पिछली सदी के उत्तरार्ध में भारत की एक निजी और प्रतिष्ठित इस्पात कंपनी में नौकरी को सरकारी नौकरी से ज्यादा ‘सुरक्षित’ समझा जाता था। इस कंपनी में अक्सर पिता के रिटायर होने के बाद पुत्र को नौकरी मिलने की लंबी परंपरा थी। कई लोग तो ऐसे थे जिनकी तीन पीढ़ियों ने उस कंपनी से करियर की शुरुआत की और वहीं से सेवानिवृत्त भी हुए। ऐसे सैकड़ों परिवार थे जिनका उस कंपनी से भावनात्मक जुड़ाव था। हालांकि वक्त के साथ, खासकर नब्बे के दशक में उदारीकरण का दौर शुरू होने के बाद, इस कंपनी का बाजार में एकाधिपत्य समाप्त होने लगा और एक समय ऐसा आया जब अपने कर्मचारियों के बेटे-बेटियों को नौकरी देने की बात तो दूर, उन्हें स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के विकल्प दिए जाने लगे। यह किसी एक कंपनी की कहानी नहीं है। अतीत में झांकने पर ऐसी कंपनियों के अनेक उदाहरण मिलते हैं, जहां नियोक्ता और कर्मचारियों का संबंध पेशेवर से बढ़कर था। उनके संबंधों में अपनापन था। मानव संसाधन के आधुनिक विशेषज्ञ भले ही ऐसे संबंधों को व्यावसायिक प्रतिष्ठानों के लिए अहितकर मानते हों और यह दलील देते हों कि व्यक्तिगत और पेशेवर रिश्तों को एक साथ जोड़ कर नहीं देखना चाहिए, लेकिन इसमें शक नहीं कि ऐसे रिश्तों से कंपनियों को अपने कर्मचारियों से ऐसी ‘ब्रांड लॉयल्टी’ मिलती थी जिसे किसी तरह की सालाना वेतन वृद्धि के एवज में हासिल नहीं किया जा सकता।
अफसोस, ये अब गुजरे जमाने की बातें हैं। आज, कंपनियों को प्रतिद्वंद्वियों की चुनौतियों का सामना करने के लिए हर उस रणनीति को आजमाना पड़ता है, जो उसके अस्तित्व के लिए आवश्यक समझा जाता है। कंपनियां जितनी बड़ी होती हैं, प्रतिस्पर्धा उतनी ही चुनौतीपूर्ण होती है। उसमें बने रहने के लिए उन्हें अगर कड़े से कड़े कदम भी उठाने पड़ें तो वे झिझकते नहीं, भले ही उसका असर हजारों कर्मचारियों पर पड़े। मुनाफे की होड़ में लगी इन कंपनियों को बड़े पैमाने पर छंटनी भी करनी पड़े तो वे देर नहीं करती हैं। पिछले कुछ दिनों में कई बहुराष्ट्रीय टेक कंपनियों ने जिस स्तर पर कर्मचारियों को निकाला, उससे तो यही लगता है।
वैसे तो आर्थिक मंदी की परछाइयां विश्व अर्थव्यवस्था पर कोविड महामारी की दौरान ही पड़ने लगी थीं, लेकिन अभी चल रही बड़ी टेक्नोलॉजी कंपनियों में कर्मचारियों की छंटनी से स्पष्ट हो गया है कि खतरा टला नहीं है, बढ़ा है। उनमें कई ऐसी बहुराष्ट्रीय कंपनियां हैं जिन्होंने पिछले दो वर्षों में भारत सहित कई देशों में नई भर्तियां की थीं। लेकिन, साल-दो साल के अंदर ही उन्होंने कई नए और युवा कर्मियों को बाहर कर दिया।
भारत के लिए ऐसी छंटनी अप्रत्याशित नहीं है, लेकिन गूगल और माइक्रोसॉफ्ट जैसी विश्व स्तर की कंपनियों का ऐसे कदम उठाना भारतीय युवाओं के लिए जरूर झटके के समान है। प्रौद्योगिक क्रांति, खासकर इंटरनेट के प्रादुर्भाव के बाद इन कंपनियों में नौकरी पाना उनके लिए ‘द ग्रेट इंडियन ड्रीम’ जैसा रहा है। आजादी के बाद युवाओं में जैसा क्रेज आइएएस-आइपीएस अफसर बनने के लिए पिछली सदी में देखा जाता था, आज वैसा ही जुनून इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों में काम करने के लिए है। पिछले तीन दशकों में हजारों की संख्या में युवा भारतीय इंजीनियर अमेरिका और अन्य पाश्चात्य देशों में नौकरी करने गए और वहां की कंप्यूटर और इंटरनेट क्रांति में अग्रणी भूमिका निभाई। पिछले कुछ वर्षों में उनमें कई इन कंपनियों के शीर्ष पदों पर पहुंचे। आकर्षक वेतनमान और विदेशों में बेहतर जीवन-शैली के कारण इन कंपनियों में काम करना अधिकतर शिक्षित-प्रशिक्षित भारतीय युवाओं के लिए पहली पसंद और प्राथमिकता बनी। हर साल ऐसी कंपनियां भारत में आइआइटी और अन्य प्रतिष्ठित इंजीनियरिंग कॉलेजों में युवाओं को नियुक्त करने के लिए लुभावने पैकेज देती रहीं। इसी कारण उन शिक्षण संस्थानों में दाखिले के लिए होने वाली प्रवेश परीक्षाओं के लिए लाखों की संख्या में उम्मीदवार आवेदन पत्र भरते रहे। इसमें दो राय नहीं कि इनमें से अधिकांश उम्मीदवार विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों में काम करने का सपना पाल रहे होते हैं। उनके लिए यह भी जानना जरूरी होता है कि वहां के पूर्ववर्ती छात्रों को कितने लाख या करोड़ के पैकेज का ऑफर मिला है।
जाहिर है, ऐसी परिस्थितियों में वैश्विक पहचान वाली कंपनियों से बड़े पैमाने पर कर्मचारियों की छंटनी नई सहस्राब्दी में ‘द ग्रेट इंडियन ड्रीम’ के बिखरने जैसा है। वैसे तो नई कार्यसंस्कृति में कर्मचारियों को ‘पिंक स्लिप’ थमाने का सिलसिला कहीं भी नया नहीं है लेकिन ताजा घटनाक्रम उन युवाओं की आशाओं पर तुषारापात जैसा है जिनके लिए अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों में काम करना जीवन की आखिरी अभिलाषा होती है। लेकिन, उन्हें याद रखना चाहिए कि ये कंपनियां भी बाजार के उतार-चढ़ाव से प्रभावित होती हैं। उन्हें यह भी याद रखना चाहिए कि कोई अमेरिकी कंपनी सुंदर पिचाई को शीर्ष पद नियुक्त कर सकती है तो कोई दूसरी पराग अग्रवाल को गुलाबी पर्ची थमाने से गुरेज भी नहीं करती।