हाल में भारतीय प्रशासनिक सेवा (आइएएस) के एक वरिष्ठ अधिकारी को पटना हाइकोर्ट में एक मामले की सुनवाई के दौरान उपयुक्त पोशाक न पहनने के कारण माननीय न्यायाधीश से फटकार मिली। उक्त अधिकारी ने उस समय अपनी शर्ट के कॉलर का बटन बंद नहीं किया था, न ही उन्होंने कोई ब्लेजर या कोट पहना था, जिसे ड्रेस कोड प्रोटोकॉल के अनुकूल नहीं समझा गया। न्यायालय की कार्यवाही का एक अंश सोशल मीडिया पर वायरल हो गया तो एक बार फिर वही पुरानी बहस छिड़ गई है कि क्या आज के दौर में ऐसे ड्रेस कोड की प्रासंगिकता है, जो दशकों पूर्व अंग्रेजों के राज में बनाए गए थे? एक पक्ष का कहना है कि अनुशासन और पदों की गरिमा अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए सरकारी सेवकों के लिए विशेष अवसरों पर विशेष परिधान पहनने की आवश्यकता है। इससे असहमत लोगों का तर्क है कि ऐसे ड्रेस कोड उपनिवेशवादी मानसिकता दर्शाते हैं। यह विवाद नया नहीं है। वर्षों से इस पर बहस होती रही है कि क्या सरकारी अधिकारियों के लिए ड्रेस कोड की तथाकथित बाध्यता आधिकारिक रूप से हमेशा के लिए खत्म कर दी जाए?
इसमें शक नहीं कि सरकार के अधीन विभिन्न सेवाओं के अधिकारियों के लिए अंग्रेजी हुकूमत के दौरान ड्रेस कोड बनाया गया था। इसे लागू करने के समय इंग्लैंड की आबोहवा का ध्यान रखा गया था, न कि भारत जैसे किसी उपनिवेश के मौसम का। जाहिर है, जो परिधान स्वतंत्रता पूर्व आइसीएस अधिकारियों के लिए बनाए गए, उन्हें ही आजादी के बाद आइएएस अफसरों के लिए भी जारी रखा गया। दरअसल जब ब्रिटेन की उपनिवेशवादी सरकार की नीतियों को लागू कराने के लिए युवा प्रशासनिक साहबों की विशेष फौज की परिकल्पना की गई होगी तो उन्हें आम से खास बनाने के लिए ड्रेस कोड की जरूरत भी महसूस की गई होगी, जो उन्हें अवाम से अलग दिखाए। आजादी के बाद इस पर पुनर्विचार करने के बजाय इसे बरकरार रखा गया, ताकि उन्हें सचिवालयों और जिला मुख्यालयों के गलियारे में शक्तिसंपन्न बाबुओं के रूप में चिन्हित किया जा सके। इस बावत कुछ नियम-कानून बनाए गए और उनसे कुछ अलिखित परंपराओं के निर्वाह की अपेक्षा भी रखी गई कि उन्हें कब, किस अवसर पर किन कपड़ों में पेश आना है। आज भी अगर हम किसी जिलाधिकारी को जेठ की तपती दुपहरी में हवाई अड्डे पर किसी ‘महामहिम’ के स्वागत में काले रंग के बंदगला कोट में पसीने से तरबतर देखते हैं तो एहसास होता है कि कुछ परंपराएं अगर वक्त के साथ नहीं बदल सकतीं तो कम से कम मौसम के अनुसार तो जरूर ही बदलनी चाहिए। देश के नेताओं को गांधी का शुक्रगुजार होना चाहिए, जिनके कारण उन्होंने मौसम के अनुकूल खादी को अपनाया। लेकिन देसी बाबुओं के लिए वही पाश्चात्य परिधान उपयुक्त समझे गए, जो लॉर्ड मैकॉले के अंग्रेज उत्तराधिकारी पहनते थे।
कुछ वर्ष पहले तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने विश्वविद्यालयों के दीक्षांत समारोहों में पारंपरिक गाउन पहनने और ‘महामहिम’ जैसे पारंपरिक उपाधियों को उनके नाम के पहले न लगाने की हिदायत दी थी, क्योंकि वे उपनिवेशवादी परंपराएं थीं। लेकिन बाद में शायद ही किसी यूनिवर्सिटी के कुलपति या कुलाधिपति ने उनकी सलाह को शिद्दत से माना। शायद इसलिए कि गाउन अपने आप में उन्हें विशिष्टता प्रदान करता रहा है।
हालांकि ड्रेस कोड सिर्फ सरकारी सेवाओं के लिए जरूरी नहीं रहा है। गैर-सरकारी दफ्तरों में भी वर्षों से ‘फॉर्मल’ यानी औपचारिक ड्रेस की परंपरा रही है। अधिकतर निजी कंपनियां आज भी अपने अधिकारियों और कर्मचारियों को जीन्स और टी-शर्ट पहनकर दफ्तर आने की छूट नहीं देती हैं, मानो ऐसे कपड़ों से उनकी कार्य क्षमता पर प्रतिकूल असर पड़ता हो। भूमंडलीकरण के दौर में जब बहुराष्ट्रीय कंपनियों का प्रादुर्भाव बढ़ा तो कुछ देसी या विदेशी कंपनियों ने सप्ताह में एक दिन, शुक्रवार को उन्हें अपनी मर्जी के कपड़े पहनने की छूट दी। कोविड काल में जब घर से ही काम करने का दौर चला तो ऐसे ड्रेस कोड बेमानी हो गए। कई कर्मचारी अपने कार्यालय की ऑनलाइन मीटिंग में भी अनौपचारिक वस्त्र में नजर आने लगे, जिन्हें उपयुक्त नहीं समझा गया।
भाग्यवश, हमारे जैसे पत्रकारों को किसी ड्रेस कोड की मजबूरी नहीं होती। कई देशों में किसी मंत्री या बड़े प्रशासनिक अधिकारी से इंटरव्यू करने के दौरान उन्हें टाई सहित गहरे रंग का सूट पहने की हिदायत जरूर दी जाती है, लेकिन अपने देश में ऐसा कोई दिशानिर्देश नहीं है। चाहे सेना के किसी रेजिमेंट द्वारा आयोजित ‘बड़ा खाना’ हो या बॉलीवुड की ‘ब्लैक टाई पार्टी’, प्रजातंत्र के चौथे स्तंभ के प्रहरी को जीन्स जैसे इनफॉर्मल ड्रेस में कहीं भी देखा जा सकता है। यह ऐसी ‘स्वतंत्रता’ है जिसके लिए ड्रेस कोड की बंदिशों में जकड़ा कोई प्रशासनिक अधिकारी सिर्फ रश्क ही कर सकता है। मौजूं सवाल यह है कि क्या अब उन्हें अंग्रेजों के बनाए ड्रेस कोड से निजात मिलनी चाहिए? क्या परिस्थितियों और मौसम के अनुसार उन्हें भी सरकारी आयोजनों पर अपनी मर्जी के कपड़े पहने की आजादी मिलनी चाहिए? लेकिन इससे महत्वपूर्ण यह है कि क्या ऐसा करके वे खास से आम बनने को तैयार हैं? इस पर उन्हें स्वयं ही विचार करने की जरूरत है।