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3 मार्च 2025 · MAR 03 , 2025

प्रथम दृष्टि: नेतृत्व का अंतर

लंबे समय बाद भाजपा जीती मगर यह कहना जल्दबाजी होगी कि इस हार से केजरीवाल के राजनैतिक करियर का अस्त हो गया है
आप को सत्ता से बाहर करने की खुशी मनाते भाजपा समर्थक

राजधानी दिल्ली के विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की जीत और अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व वाली आम आदमी पार्टी (आप) की हार के अलग-अलग मायने हैं। दिल्ली को भाजपा अपना गढ़ मानती रही है और पार्टी का संगठन यहां मजबूत रहा है। जनसंघ के दिनों से ही यह अटलबिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी सहित कई दिग्गज नेताओं की राजनैतिक कर्मभूमि रही है। इसके बावजूद भाजपा दिल्ली विधानसभा का चुनाव पिछले 27 साल से नहीं जीत पाई थी। केंद्र की राजनीति में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उदय और उनके नेतृत्व में लगातार तीन लोकसभा चुनाव जीतने के बाजवूद पार्टी दिल्ली प्रदेश की सत्ता में काबिज नहीं हो पाई। जाहिर है, इतने लंबे अंतराल के बाद इस बार दिल्ली चुनाव में निर्णायक जीत ने पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ाया है।

पिछले दस साल से अधिक समय तक दिल्ली में आप सत्ता में थी, जिसने पिछले दो चुनावों में जबरदस्त जीत हासिल की थी। साल 2011 में अन्ना हजारे के नेतृत्व में चले भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के गर्भ से उत्पन्न आप ने देश की राजधानी के मतदाताओं को इस कदर लुभाया कि एक दशक से अधिक तक वहां सत्ता में काबिज रही। अन्ना हजारे से मतभेद और शुरुआती दौर के कई साथी नेताओं के पार्टी छोड़ने के बावजूद अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली विधानसभा चुनावों में लगातार जीत के बाद राष्ट्रीय स्तर की सियासत में अपनी पैठ बनाई और भाजपा विरोधी खेमे की एक प्रमुख आवाज के रूप में उभरे। 2022 में पंजाब में आम आदमी पार्टी की भारी जीत और केजरीवाल के बढ़ते सियासी कद के कारण कुछ राजनैतिक टिप्पणीकार उन्हें तीसरे मोर्चे के अग्रणी नेता के रूप में देखने लगे थे। लेकिन, उसके बाद उनकी छवि धीरे-धीरे धूमिल होने लगी। किसी समय भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम के सबसे प्रखर नेता होने के बावजूद दिल्ली में उनकी अपनी सरकार भ्रष्टाचार के कथित आरोपों से बच नहीं सकी और स्वयं केजरीवाल सहित पार्टी के कई मंत्रियों को जेल जाना पड़ा। इस चुनाव के आते-आते ऐसा लगने लगा था कि दिल्ली में खासकर मध्य वर्ग का उनसे मोहभंग हो गया है। इसके बावजूद यह कहना जल्दबाजी होगी कि इस हार से केजरीवाल के राजनैतिक करियर का अस्त हो गया है। वे अपनी सीट नहीं बचा पाए, लेकिन इस बार भी आप को अच्छा-खासा जन समर्थन मिला है, जिसे उसे हासिल मत प्रतिशत से समझा जा सकता है। हालांकि इससे इनकार नहीं किया जा सकता है कि केजरीवाल और उनकी पार्टी को गंभीरता से आत्ममंथन करने की जरूरत है कि किन वजहों से दिल्ली की जनता ने उन्हें नकार दिया।

गौरतलब है कि आप से अधिक कांग्रेस को आत्ममंथन करने की जरूरत होनी चाहिए। देश की सबसे पुरानी पार्टी, जिसने देश की राजनीति की बागडोर दशकों तक दिल्ली से ही संभाली, ने पिछले कुछ लोकसभा और विधानसभा चुनावों में बद से बदतर प्रदर्शन किया है। पार्टी के प्रदर्शन का आकलन इस बात से किया जा सकता कि पिछले तीन विधानसभा चुनावों में कांग्रेस दिल्ली चुनावों में अपना खाता भी नहीं खोल पाई। दरअसल बीते दस साल में दिल्ली विधानसभा चुनावों में भाजपा और आप की सीधी टक्कर होती रही है और कांग्रेस को जनता ने हर बार नकार दिया है। कई चुनावी विशेषज्ञों का मत है कि इस बार कांग्रेस और आप को चुनावपूर्व गठबंधन के तहत लड़ना चाहिए था क्योंकि त्रिकोणीय मुकाबले में भाजपा विरोधी मतों का बिखराव हुआ। केंद्रीय स्तर पर एकजुट रहने के बावजूद इंडिया ब्लॉक के दोनों घटक दल दिल्ली विधानसभा चुनाव में किसी प्रकार का गठबंधन या सीट समझौता नहीं कर सके। इसके बावजूद यह कहना मुनासिब नहीं होगा कि दोनों के साथ चुनाव लड़ने से अंतिम फैसला कुछ अलग होता, हालांकि इससे भाजपा की जीत की राह आसान जरूर हो गई।

जब भी त्रिकोणीय विधानसभा चुनावों में भाजपा की जीत होती है तो यह कहा जाता है कि विपक्ष के एकजुट नहीं होने का सीधा फायदा उसे मिला, लेकिन ऐसे राज्यों में चुनाव हुए हैं जहां सीधी टक्कर होने के बावजूद भाजपा को विजय मिली। इसका सबसे बड़ा कारण ब्रांड मोदी है। भाजपा भले ही अपने आप को कार्यकर्ताओं की पार्टी कहती हो, इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि मोदी का नेतृत्व उसके लिए हर चुनाव में तुरूप का इक्का साबित हुआ है। इस बार दिल्ली विधानसभा चुनाव में जनता ने मोदी के नाम पर वोट दिया क्योंकि पार्टी के पास कोई भी ऐसा स्थानीय नेता नहीं था जिसके बल पर मतदाताओं को अपने पाले में लाया जा सके। भाजपा का शीर्ष नेतृत्व ही उसकी सबसे बड़ी ताकत है, जिसका जवाब उसके विरोधियों के पास नहीं है। इंडिया ब्लॉक‌ में अभी भी कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी है, लेकिन विडंबना यह है कि देश के अलग-अलग प्रांतों के क्षेत्रीय दल राहुल गांधी को राष्ट्रीय स्तर पर अपना सर्वमान्य नेता स्वीकार करने को तैयार नहीं, प्रदेशों के चुनावों की बात तो दूर है। नेतृत्व का सवाल और विपक्षी नेताओं की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के कारण मोदी विरोधी पार्टियों की एका हमेशा नामुमकिन-सा लगता है और इससे किसका कितना नुकसान हो रहा है, इसे बताने की जरूरत नहीं है।

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