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प्रथम दृष्टिः छोटे शहरों की अहमियत

छोटे शहरों की उपेक्षा का आलम यह रहा है कि बुनियादी संरचनाओं और बड़ा बाजार होने के बावजूद उन्हें बड़े आयोजनों से महरूम किया जाता रहा है
पटना में पुष्पा 2 का ट्रेलर लॉन्च करने आए अल्लू अर्जुन

किसी जमाने में कथित रूप से बीमारू प्रदेश कहे जाने वाले बिहार में पिछले सप्ताह दो अभूतपूर्व घटनाएं हुईं। एक, राज्य के छोटे लेकिन बेहद खूबसूरत शहर राजगीर में महिला एशियाई हॉकी चैंपियनशिप का आयोजन हुआ। दूसरे, राजधानी पटना के ऐतिहासिक गांधी मैदान में तेलुगु सिनेमा के सुपरस्टार अल्लु अर्जुन की सुपरहिट फिल्म पुष्पा द राइज के बहुप्रतीक्षित सीक्वल का ट्रेलर लॉन्च किया गया। कहने को तो दोनों कार्यक्रम किसी बड़े राज्य के लिए सामान्य कहे जाएंगे, लेकिन बिहार के लिए वे अप्रत्याशित भी हैं।

वर्षों से कला-संस्कृति, विशेषकर सिनेमा और खेलकूद के बड़े आयोजनों से प्रदेश को महरूम रखा गया। अनेक पूर्वाग्रहों के कारण उसकी एक खास छवि बनाई या बन गई, जिसके कारण उसे पिछड़ापन का प्रतीक समझा गया। बिहार की छवि इस कदर नकारात्मक बनाई गई कि दूर देशों में बैठे लोग मान बैठे कि वहां कुछ भी बेहतर होने की संभावना नहीं के बराबर है। किसी जमाने में नरसंहार, अपहरण, हत्या, जातिवाद और भ्रष्टाचार की घटनाओं ने उस छवि को समय के साथ और पुख्ता किया। इसी छवि के कारण बड़े औद्योगिक घराने वहां निवेश करने से कतराते रहे। फलस्वरूप बाकी राज्यों की तुलना में बिहार पिछड़ता ही चला गया। हर साल हजारों की तादाद में वहां से प्रतिभाओं का पलायन होता गया। वहां के युवा दूसरे प्रदेशों की प्रगति में अपना योगदान देते रहे लेकिन गृहराज्य में उनकी जरूरत नहीं समझी गई। बारह करोड़ से अधिक आबादी वाले इस राज्य को रोजमर्रा के जरूरतों के उत्पाद का बड़ा बाजार तक नहीं समझा गया। न तो उसे राष्ट्रीय स्तर के सरकारी आयोजनों का मौका मिला, न ही इसे किसी बड़ी खेल प्रतियोगिता के मेजबानी का मौका मिला।

इसलिए जब खबर आई कि प्रदेश में एशियाई महिला हॉकी चैंपियनशिप का आयोजन किया जाएगा, तो लोगों का चौंकना स्वाभाविक था। याद नहीं आता कि पिछली दफा किसी राष्ट्रीय स्तर की अंडर-17 या अंडर-19 की कोई खेल प्रतियोगिता इस प्रदेश में कब आयोजित की गई थी। खेल के क्षेत्र में बिहार की कितनी उपेक्षा हुई, इसका अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि पटना में कभी किसी क्रिकेट टेस्ट मैच का आयोजन हुआ ही नहीं। यही नहीं, आज तक यहां भारत की क्रिकेट टीम ने न कोई 50 ओवरों का अंतरराष्ट्रीय एकदिवसीय मैच खेला, न ही कोई टी-20 गेम। पटना में अब तक सिर्फ दो अंतरराष्ट्रीय मैच खेले गए हैं। पहला, 1993 के हीरो कप के दौरान श्रीलंका-जिम्बाब्वे का मैच और दूसरा, 1996 के वर्ल्ड कप के दौरान जिम्बाब्वे-केन्या के बीच टक्कर। ऐसा नहीं है कि प्रदेश में इस तरह के मैचों के आयोजन करने की सुविधाएं या आधारभूत संरचनाएं मौजूद नहीं हैं। कोलकाता के ईडेन गार्डन के बाद पटना का मोइनुल हक स्टेडियम पूर्वी भारत का सबसे बड़ा स्टेडियम था, लेकिन प्रदेश की सरकारों की लगातार उपेक्षा के कारण उसकी हालत जीर्ण-शीर्ण हो गई। इस उपेक्षा के पीछे राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न खेलों की आला संस्थाओं के हुक्मरानों के बिहार के प्रति पूर्वाग्रह भरी सोच भी थी। उन्हें लगता था कि बिहार में बड़े खेल आयोजन यहां की राजनीति के कारण कराए ही नहीं जा सकते। उम्मीद है, राजगीर में आयोजित एशियाई महिला हॉकी प्रतियोगिता के सफल आयोजन के बाद उनकी आंखें खुलेंगीं।

खेलों की तरह सिनेमावालों की भी बिहार के प्रति उपेक्षा जगजाहिर है। साल दर साल न तो प्रदेश को सिनेमा का बाजार समझा गया, न ही बड़े सितारों ने अपनी फिल्मों का वहां प्रचार करने में दिलचस्पी दिखलाई। इंटरनेट क्रांति और ओटीटी के प्रादुर्भाव के बाद स्थितियां बदल गई हैं। डिजिटल युग में दक्षिण भारतीय भाषाओं की हिंदी में डब फिल्मों के दर्शकों का बहुत बड़ा वर्ग बिहार में है। यही कारण है कि पुष्पा द राइज के सीक्वल का ट्रेलर पटना से लॉन्च करने का निर्णय उसके निर्माताओं ने लिया। यह सही है कि किसी फिल्म को देशव्यापी स्तर का ब्लॉकबस्टर सिर्फ महानगरों के मल्टीप्लेक्स से होने वाली आमद के बूते नहीं बनाया जा सकता है। दक्षिण के फिल्मकारों को यह समझ में आ गया है। इसलिए अल्लु अर्जुन, एनटीआर जूनियर और प्रभास जैसे दक्षिण भारतीय अभिनेता उत्तर भारत के छोटे शहरों में लोकप्रिय हैं।

उम्मीद की जानी चाहिए कि इस लॉन्च से बॉलीवुड के बड़े फिल्मकार और कलाकार सीख लेंगे और वे उन छोटे शहरों का रुख करेंगे जिनकी वर्षों से फिल्म उद्योग ने उपेक्षा की है। आज के दौर में छोटे शहर और बड़े शहर के बीच की दूरियां मिट गई हैं। बिहार के सुदूर गांव में बैठी लड़की रील बनाकर इंटरनेट सेंसेशन बन रही है। अब स्टार बनने के लिए यह जरूरी नहीं कि आप किस शहर से आते हैं। यही बात उन सबको समझनी होगी जो पहले छोटे शहरों को अहमियत नहीं देते थे।

 

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