एक आदमी आरोप लगाता है, एक आदमी आरोपित होता है। जब आरोपित खुद ही आरोप को स्वीकार कर ले, तो उसका इकबाल खत्म हो जाता है। आरोप जब चुनी हुई सरकार पर हो तो बात बड़ी हो जाती है क्योंकि लोकतंत्र में निर्वाचित सरकार का इकबाल ही सब कुछ होता है। महाराष्ट्र के सांगली से भारतीय जनता पार्टी के लोकसभा सांसद संजय पाटील का हाल में दिया बयान इस सरकार के इकबाल पर सवालिया निशान खड़ा करता है। पाटील ने कहा है कि प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) उनके पीछे नहीं आएगा क्योंकि वे भाजपा के सांसद हैं। उन्होंने एक सभा में खुलेआम कहा, ‘‘भाजपा में आने के बाद मैं चैन की नींद सोता हूं क्योंकि मुझे ईडी का डर नहीं है।’’
बजट सत्र के पहले दिन 13 मार्च को जब संसद खुली, तो विपक्ष के तमाम नेता महात्मा गांधी की प्रतिमा के आगे प्लेकार्ड लेकर आरोप की शक्ल में बिलकुल वही बात कहते सुने गए, जो पाटील ने कही है। लंबे समय से देश का राजनीतिक विपक्ष कहता आ रहा है कि केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआइ) और ईडी का केंद्र सरकार दुरुपयोग कर रही है। बात सिर्फ कहने की नहीं है, पूरे देश ने दिन के उजाले में राहुल गांधी, सोनिया गांधी से लेकर हाल में राजद के तेजस्वी यादव, भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) की के. कविता और आम आदमी पार्टी के मनीष सिसोदिया को जांच एजेंसियों के शिकंजे में फंसते देखा है। आम आदमी पार्टी (आप) के नेता राघव चड्ढा कह रहे हैं कि भाजपा एक वॉशिंग मशीन है जो भ्रष्टाचार के कथित आरोपियों की सफाई डिटर्जेंट के बगैर कर देती है।
चड्ढा की दिलचस्प तुलना को हैदराबाद की सड़कों पर टंगी तस्वीरों में देखा जा सकता है। बीआरएस सरकार ने उन नेताओं के चेहरे छाप कर होर्डिंगों से शहर को पाट दिया है जो भाजपा में जाकर ‘शुद्ध’ हो गए हैं। एक होर्डिंग, जिस पर हेमंत बिस्वा सरमा, सुभेंदु अधिकारी, ज्योतिरादित्य सिंधिया, नारायण राणे और अन्य के नाम लिखे हैं, उनके ऊपर शीर्षक है ‘वॉशिंग पाउडर निरमा’ और नीचे लिखा है ‘वेलकम टू अमित शाह’। एक और होर्डिंग पर ‘रेड’ (छापा) नाम के डिटर्जेंट से धुलकर भाजपा में शामिल हुए पांच राज्यों के नेताओं की तस्वीरें हैं और बगल में के. कविता की तस्वीर भी है जिसका कैप्शन है हैशटैग ‘बाय बाय मोदी’।
बात केवल नेताओं के आरोपों, स्वीकारोक्तियों या सड़क पर चल रहे राजनीतिक प्रचार युद्ध तक सीमित नहीं है। वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत दवे ने 11 मार्च को कोच्चि में ‘भारतीय संविधान का मूल ढांचा और वर्तमान चुनौतियां’ विषय पर बोलते हुए संविधान द्वारा प्रदत्त बहुदलीय संरचना का महत्व बताया और कहा कि इसे ईडी-सीबीआइ के इस्तेमाल से नष्ट नहीं किया जा सकता। वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने भी उसी दिन दिल्ली के जंतर-मंतर पर ‘इंसाफ के सिपाही’ नाम की अपनी नई मुहिम की शुरुआत करते हुए ईडी और सीबीआइ के दुरुपयोग की निंदा की। सिब्बल ने ही पिछले साल मनीष सिसोदिया के यहां दिल्ली आबकारी नीति में कथित घपले के सिलसिले में पड़े छापे पर कहा था कि ‘‘सीबीआइ अब पिंजड़े में बंद तोता नहीं रह गया है। ईडी उसके पंख हैं और वह भगवा हो चुका है।’’
