एक कहावत है अंग्रेजी में, ‘ब्यूटी लाइज़ इन द आईज़ ऑफ द बिहोल्डर’, यानी खूबसूरती देखने वाले की नजर में होती है। खूबसूरती का कोई पैमाना नहीं होता। पुराने जमाने के कवियों और शायरों से लेकर डिजिटल काल की ब्यूटिशियन और बोटॉक्स करने वाले सर्जन तक सौंदर्य की व्याख्या अलग है। किसी ने तीखे नैन-नक्श और सुराहीदार गर्दन की शान में कसीदे पढ़े हैं, तो कोई घने-काले गेसुओं पर फिदा रहा है। समय के अनुसार सौंदर्य की परिभाषा बदलती रही है। कभी किसी के सुडौल, गठीले शरीर के लिए तारीफों के पुल बांधे जाते हैं, तो कभी साइज जीरो फिगर के लिए जिम में घंटों पसीना बहाया जाता है। आधुनिक युग में सौंदर्यशास्त्र के पन्नों में गौरवर्ण को विशेष तवज्जो दी गई है। अगर कोई कुदरती या आनुवंशिक कारणों से गोरी चमड़ी का है, तो उसकी त्वचा के रंग को खूबसूरती समझ लिया जाता है, लेकिन जो गौरवर्ण नहीं हैं उनका क्या? आज जब मानव अंतरिक्ष में अपनी प्रतिभा की पताका लहरा रहा है, तब भी क्या उसकी मानसिकता रंगभेद के पूर्वाग्रह से ग्रसित है?
पिछले दिनों केरल की मुख्य सचिव सारदा मुरलीधरन की अपनी त्वचा के रंग के संबंध में टिप्पणी से समाज में सदियों से महसूस होने वाले भेदभाव पर एक बार फिर नए सिरे से बहस शुरू हो गई है। सोशल मीडिया पर किसी ने उनके और उनके पति पूर्ववर्ती मुख्य सचिव के कार्यकाल की तुलना करते हुए उनकी त्वचा के रंग बारे में अशोभनीय टिप्पणी की, जिससे आहत होकर उन्होंने बताया कि कैसे वे बचपन से ही इस तरह की टिप्पणियों का सामना कर रही हैं। गौरतलब है कि मुरलीधरन देश के सबसे शिक्षित राज्य के सर्वोच्च प्रशासनिक पद पर कार्यरत हैं, लेकिन तमाम काबिलियत के बावजूद उन्हें निजी जिंदगी में वही दंश झेलना पड़ा है जो आम तौर पर देश में हर युवक-युवती को झेलना पड़ता है जो गोरे नहीं हैं। जाहिर है, जिस समाज में व्यापक स्तर पर आज भी गोरी त्वचा को सुंदरता का सबसे बड़ा पैमाना माना जाता हो, वहां काले या सांवले रंग वालों के प्रति भेदभाव और पूर्वाग्रह की जड़ें अभी हिली नहीं हैं। समाज में व्याप्त इसी गहरे भेदभाव के कारण गोरा करने का दावा करने वाली फेयरनेस क्रीम का बाजार अरबों रुपये का है। पिछले दिनों दिल्ली की एक उपभोक्ता अदालत ने फेयरनेस क्रीम बनाने वाली एक बड़ी कंपनी पर भ्रामक विज्ञापन देने के आरोप में पंद्रह लाख रुपये का जुर्माना लगाया। दरअसल 2013 में एक उपभोक्ता ने उस कंपनी के खिलाफ शिकायत दर्ज की थी कि फेयरनेस क्रीम लगाने के बावजूद उनकी त्वचा का रंग गोरा नहीं हुआ। लेकिन क्या ऐसे एकाध मामलों से फेयरनेस क्रीम बनाने वाली कंपनियों की सेहत पर कोई फर्क पड़ेगा?
विडंबना है कि गोरा दिखने की चाह में आज भी लोग मानने को तैयार नहीं कि ये कंपनियां गोरा बनाने का सपना बेचती हैं, गोरा बनाती नहीं। फेयरनेस क्रीम बनाने वाली कंपनियां भी प्रचार-प्रसार के लिए कोई कसर नहीं छोड़ती हैं। प्रोडक्ट की पब्लिसिटी के लिए उनका बजट इतना बड़ा होता है कि आलोचनाओं के बावजूद देश के चहेते फिल्म स्टार से लेकर लोकप्रिय खिलाड़ी तक उनके ब्रांड एंबेसेडर बन जाते हैं।
कुछ लोगों के अनुसार इस देश में गोरे रंग को खूबसूरती का पर्याय अंग्रेजों के आने के बाद माना जाने लगा, जिन्होंने काले-गोरे के भेद के आधार पर समाज को शासक और शासित वर्ग में बांटा। हालांकि पाश्चात्य साहित्य में खासकर अंग्रेजी के कई रोमांटिक उपन्यासों में नायकों को टॉल, डार्क और हैंडसम यानी लंबा, सांवला और खूबसूरत के रूप में वर्णित किया गया है, लेकिन असल जिंदगी में ‘हीरो’ जैसा दिखने के लिए गोरा होना आवश्यक समझा गया। सिनेमा के चलन के बाद यह धारणा दिनोदिन मजबूत होती गई। हॉलीवुड और यूरोपीय सिनेमा से लेकर बॉलीवुड में गोरे अदाकारों को सिर्फ अपनी त्वचा के रंग और कदकाठी की वजह से तरजीह मिलती गई, भले ही उनमें अभिनय क्षमता नहीं थी। सालोसाल परदे का नायक गोरा और खलनायक काला या सांवला दिखाया जाता रहा। बॉलीवुड में तो दशकों तक शायद ही किसी सांवले कलाकार को ‘हीरो मटेरियल’ समझा जाता था। पहली फिल्म मृगया से सर्वोत्तम अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने वाले मिठुन चक्रवर्ती को सिर्फ रंग की वजह से शुरुआती वर्षों में न सिर्फ काम की किल्लत रही बल्कि कई बड़े निर्माता-निर्देशकों से अपमानित भी होना पड़ा। सामानांतर सिनेमा के चलन के बाद ऐसे नायक आए जो परदे पर अपने रंगरूप की वजह से ‘ग्रीक गॉड’ नहीं, बल्कि आम आदमी जैसे दिखते थे।
पिछले दो दशकों में लगा कि रंगभेद के खिलाफ लोगों की मानसिकता बदल रही है। कई हस्तियों ने फेयरनेस क्रीम के खिलाफ आवाज बुलंद की। इसके बावजूद, आज भी बाजार में ऐसे प्रोडक्ट मौजूद हैं जो लोगों को गोरा बनाने के झूठे दावे करते हैं। उनका बाजार शायद तब तक गुलजार रहेगा जब तक गौरवर्ण को सांवली त्वचा से ज्यादा खूबसूरत बताने वाली मानसिकता समाज में व्याप्त रहेगी।