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24 जून 2024 · JUN 24 , 2024

प्रथम दृष्टि: जनादेश के मायने

भाजपा को गठबंधन सहयोगियों के साथ अगले पांच साल निभाना होगा। कांग्रेस सहित विपक्ष ने भी मजबूत वापसी की है। इसलिए भाजपा को उनसे कड़ी चुनौती मिलने वाली है
नरेन्द्र मोदी

भारत और ऑस्ट्रेलिया के बीच 1969-70 सीरीज के दौरान खेले गए दिल्ली क्रिकेट टेस्ट शुरू होने के पहले का एक मशहूर वाकया है। कंगारुओं को उन दिनों विश्व की सबसे शक्तिशाली टीम समझा जाता था। मैच शुरू होने के पहले मेहमान टीम के कप्तान बिल लॉरी ने कहा कि उन्हें उम्मीद है कि उनके खिलाड़ी भारतीय टीम को तीन दिन के भीतर हराकर बचे हुए समय में मछली मारने चले जाएंगे। लेकिन हुआ इसका ठीक उलटा। मैच में भारत ने ऑस्ट्रेलिया को बुरी तरह से शिकस्त दी, जिससे लॉरी की काफी किरकिरी हुई। क्रिकेट विश्लेषकों के अनुसार ऑस्ट्रेलियाई टीम का अति आत्मविश्वास उसे ले डूबा।

अभी-अभी संपन्न हुए देश के आम चुनाव के परिणामों की घोषणा के बाद कई सियासी जानकारों का मानना है कि अत्यधिक आत्मविश्वास के कारण ही भारतीय जनता पार्टी अपने बलबूते बहुमत पाने में सफल नहीं हो सकी। हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में चुनाव पूर्व गठित राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) ने सरकार बनाने के लिए आवश्यक 272 से अधिक सीटों पर जीत हासिल की, लेकिन पार्टी के ज्यादातर समर्थक इस परिणाम से निराश दिखे। ऐसा लगा मानो वे इसके लिए तैयार न थे।

आम तौर पर किसी गठबंधन के लिए बहुमत की संख्या से 20 सीटें अधिक मिलना सुकून देना वाला जनादेश होता है, लेकिन भाजपा के लिए यह परिणाम अप्रत्याशित रूप में सामने आया। इसके कुछ बड़े कारण नजर आते हैं। पहला, भाजपा ने ‘अबकी बार 400 पार’ का नारा देकर अपने समर्थकों की उम्मीदें हद से ज्यादा बढ़ा दी थीं। हालांकि उसे चुनावी हकीकत में उतारना असंभव नहीं, तो अव्यावहारिक जरूर था। दूसरे, इस निराशा की आग में एग्जिट पोल के नतीजों ने भी घी डालने का काम किया। लगभग सभी एग्जिट पोल ने एनडीए को लोकसभा की 350 से 400 तक सीटें जीतने का पूर्वानुमान किया था, जिसके कारण भाजपा समर्थक पार्टी को प्रचंड बहुमत मिलने के प्रति आश्वस्त दिखे। तीसरे, भाजपा का पूरा चुनाव तंत्र सिर्फ और सिर्फ नरेंद्र मोदी ब्रांड पर आश्रित दिखा। हालांकि प्रधानमंत्री ने अपनी ओर से मेहनत करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी, लेकिन उनकी पार्टी के अधिकतर सांसद और उम्मीदवार ‘ब्रांड मोदी’ के बल पर ही अपनी चुनावी नैया पार कराने का ख्वाब देखते रहे। इस कारण कई क्षेत्रों में चुनाव के दिन पार्टी कार्यकर्ताओं की निष्क्रियता दिखी।

शायद इसके लिए वे भी दोषी नहीं। पिछले दस वर्षों में जिस तरह ‘ब्रांड मोदी’ दो आम चुनावों में भाजपा के लिए तुरुप का इक्का साबित हुआ, अधिकतर भाजपा नेता इस बार भी अंतिम चुनाव परिणाम के प्रति आश्वस्त दिखे। उन्हें लगा कि मोदी के करिश्माई नेतृत्व की बदौलत 400 का लक्ष्य पार करना मुमकिन है, लेकिन ऐसा हो न सका। इन सब कारणों से सरकार बनाने के लिए आवश्यक बहुमत मिलने के बावजूद जीत के प्रति एनडीए खासकर भाजपा में उल्लास नहीं दिखा।

तो, क्या भाजपा के लिए 400 का मुश्किल लक्ष्य निर्धारित करना और सिर्फ और सिर्फ मोदी मैजिक पर निर्भर रहना भारी पड़ा? दरअसल, मोदी से भाजपा और उसके सहयोगी दलों को वैसी ही अपेक्षाएं रहती हैं जैसी कभी सुनील गावस्कर और सचिन तेंडुलकर से देश के क्रिकेट प्रेमी रखा करते थे। हर बार जब तेंडुलकर मैदान पर उतरते थे, तो उनके मुरीद उनसे कम से कम एक शतक की उम्मीद रखते थे। इसी तरह जब भी कोई विदेशी टीम भारत के सामने चौथी पाली में जीत का कोई मुश्किल लक्ष्य सामने रखती थी, तो गावस्कर के प्रशंसक उनकी सेंचुरी की भविष्यवाणी कर देते थे। यह कहने में अतिश्योक्ति नहीं होनी चाहिए कि राजनीति में आज मोदी समर्थक उनसे कुछ वैसी ही उम्मीदें रखते हैं। वैसे भाजपा समर्थकों में निराशा की एक वजह और है। इस बार भाजपा को सरकार चलाने के लिए तेलुगु देशम पार्टी और जनता दल-यूनाइटेड जैसे सहयोगियों पर आश्रित रहना पड़ेगा। पिछले दो कार्यकाल में भाजपा को स्वयं अपने बल पर बहुमत मिलने के कारण अपने ढंग से सरकार चलाने की स्वतंत्रता थी। इस बार समीकरण बदल गए हैं। वैसे तो मोदी के दोनों प्रमुख सहयोगियों, नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू को गठबंधन में काम करने का लंबा अनुभव है, लेकिन राजनीति में समीकरण बदलते देर नहीं लगती। इसलिए भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को यह प्रयास करना होगा कि उनका गठबंधन सहयोगी दलों के साथ आपसी तालमेल से अगले पांच साल सुचारू रूप से चले। इस चुनाव में कांग्रेस सहित विपक्ष ने भी मजबूती से वापसी की है। उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल जैसे बड़े प्रदेशों में प्रादेशिक दलों का सिक्का चला है। आने वाले समय में महाराष्ट्र सहित कई प्रमुख राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। एनडीए की जीत के बावजूद इस जनादेश ने विपक्ष में नई जान फूंक दी है और संसद में उसकी मजबूत उपस्थिति होगी। इसलिए भाजपा को उनसे मिलने वाली कड़ी चुनौतियों का सामना करने के लिए अपनी रणनीतियों पर नए सिरे से विचार करना पड़ेगा।

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