वर्षों तक बिहार और झारखंड जैसे राज्यों के पिछड़ेपन के कई कारण रहे होंगे, लेकिन शिक्षा के प्रति सरकारी अनदेखी निश्चित रूप से इसकी एक प्रमुख वजह रही है। अलग-अलग दलों और गठबंधनों की हुकूमतें आईं और गईं, लेकिन शिक्षा के क्षेत्र में कोई ऐसा परिवर्तन नहीं दिखा, जो समाज को सुकून देने वाला हो। न जाने कितने वर्षों से ये दोनों पड़ोसी राज्य देश में साक्षरता दर के मामले में निचले पायदानों से उठने का नाम नहीं ले रहे हैं। नई नीतियां और नए कार्यक्रम बनते रहे हैं और कई कड़क अधिकारियों को इस उम्मीद के साथ शिक्षा महकमा का मुखिया बनाया गया कि वे क्रांतिकारी परिवर्तन के सूत्रधार बनेंगे, लेकिन शिक्षा के मामले में दोनों प्रदेशों की छवि बदतर होती गई।
यहां शिक्षा का तात्पर्य सरकारी विद्यालयों में दी जाने वाली तालीम से है। निजी क्षेत्र के स्कूलों की स्थिति बेहतर है। उनके पास आलीशान भवन हैं, चमचमाती गाड़ियां हैं और फंड की कोई समस्या नहीं है। वहां अधिकतर धनाढ्य और आभिजात्य वर्ग के बच्चे पढ़ते हैं। समस्या उन विद्यालयों की है, जो पूरी तरह सरकार से मिलने वाली राशि पर निर्भर हैं। जाहिर है, समय पर राशि न मिलने के दुष्परिणाम कभी विद्यालय की जर्जर स्थिति के रूप में सामने आती है, कभी खुले आसमान के नीचे छात्रों के लिए चल रही कक्षाओं के रूप में। ऐसी तस्वीरें अब इतनी आम हो गई हैं कि खस्ताहाल भवन सरकारी विद्यालयों की नियति समझी जाने लगी है।
हालांकि समस्या सिर्फ सरकारी उदासीनता की ही नहीं है। वहां का अधिकतर स्टाफ भी अपने कर्तव्यों के प्रति लापरवाह दिखता है। सुदूर इलाकों के अधिकतर विद्यालयों में शिक्षक अधिकांश समय नदारद रहते हैं, जिसका खामियाजा वहां पढ़ रहे बच्चों को भुगतना पड़ता है। कहने को तो बिहार में पिछले दो दशकों में नीतीश कुमार की सरकार ने शिक्षा के क्षेत्र में आमूलचूल परिवर्तन के लिए कई कदम उठाए। विभाग का बजट बढ़ाया, कक्षा में छात्रों की उपस्थिति आश्वस्त करने के लिए वजीफे, साइकिल, मुफ्त पोशाक और किताबें दी गईं, जिसके कुछ सकारात्मक परिणाम हुए लेकिन शिक्षा के मामले में बिहार देश में झारखंड की तरह अन्य राज्यों से पीछे ही रहा।
आज ऐसा माना जाता है कि इन राज्यों के सरकारी स्कूलों में सिर्फ वही बच्चे दाखिला लेते हैं, जिनके अभिभावकों की माली हालत ठीक नहीं है। जो निजी संस्थानों की महंगी फीस का भार उठाने में सक्षम हैं, उनके लिए सरकारी स्कूल कोई विकल्प नहीं होता। कुछ समय पहले पटना हाइकोर्ट ने राज्य सरकार से यह बताने को कहा था कि प्रदेश के सरकारी विद्यालयों में कितने सरकारी कर्मचारियों के बच्चे पढ़ते हैं। यह तो पता नहीं कि सरकार ने न्यायालय में क्या संख्या बताई, लेकिन यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं कि ऐसे अभिभावकों की संख्या नगण्य ही रही होगी। हालांकि हर साल बिहार विद्यालय परीक्षा समिति के मैट्रिक के इम्तिहान में 15 लाख से अधिक बच्चे बैठते हैं।
इन विद्यालयों में पढ़ने वाले छात्रों की समस्या सिर्फ उनके स्कूल की पढ़ाई तक सीमित नहीं है। आर्थिक कारणों से वे निजी कोचिंग संस्थानों में प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए दाखिला भी नहीं ले पाते। ऐसी परिस्थिति में अगर कोई व्यक्ति या संस्थान इन तबकों के बच्चों को निःशुल्क पढ़ाने की पहल करता है तो वह वाकई काबिलेतारीफ है।
हाल के वर्षों में सरकारी और निजी विद्यालाओं से इतर बच्चों को निःशुल्क शिक्षा मुहैया कराने की कई सार्थक पहल हुई है, जिसमें प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करवाना भी शामिल है। ऐसी कुछ पहल कुछेक पुलिस अधिकारियों की ओर से भी हुई है, जो उसी सरकारी तंत्र का हिस्सा हैं, जिस पर पूरी शिक्षा व्यवस्था को चौपट करने का दोष मढ़ा जाता है। दिलचस्प यह भी है कि उनमें कई शीर्ष पदों पर तैनात आइपीएस अधिकारी हैं जिनके कंधों पर कानून-व्यवस्था बरकरार रखने की जिम्मेदारी होती है। अपनी तमाम व्यस्तताओं के बावजूद उनके दिल में वंचित समाज के बच्चों को पढ़ाने का जुनून है। इसलिए जब भी उन्हें समय मिलता है, वे छात्रों के बीच जाकर उनके ‘माटसाब’ बन जाते हैं। किसी ने झोपड़पट्टी के स्कूली बच्चों को पढ़ाने की मुहिम चला रखी है तो कोई आइआइटी/मेडिकल की प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए उन्हें तैयार कर रहा है।
ऐसे अधिकारियों की पहल भले अचानक कोई बड़ा परिवर्तन न लाए, लेकिन यह समाज में एक संदेश देने के लिए काफी है कि शिक्षा के बाजारीकरण के बावजूद ऐसे छोटे कदम परिवर्तन की उम्मीद जगा सकते हैं। आम तौर पर सरकारी सेवा के शीर्ष पदों पर काम करने वाले अधिकतर अधिकारी उस समाज से कट जाते हैं जिससे निकलकर वे आगे बढ़े हैं, लेकिन उनमें कुछ विरले लोग भी हैं जो समाज का ऋण अपनी तरह से चुकाते हैं। आउटलुक का यह अंक ऐसे ही कुछ पुलिस अधिकारियों को समर्पित है, जिनका बच्चों को पढ़ाने का जुनून खाकी वर्दी पहन लेने की ठसक से कम नहीं हुआ है।