कई मामलों में किसी निष्कर्ष पर पहुंचना आसान नहीं होता। मसलन, बरगद का वह पुराना पेड़ ज्यादा प्यारा है, जिसकी घनी छाया में वर्षों सुकून मिला हो या वह नन्हा पौधा जिसकी कोंपल देख तरोताजा महसूस करते हैं? एक तरफ लंबे अनुभवों का जखीरा हो और दूसरी तरफ नई उम्मीदों की किरण, तो किधर रुख करेंगे? इस साल विंबलडन चैंपियनशिप के पुरुष एकल फाइनल के दौरान मेरे जैसे लाखों टेनिस मुरीदों को इस अंतर्द्वंद्व का सामना करना पड़ा। एक तरफ ‘सेंटीमेंटल फेवरेट’ और पुराने योद्धा, सर्बिया के 36 वर्षीय नोवाक जोकोविच, तो दूसरी ओर स्पेन का युवा मेटाडोर, 20 साल का कार्लोस अल्काराज। सेंटर कोर्ट के इस पार मानो रॉल्स रॉयस हो और उस पार टेस्ला की नई मॉडल इलेक्ट्रिक कार। दोनों के बीच उम्र का फासला सोलह साल का। इसके बावजूद, दोनों के बीच ऐसी टक्कर हुई जो वर्षों टेनिस के इतिहास में देखने को नहीं मिली थी।
ऐसा नहीं है कि हाल के वर्षों में विंबलडन में कमाल के मैच नहीं देखे गए। पिछले बीस वर्षों में जोकोविच, रोजर फेडरर, राफेल नडाल और एंडी मरे ने उत्कृष्ट खेल का प्रदर्शन किया। इन्हीं चारों ने खिताब को अपने नाम रखा। लेकिन उनकी प्रतिद्वंद्विता समकालीन खिलाडियों के बीच थी। जब 2003 में फेडरर ने विंबलडन खिताब जीता तो अल्काराज दो साल के थे। जाहिर है, इस बार लड़ाई दो पीढ़ियों के बीच थी। जोकोविच आठवें खिताब के लिए कोर्ट में उतरे थे, तो अल्काराज पहली विंबलडन ट्राफी के लिए। आखिरकार रोमांचक मैच में जीत युवा खिलाड़ी की हुई और अधिकतर दर्शकों की तरह जोकोविच को भी लगा, अल्काराज जीत के हकदार थे।
पिछली बार किसी युवा खिलाड़ी की जबरदस्त प्रतिभा के कारण इस तरह का रोमांच, 1985 विंबलडन फाइनल में देखने को मिला था। तब जर्मनी के बोरिस बेकर ने मात्र 17 साल की उम्र में गैर-वरीयता प्राप्त खिलाड़ी होने के बावजूद विश्व के सबसे प्रतिष्ठित टूर्नामेंट का खिताब अपने नाम किया। अल्काराज तो इस चैंपियनशिप में पहली वरीयता प्राप्त खिलाड़ी थे। पिछले साल इतनी कम उम्र में यूएस ओपन जीतकर उन्होंने सनसनी फैला दी थी।
इतिहास में टेनिस की तरह कई अन्य खेलों में भी कम उम्र के खिलाड़ियों में असाधारण प्रतिभा की मिसाल दिखी है। 1976 के मॉन्ट्रियल ओलंपिक में रोमानिया की 14 वर्षीया जिमनास्ट नादिया कोमनेसी ने परफेक्ट 10 स्कोर कर सनसनी फैला दी थी। अपने देश में सचिन तेंडुलकर सोलह वर्ष की आयु में पाकिस्तान जाकर इमरान खान, वसीम अकरम और वकार युनूस जैसे तेज गेंदबाजों की विश्वप्रसिद्ध तिकड़ी के छक्के छुड़ा दिए। लेकिन, ऐसे खिलाड़ी गिने-चुने ही होते हैं जिनमें ऐसी कुदरती प्रतिभा होती है। तो, क्या अल्काराज का उदय टेनिस में फेडरर-नडाल-जोकोविच युग के अंत की शुरुआत है? कम से कम मैच हारने के बाद जोकोविच के इरादों से तो ऐसा नहीं लगता। अगले विंबलडन चैंपियनशिप के समय वे 37 साल के हो जाएंगे और उन्हें अल्कराज जैसे कई और नए खिलाड़ियों का सामना करना पड़ेगा। लेकिन, जोकोविच न सिर्फ अपनी फिटनेस के लिए बल्कि अपने माइंड गेम से भी प्रतिद्वंद्वियों पर दवाब बनाने के लिए जाने जाते हैं। टेनिस और क्रिकेट जैसे खेल में लंबा करियर बनाने के लिए ऐसी खूबियां आवश्यक हैं। 1977-78 में बिशन सिंह बेदी के नेतृत्व में जब भारतीय क्रिकेट टीम ऑस्ट्रेलिया पहुंची तो जेफ थॉमसन को छोड़ उस समय विश्व की सबसे मजबूत टीम के बाकी सभी खिलाड़ी केरी पैकर की वर्ल्ड सीरीज खेलने चले गए थे। मजबूरन ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट बोर्ड को नई टीम खड़ी करनी पड़ी, जिसका नेतृत्व बॉब सिम्पसन को सौंपा गया। उनकी उम्र उस वक्त 41 वर्ष की थी और उन्हें संन्यास लिए लगभग दस वर्ष बीत चुके थे। इसके बावजूद उन्होंने उस सीरीज में न सिर्फ अपने देश को विजय दिलाई बल्कि शतक भी लगाया। एक दशक बाद इतना शानदार प्रदर्शन वही खिलाड़ी कर सकता है जो हर तरह से फिट हो।
उससे भी जरूरी है कि उसमें जीतने की भूख बची हो। जोकोविच दोनों कसौटियों पर अभी भी खरे उतरते हैं। किसी खिलाड़ी के जीतने की भूख अगर 23 ग्रैंड स्लैम जीतने के बाद भी बरकरार हो, तो वह निस्संदेह असाधारण खिलाड़ी ही होगा। इसलिए हर नए खिलाड़ी को न सिर्फ अपने आप को जोकोविच की तरह शारीरिक और मानसिक रूप से मजबूत रखना होगा बल्कि अपनी जीत की भूख को साल दर साल बढ़ाना होगा, तभी वे 23 ग्रैंड स्लैम जीतने का ख्वाब देख सकते हैं। फेडरर-नडाल-जोकोविच युग में कई युवा प्रतिभावान खिलाड़ी धूमकेतु की तरह उभरे और गायब हो गए। टेनिस का इतिहास ऐसे ‘बर्न आउट’ खिलाडियों के उदाहरणों से भरा है, जो अद्भुत प्रतिभा और तमाम संभावनाओं के बावजूद लंबे समय तक टिक नहीं पाए। अल्काराज के सामने भी यही चुनौती होगी। अगर वे सोलह साल बाद भी विंबलडन फाइनल में किसी युवा खिलाड़ी से खेल रहे होंगे तभी उनका नाम भी जोकोविच, नडाल और फेडरर जैसे टेनिस के महान लीजेंड के साथ लिया जाएगा। उन्हें बस यह समझना होगा कि ऐसा करना मुश्किल हो सकता है, नामुमकिन कतई नहीं।