आम चुनाव 2024 नजदीक आ रहा है, यह स्पष्ट होता जा रहा है कि इस बार सत्तारूढ़ एनडीए की सीधी भिड़ंत साझा विपक्ष के नए-नवेले गठबंधन ‘इंडिया’ से होगी, लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि क्या विपक्ष यह लड़ाई देश स्तर पर एकजुट होकर लड़ेगा या पहले की तरह उनके बीच का आपसी टकराव और नेताओं की व्यक्तिगत आकांक्षाओं की वजह से यह संभव न हो पाएगा। विगत में कई बार सत्तारूढ़ दल या गठबंधन के खिलाफ चुनावों में प्रतिपक्ष को एक मंच पर लाने की कोशिश हुई, लेकिन वैसे गठबंधन लंबे समय तक नहीं टिक पाए। कुछ तो सीट बंटवारे के सवाल पर चुनाव-पूर्व ही बिखर गए तो कुछ चुनाव के बाद, भले ही सत्ता उनके हाथ लगी हो। इस बार भी यही सबसे महत्वपूर्ण सवाल है, खासकर उन राज्यों में जहां ‘इंडिया’ के दो प्रमुख घटक दल एक दूसरे के आमने-सामने हैं। बंगाल और पंजाब जैसे राज्यों में क्या होगा जहां कांग्रेस, ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस और अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी की निकटतम प्रतिद्वंद्वी है? क्या संसदीय चुनाव के लिए ममता और केजरीवाल कांग्रेस के साथ सीट बंटवारे के सवाल पर दरियादिली दिखा सकते हैं, या कांग्रेस उन राज्यों में अपने सहयोगी दलों के लिए मैदान छोड़ सकती है जहां वह कमजोर स्थिति में है? मसलन, क्या पार्टी आलाकमान उत्तर प्रदेश में मायावती की बहुजन समाज पार्टी और अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी को राज्य की अधिकतम सीट देने को तैयार होगा? क्या बिहार में कांग्रेस सिर्फ किशनगंज सीट से संतोष कर प्रदेश की शेष 39 लोकसभा सीटें लालू प्रसाद यादव की राजद और नीतीश कुमार की जदयू के नाम कर सकती है? अगर ऐसा होता है तो पार्टी के मीरा कुमार, तारिक अनवर सरीखे बड़े नेताओं का क्या होगा, जो अपनी पारंपरिक सासाराम और कटिहार सीट से चुनाव लड़ते चले आ रहे हैं? जाहिर है, ‘इंडिया’ गठबंधन की सफलता बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करती है कि क्या इसके घटक दल अपनी-अपनी जमीनी स्थिति का वास्तविक आकलन कर अपने से मजबूत सहयोगी पार्टियों के लिए कुर्बानी देने को तैयार हैं? फिर हर राज्य में पार्टियों की स्थानीय इकाइयों का क्या जिनके नेता इसी आस में अपनी-अपनी पार्टियों के लिए पांच साल इस उम्मीद में काम करते हैं कि चुनाव आने पर उनकी वफादारी का इनाम मिलेगा?
जाहिर है, ‘इंडिया’ गठबंधन के शीर्ष नेता इस उम्मीद में है कि इस बार राज्य स्तर पर तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद सभी पार्टियां एकजुट होकर चुनाव लड़ेंगी, कम से कम लोकसभा चुनाव में। उन्हें इस बात का शायद एहसास है कि नरेंद्र मोदी को लगातार तीसरी बार सत्ता में आने से रोकने के लिए उनके पास कोई दूसरी रणनीति नहीं है। उन्हें लगता है कि प्रतिपक्ष तभी सत्ता में आ सकता है जब तमाम भाजपा-विरोधी शक्तियां मिलकर चुनाव लड़ें। सवाल सिर्फ एकजुटता का नहीं है। एक अहम मसला गठबंधन के नेतृत्व का भी है। कांग्रेस का मानना है कि गठबंधन का सबसे बड़ा घटक दल होने के कारण नेतृत्व उसके हाथों में होना चाहिए और राहुल गांधी ही प्रधानमंत्री पद के लिए सबसे योग्य उम्मीदवार हैं। ‘इंडिया’ के कई घटक दल इससे इत्तेफाक नहीं रखते। अगर रखते, तो राहुल को ‘इंडिया’ के चेहरे के रूप में पेश किया जाता। यह सर्वविदित है कि ‘इंडिया’ में ऐसे नेताओं की कमी नहीं जो स्वयं को किसी से कम नहीं आंकते। इसी वजह से विपक्षी गठबंधन बिना किसी सर्वमान्य नेता के चुनावी समर में जाएगा। नेतृत्व का सवाल चुनाव के बाद संख्याबल के आधार पर सुलझाया जाएगा। अगर ‘इंडिया’ चुनाव जीतता है और कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरती है तो जाहिर है प्रधानमंत्री पद इसकी झोली में होगा, लेकिन अगर ऐसा नहीं होता है तो गठबंधन में कई दावेदार सामने आ सकते हैं।
दरअसल, नेतृत्व का सवाल ही एनडीए और ‘इंडिया’ को एक दूसरे से अलग करता है। एनडीए के किसी सहयोगी दल में गठबंधन के नेतृत्व को लेकर कोई संशय नहीं है। नरेन्द्र मोदी उनके सर्वमान्य नेता हैं लेकिन विपक्ष में किसी एक नाम पर सहमति नहीं है। भले ही ‘इंडिया’ के अधिकतर घटक दल यह स्वीकार करते हैं कि उनके बीच सिर्फ कांग्रेस ही ऐसी पार्टी है जिसकी देश के हर कोने में उपस्थिति है, लेकिन उनके नेता राहुल को ‘इंडिया’ का सर्वमान्य नेता स्वीकार करने से कतराते हैं।
शायद इसका प्रमुख कारण पिछले दो लोकसभा चुनावों में कांग्रेस का अत्यन्त खराब प्रदर्शन रहा है। उसके घटक दलों को शायद लगता है कि कांग्रेस का नेतृत्व स्वीकार करना उनके हित में नहीं। कई क्षेत्रीय दलों को अपने-अपने राज्यों की भी फिक्र है जहां विधानसभा चुनाव उन्हें कांग्रेस के विरुद्ध ही लड़ना है। वैसे कांग्रेस के लिए अच्छी बात यह है कि हिंदी पट्टी के तीन अहम प्रदेशों – मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान– में इस वर्ष चुनाव होने हैं, जहां पार्टी भाजपा के खिलाफ सीधी टक्कर में है। अगर इन चुनावों में कांग्रेस बेहतर प्रदर्शन करती है तो लोकसभा चुनाव के पूर्व ‘इंडिया’ के नेतृत्व पर उसका दावा मजबूत होगा। यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या बाकी दल उस स्थिति में भी कांग्रेस को अगुआ के रूप में स्वीकार करेंगे?