वैश्विक आर्थिक संकट से पहले भारत की राजकोषीय प्रबंधन नीति चक्रीय परिस्थितियों पर आधारित थी। महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा), न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) और इन्फ्रास्ट्रक्चर पर होने वाले खर्च जैसे कदम इसी आधार पर उठाए जाते रहे हैं। लेकिन जब आर्थिक संकट का सामना हुआ, तो उसी साल 2008 में किसान कर्जमाफी जैसी योजना भी लाई गई। उस दौर में विकास दर ऊंची थी, जिसकी वजह से बहुत ज्यादा संकट नहीं खड़ा हुआ। वैश्विक आर्थिक संकट के समय सरकार ने बड़े स्तर पर राहत पैकेज दिए, लेकिन वह पूरी तरह राजस्व खर्च पर आधारित था। यह एक गलत तरीका था। उस दौर में हम चीन की तुलना में ठीक उलटा कर रहे थे। इसी का परिणाम था कि 2013-14 में भारत का राजकोषीय घाटा जीडीपी के मुकाबले 4.5 फीसदी पर पहुंच गया। सरकार ने 2014 में राजकोषीय घाटे को कम करने के लिए कदम उठाने शुरू किए और 2018-19 में इसे घटाकर 3.4 फीसदी पर लाया गया। इन परिस्थितियों में सरकार के पास पूंजीगत खर्च का ज्यादा विकल्प नहीं रह गया है, जबकि इकोनॉमी को रफ्तार देने के लिए यह बेहद जरूरी है। मौजूदा आर्थिक सुस्ती में यह एक चक्रीय कारण है।
दूसरा चक्रीय कारण मौद्रिक नीति के फैसलों से समझा जा सकता है। वैश्विक आर्थिक संकट के बाद आरबीआइ के एक पूर्व डिप्टी गवर्नर ने कहा था कि भारतीय मौद्रिक नीति आसान रास्ते की ओर बढ़ गई है। आसान नीति का चक्र ज्यादा लंबे समय तक रहेगा जिसकी शायद जरूरत नहीं थी। राहत पैकेज ने महंगाई को भी बढ़ाने का काम किया। नतीजा यह हुआ कि आरबीआइ की नीति महंगाई को नियंत्रित करने पर केंद्रित हो गई। नवंबर 2014 के बाद अमेरिका के केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व ने रुख बदला। उसने राहत पैकेज को धीरे-धीरे वापस लेना शुरू कर दिया। इससे वास्तविक रेपो दर शून्य से बढ़कर चार फीसदी से ऊपर आ गई। उसके बाद से वास्तविक रेपो दर दो-तीन फीसदी के आसपास बनी हुई है, जो निवेश के लिए हानिकारक है।
महंगाई नियंत्रित करने की आरबीआइ की नीति की वजह से विकास दर पर नकारात्मक असर हुआ। 2008 के आर्थिक संकट के बाद जरूरत से ज्यादा उधारी ली गई, उसकी वजह से हम एनपीए संकट का सामना कर रहे हैं। ज्यादा एनपीए ही कम कर्ज वितरण की मूल वजह है। एनबीएफसी संकट से यह समस्या और बढ़ी, खास तौर से छोटे-मझोले उद्योग ज्यादा प्रभावित हुए।
इन परिस्थितियों में कुछ अल्पावधि के और कुछ मध्यम अवधि के कदम उठाने बेहद जरूरी हैं। पहला तो मौद्रिक नीति के स्तर पर आरबीआइ को रेपो रेट में कटौती करनी चाहिए, क्योंकि जब कंपनियां अपनी क्षमता का केवल 70-75 फीसदी इस्तेमाल कर रही हैं और निवेश से बच रही हैं, तो ऐसी परिस्थितियों में वास्तविक उधारी दर 2.5 फीसदी नहीं होनी चाहिए। हाल के दिनों में कर्ज लेने की रफ्तार में थोड़ी तेजी आई है, ऐसे में जरूरी है कि रेपो रेट में बड़े स्तर पर कटौती की जाए। दूसरी बात यह है कि बैंक रेपो रेट में हुई कटौती का फायदा ग्राहकों तक जल्दी पहुंचाएं। तीसरा कदम यह होना चाहिए कि रुपये को डॉलर के मुकाबले धीरे-धीरे कमजोर होने दिया जाए, जिससे निर्यातकों को फायदा मिले।
जब सरकार के पास खर्च करने के लिए ज्यादा पैसे नहीं हैं, तो उसे अपनी आय बढ़ाने के लिए सार्वजनिक उपक्रमों की जमीन को मोनेटाइज करना चाहिए। उदाहरण के लिए, रेलवे के पास करीब एक करोड़ हेक्टेयर जमीन है, जिसे बेचना चाहिए या लीज पर दिया जाना चाहिए। सार्वजनिक उपक्रमों में सरकार को अपनी हिस्सेदारी घटानी चाहिए। सरकारी कंपनियों और बैंकों में विनिवेश से इन्फ्रास्ट्रक्चर पर सरकारी खर्च के लिए रकम जुटाई जा सकती है। लेकिन यह भी सच है कि केवल मौद्रिक और राजकोषीय नीति के जरिए टिकाऊ विकास का रास्ता हासिल नहीं किया जा सकता है। सरकार को औद्योगिक नीति में बदलाव के साथ वित्तीय क्षेत्र और दूसरे ढांचागत सुधारों की दिशा में भी कदम उठाने होंगे। भारत 7-8 फीसदी की विकास दर आसानी से हासिल कर सकता है और पांच लाख करोड़ डॉलर की इकोनॉमी बनने का लक्ष्य भी हासिल किया जा सकता है, लेकिन इसके लिए जरूरी है कि ढांचागत आर्थिक सुधार किए जाएं।
(लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर और सेंटर फॉर लेबर के चेयरपर्सन हैं)