के कविता और मनीष सिसोदिया
कपिल सिब्बल 2013 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा सीबीआइ पर की गई टिप्पणी का हवाला दे रहे थे, जब न्यायमूर्ति आरएम लोढ़ा ने कोयला घोटाले की जांच में सरकारी दखल पर कहा था कि सीबीआइ ‘पिंजड़े का तोता है’ जो अपने ‘मालिक का आदेश’ मानता है। इस टिप्पणी को दस साल बीत गए। सीबीआइ ने तब भी नहीं माना था कि वह सरकारी तोता है। आज की सरकार भी यह मानने को तैयार नहीं है कि वह जांच एजेंसियों का दुरुपयोग कर रही है। भाजपा के नेता अनुराग ठाकुर कह रहे हैं कि हर किसी का अपना भ्रष्टाचार का मॉडल रहा है और आज जब उनके खिलाफ कार्रवाई हो रही है तो सब मिल गए हैं। ऐसी ही बातें 2013 में भी इतने ही आत्मविश्वास के साथ कांग्रेस के नेताओं द्वारा कही गई थीं। तब तमाम घोटालों के आरोपों में घिर चुकी यूपीए सरकार का इकबाल चुक गया था, लेकिन कांग्रेस को यह दिख नहीं रहा था। साल भर बाद इसका नतीजा पूरी दुनिया ने देखा।
एक बार फिर देश में वही परिदृश्य है। लोकसभा चुनाव को केवल साल भर बच रहा है। दस साल में फर्क बस इतना आया है कि 2013 में सत्ताधारी नेताओं के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले कमजोर करने में जांच एजेंसियों को तोता बनाया गया था जबकि इस बार विपक्षी नेताओं को भ्रष्टाचार के केस में फंसाने के लिए एनडीए सरकार की ओर से ऐसा किया जा रहा है। ऐसा नहीं है कि न्यायपालिका इससे गाफिल हो। अगस्त 2021 में ही तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश एन.वी. रमणा की बेंच ने सांसदों और विधायकों के खिलाफ हवाला के सौ से ज्यादा लंबित मुकदमों की सुनवाई करते हुए कहा था कि ईडी और सीबीआइ बरसों आरोपितों के सिर पर तलवार लटकाये नहीं रख सकते। ठीक दो महीने बाद पेगासस जासूसी के मामले में न्यायमूर्ति रमणा ने सरकार पर टिप्पणी की थी जिसमें जॉर्ज ऑरवेल के उपन्यास 1984 को उद्धृत किया था। अदालत जिन याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी, उनमें सरकार के ऊपर तकनीक के सहारे लोगों की जासूसी करने का आरोप लगाते हुए इसे ‘ऑरवेलियन चिंता’ बताया गया था। सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी इस ‘ऑरवेलियन चिंता’ की पुष्टि करती दिखाई दी थी।
ऑरवेल के उपन्यास में जिस सरकार का जिक्र किया गया है उसमें पार्टी सर्वोपरि और श्रेष्ठतम होती है। पार्टी से इतर हर कोई संदेह के दायरे में होता है। जो पार्टी में है, वह सवालों से परे है। आजादी के बाद जब भारत का संविधान बनाने की कवायद चल रही थी, उस वक्त संविधान सभा की चिंता के केंद्र में एक पार्टी के एकतरफा निरंकुश शासन का मसला बराबर था। इसीलिए सभा के कुछ सदस्यों ने संसदीय विपक्ष को वैधानिक मान्यता देने और उनका वेतन तय करने की बात की थी। यहां तक कि एक सदस्य ने तो यह भी कहा था कि देश की सरकार अगर विपक्ष को अपना काम नहीं करने दे, तो इसे राजद्रोह की संज्ञा दी जानी चाहिए।
दुष्यंत दवे ने कोच्चि के अपने भाषण में इस बहस की याद दिलाई थी, जो संविधान सभा की बहसों में कहीं दबकर रह गई है। बीआरएस के विधायकों की भाजपा द्वारा खरीद-फरोख्त की साजिश की जांच सीबीआइ को सौंपे जाने के तेलंगाना हाइकोर्ट के फैसले को फरवरी में चुनौती देते हुए दवे ने सुप्रीम कोर्ट से साफ शब्दों में कहा था कि केंद्र सरकार विपक्षी नेताओं को निशाना बनाने के लिए ईडी और सीबीआइ का इस्तेमाल कर रही है। न्यायमूर्ति बीआर गवई और अरविंद कुमार की खंडपीठ के समक्ष अपने प्रतिवेदन में दवे ने ऐसी आठ सरकारों का जिक्र किया जिन्हें साजिश करके भाजपा ने गिराया है और भाजपा के नेताओं ने खुद इस बात को टेप पर स्वीकार किया है। दवे का कहना था कि सीबीआइ को मामले की जांच सौंपा जाना ‘इंसाफ का गर्भपात’ होगा।
देश के संविधान निर्माता इस संकट को समझते थे, खासकर इसलिए भी क्योंकि आजादी के बाद कांग्रेस पार्टी के अलावा दूर-दूर तक किसी और दल के शासन की संभावना नहीं दिख रही थी। इसीलिए उन्होंने एक ऐसी संसद की परिकल्पना की थी जिसमें विपक्ष के नेता और संवैधानिक और वैधानिक दरजा दिया जाए। संविधान सभा के सदस्य जेड.एच. लारी ने कहा था, ‘‘सरकार के कृत्यों को जनता के सामने लाने वाला विपक्ष नहीं होगा तो जनता को जागरूक कौन करेगा और सरकार के कामों में दिलचस्पी कौन लेगा?’’ सभा के ही सदस्य नजीरुद्दीन अहमद ने कहा था, ‘‘हम विपक्ष का होना आश्वस्त नहीं कर सकते, तो बेहतर है कि इसे एक अलोकतांत्रिक, संप्रभु गणराज्य का संविधान करार दें।’’
सभा में विपक्ष को वेतनभोगी और संवैधानिक दर्जा देने पर काफी विचार हुआ, लेकिन इसके खिलाफ ही निर्णय हुआ। लारी की दलीलों के खिलाफ सभा के सदस्य टी.टी. कृष्णमाचारी ने एक वाजिब तर्क दिया कि विपक्ष को स्वाभाविक रूप से बनना चाहिए, संवैधानिक रूप से निर्मित विपक्ष का कोई अर्थ नहीं होगा। कृष्णमाचारी ने सवाल किया था, ‘‘वास्तव में मुझे आश्चर्य होता है कि कैसे कांग्रेस पार्टी या अन्य कोई भी पार्टी जो उसकी जगह भविष्य में लेगी, विपक्ष को निर्मित कर सकती है। आखिर विपक्षी दलों के सदस्यों को या विपक्ष के नेता को वेतन देकर ऐसा विपक्ष आप कैसे खड़ा कर सकते हैं? क्या हम संविधान में यह प्रावधान डालने जा रहे हैं कि एक निश्चित धनराशि बजट में विपक्ष को खड़ा करने के लिए आवंटित की जाएगी?’’
विपक्ष के संवैधानिक महत्व पर लारी, नजीरुद्दीन और हसरत मोहानी के तर्क जितने जरूरी थे उतना ही अहम कृष्णमाचारी का सवाल था। सवाल यह है कि जिस विपक्ष को स्वाभाविक रूप से सत्ता के खिलाफ खड़ा होना था, वह आज कहां है? सवाल यह भी है कि विपक्ष को वैधानिक और वेतनभोगी दर्जा नहीं दिए जाने से क्या नकली विपक्ष का खतरा टल गया? यूपीए सरकार के दूसरे कार्यकाल में उसके खिलाफ भाजपा और संघ के सहयोग से जो भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन खड़ा हुआ था, वह इस बात की तस्दीक करता है कि लोकतंत्र में विपक्ष को सत्ता के भीतर से उभारा जाना संभव है। वास्तव में, माइकल चोसुदोव्सकी ने इस सदी की शुरुआत में ही ‘मैन्युफैक्चरिंग डिसेन्ट’ में लिख दिया था कि आने वाला दौर नकली विपक्ष और विरोध का होगा। इक्कीसवीं सदी के पहले दशक के अंत में हुए अरब स्प्रिंग आंदोलन से लेकर तहरीर चौक बगावत, ऑक्युपाई मूवमेंट, टी पार्टी मूवमेंट और अन्ना आंदोलन सब इस बात की गवाही देते हैं कि दुनिया भर में स्वाभाविक विपक्ष को खत्म करके नकली विपक्ष को खड़ा करने की राजनीति को सत्ताओं ने साध लिया है। इसकी कल्पना हमारे संविधान निर्माताओं ने कभी नहीं की रही होगी।
लोकतंत्र में विपक्ष को लेकर एक और चिंताजनक व्याख्या है जिसे कुछ जानकारों ने अपने अध्ययन में रेखांकित किया है। इंदिरा गांधी सरकार द्वारा लगाई गई इमरजेंसी के पहले तक देश में ऐसा संसदीय विपक्ष हुआ करता था, जो सत्ता से दूर था। इमरजेंसी के बाद आई जनता पार्टी की सरकार इस मायने में अहम रही कि उसने सभी किस्म के विपक्षियों को (गैर-कांग्रेसवाद की ताकतों) सत्ता का स्वाद चखा दिया। उसके बाद अस्सी के दशक में जो राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनीति उभरी, उसमें संसदीय विपक्ष का उद्देश्य सत्ता-प्राप्ति बन गया क्योंकि ऐसा कोई भी विपक्षी दल क्षेत्रीय या राष्ट्रीय स्तर पर नहीं बच गया जो कभी सत्ता में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तरीके से नहीं रहा हो या उसका लाभार्थी न रहा हो। इसके चलते धीरे-धीरे संसदीय विपक्ष और विरोध की स्वाभाविक नैतिकता जाती रही। गठबंधन की सरकारों के दौर में नब्बे का दशक संसदीय विपक्ष के खात्मे का कारण बना।
भाजपा आज भले ही कांग्रेसमुक्त या विपक्षमुक्त भारत की बात कर रही हो और इसी का आरोप विपक्षी दल उस पर लगा रहे हों, लेकिन वास्तव में देखें तो इस देश की संसदीय राजनीति से विपक्ष को खत्म हुए करीब चार दशक हो रहे हैं। कथित विपक्ष सत्ता-प्राप्ति की कवायद में लगे ऐसे राजनीतिक दलों का बिखरा हुआ समूह है जो नीतिगत स्तर पर सत्ता की ही छायाप्रति हैं। गैर-भाजपाई शासन वाले राज्यों में असहमतों के खिलाफ की जाने वाली दमनकारी कार्रवाइयां इसका उदाहरण हैं। राष्ट्रीय और प्रादेशिक स्तर पर ‘इंसाफ का गर्भपात’ रोज हो रहा है क्योंकि राजनीतिक दलों के बीच नैतिक आधार पर अंतर नहीं बचा है। इसलिए देश में राजनीतिक विपक्ष को लेकर जताई जा रही चौतरफा चिंताओं की एक खास संसदीय सीमा है, जो अनिवार्यतः सत्ता से परिभाषित है।
इस सीमित चौहद्दी के भीतर अगर आगामी लोकसभा चुनाव के परिप्रेक्ष्य में उभरती हुई राजनीतिक परिस्थितियों को देखा जाय, तो विपक्ष की हालिया मुखरता कुछ संकेत अवश्य दे रही है। केंद्रीय जांच एजेंसियों के दुरुपयोग के खिलाफ विपक्ष के नौ नेताओं ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक पत्र भेजा है जिसमें लिखा है कि उन भ्रष्ट नेताओं के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई जो भाजपा में चले गए। बीआरएस के प्रमुख के. चंद्रशेखर राव, नेशनल कॉन्फ्रेंस के प्रमुख फारूक अब्दुल्ला, तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष ममता बनर्जी, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के मुखिया शरद पवार, शिवसेना के उद्धव ठाकरे, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल, पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान, और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने 5 मार्च को यह पत्र लिखा है।
विपक्ष के इस साहसिक हस्तक्षेप की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि पत्र उसे ही संबोधित है, जहां से शायद कोई जवाब न मिले और यह समूचे विपक्षी दलों को बखूबी मालूम है।
सीबीआइ-ईडी का साया
प्रवर्तन निदेशालय ने हवाला के अंतर्गत 2021-22 में कुल 1180 मुकदमे दर्ज किए हैं जो एक दशक पहले के आंकड़े का चार गुना हैं। इनमें कुल 95 प्रतिशत केस विपक्ष के नेताओं के खिलाफ हैं
2017ः बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और राष्ट्रीय जनता दल के नेता लालू प्रसाद यादव के आवास पर सीबीआइ की छापेमारी
2018ः आइएनएक्स मीडिया को दी गई मंजूरी में कथित अनियमितताओं से संबंधित एक मामले में पूर्व वित्त मंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पी. चिदंबरम के आवास पर सीबीआइ का छापा
2018ः कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी के पति रॉबर्ट वाड्रा के आवास पर मनी लॉन्ड्रिंग से जुड़े एक मामले में ईडी का छापा
2019ः जम्मू-कश्मीर क्रिकेट एसोसिएशन से जुड़े मनी लॉन्ड्रिंग मामले में जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला को ईडी का समन
2020ः मनी लॉन्ड्रिंग मामले में शिवसेना विधायक प्रताप सरनाइक और उनके सहयोगियों के आवास पर में ईडी की छापेमारी
2021ः नारद स्टिंग ऑपरेशन से जुड़े एक मामले में तृणमूल कांग्रेस के नेताओं फिरहाद हकीम, सुब्रत मुखर्जी, मदन मित्रा और सोवन चटर्जी के आवासों पर ईडी की छापेमारी
2022ः महाराष्ट्र के अल्पसंख्यक और कौशल विकास मंत्री नवाब मलिक (एनसीपी) की मनी लॉन्ड्रिंग मामले में ईडी से गिरफ्तारी
2022ः पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री चरनजीत सिंह चन्नी के भतीजे भूपिंदर सिंह उर्फ 'हनी' के खिलाफ मनी लॉन्ड्रिंग के आरोप में ईडी की चार्जशीट
2022ः झारखंड की माइनिंग सेक्रेटरी पूजा सिंघल की मनी लॉन्ड्रिंग मामले में ईडी से गिरफ्तारी
2022ः महाराष्ट्र के पूर्व परिवहन मंत्री शिव सेना के अनिल परब के सात ठिकानों पर ईडी की छापेमारी
2022ः नेशनल हेराल्ड अखबार से जुड़े मनी लॉन्ड्रिंग के मामले में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और राहुल गांधी से ईडी की पूछताछ
2022ः शिवसेना नेता संजय राउत की पुनर्विकास में कथित अनियमितताओं से जुड़े मनी लॉन्ड्रिंग मामले में ईडी से गिरफ्तारी
2023ः बिहार के उपमुख्यमंत्री और राष्ट्रीय जनता दल के नेता तेजस्वी यादव के दिल्ली स्थित आवास पर में ईडी की छापेमारी
2023ः दिल्ली आबकारी नीति में कथित घोटाले के मामले में आम आदमी पार्टी के नेता मनीष सिसोदिया की सीबीआइ से गिरफ्तारी, बाद में ईडी को कस्टडी
2023ः वाइएसआर कांग्रेस के सांसद मगुंटा श्रीनिवासुलु रेड्डी के बेटे राघव मगुन्टा से दिल्ली आबकारी नीति के मामले में ईडी की पूछताछ
2023ः दिल्ली आबकारी नीति के मामले में बीआरएस की विधायक के. कविता से ईडी की पूछताछ