बस तीन महीने बाद बिहार में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। पूरे देश की नजर उस पर है। बिहार का चुनाव हर बार खास होता है। अक्सर बिहार चुनाव के परिणाम का असर व्यापक तौर पर देश की राजनीति में दिखता है। इस बार चुनाव आयोग राज्य में मतदाता सूची का विशेष सघन पुनर्रीक्षण कर रहा है, जिसके कारण सियासी विवाद खड़ा हो गया है। प्रतिपक्ष का आरोप है कि बड़े पैमाने पर मतदाताओं के नाम वोटर लिस्ट से हटाए जा रहे हैं, ताकि सत्तारूढ़ एनडीए को लाभ मिल सके। चुनाव आयोग ने इन आरोपों को खारिज किया है। उसका कहना है कि मतदाता सूची का पुनर्रीक्षण समय-समय होता रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रक्रिया पर रोक लगाने से तो इनकार कर दिया, लेकिन कहा कि अगर मतदाता सूची के सत्यापन की प्रक्रिया में गड़बड़ी पाई जाती है, तो उसे रद्द किया जा सकता है। उसने 28 जुलाई को यह भी कहा कि आधार कार्ड और वोटर आइडी को शामिल किया जाए।
चुनाव नई मतदाता सूची के आधार पर हो या पुरानी, अब लड़ाई जनता की अदालत में लड़ी जाएगी। प्रतिपक्ष के पास फिलहाल सबसे बड़ा मुद्दा बिहार में बिगड़ती कानून-व्यवस्था है। पिछले कुछ दिनों में राजधानी पटना सहित बिहार में हत्या की सनसनीखेज वारदातें हुईं। पटना में एक बड़े कारोबारी को घर के बाहर गोलियों से भून दिया गया जबकि पांच हथियारबंद लोगों ने एक निजी अस्पताल में इलाजरत एक सजायाफ्ता कैदी को मौत के घाट उतार दिया। पूर्णिया की एक अन्य घटना में कथित जादू-टोना करने के आरोप में एक ही परिवार के पांच लोगों को जिंदा जला दिया गया। इन घटनाओं के बाद विपक्षी नेताओं ने नीतीश कुमार पर हमला तेज कर दिया है। उनका कहना है कि नीतीश की शासन-प्रशासन पर पकड़ ढ़ीली पड़ गई है। राजद के मुख्यमंत्री पद के दावेदार तेजस्वी प्रसाद यादव और जन सुराज पार्टी के सर्वेसर्वा प्रशांत किशोर का मानना है कि नीतीश स्वास्थ्य कारणों से अब सरकार चलाने में सक्षम नहीं हैं।
तो, क्या नीतीश कुमार का इकबाल वाकई खत्म हो रहा है? सत्तारूढ़ जदयू के नेता प्रतिपक्ष के आरोपों का खंडन कर रहे हैं। उनका कहना है कि बिहार में अगली सरकार भी नीतीश कुमार के नेतृत्व में ही बनेगी। गठबंधन में पार्टी की सबसे बड़ी सहयोगी भाजपा नीतीश के नेतृत्व में ही चुनाव लड़ रही है। इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि बिगड़ती कानून-व्यवस्था नीतीश के लिए इस चुनाव में सबसे बड़ी चुनौती है। पिछले तीन विधानसभा और चार लोकसभा चुनावों में नीतीश सरकार का रिकॉर्ड इस मामले में बेहतर रहा है। इस बार चिराग पासवान जैसे गठबंधन के सहयोगी नेता भी अपराध की घटनाओं पर चिंता व्यक्त कर चुके हैं।
दरअसल, पिछले बीस वर्षों के नीतीश के शासन काल में बिहार की कानून-व्यवस्था सुधरी है, लेकिन हाल की कुछ घटनाओं के कारण अब आरोप लग रहे हैं कि क्या बिहार में ‘जंगल राज’ की वापसी हो रही है? गौरतलब है कि नीतीश ने 2005 में मुख्य तौर पर बिगड़ती कानून-व्यवस्था को बड़ा मुद्दा बनाकर लालू प्रसाद यादव के नेतृत्व वाली राजद को सत्ता से बाहर करने में सफलता पाई थी। उससे पहले राजद के पंद्रह साल के शासन काल को बिहार में हत्या, फिरौती और अपहरण की घटनाओं के कारण ‘जंगल राज’ तक कहा गया। शासन की बागडोर संभालने के बाद नीतीश ने कानून-व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त करने का बीड़ा बड़ी शिद्दत से उठाया। उन्होंने न सिर्फ बाहुबलियों पर नकेल कसी, बल्कि राजनैतिक संरक्षण प्राप्त कई अपराधियों को विशेष न्यायालय का गठन करवा कर स्पीडी ट्रायल से सजा दिलवाई।
नीतीश की सरकार राज्य के किसी भी पूर्ववर्ती सरकार से इस मामले में भी बेहतर थी कि उसने पुलिस को अपराधियों के खिलाफ विधि-सम्मत कार्रवाई करने की छूट दे रखी थी। नीतीश ने सभी जिलाधिकारियों और पुलिस अधीक्षकों को सख्त निर्देश दे रखा था कि अपने इलाके में होने वाले दंगों और अन्य अपराधों को रोकने की जवाबदेही उनकी होगी। नीतीश के उठाए कदमों के सकारात्मक परिणाम देखने को मिले। सो, हाल में अपराध की घटनाओं में बढ़ोतरी हुई तो यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या नीतीश इस चुनाव के पहले अपनी उस ‘यूएसपी’ को गंवा बैठे हैं जिससे उन्हें एक बड़े वर्ग का समर्थन प्राप्त होता रहा है।
पिछले विधानसभा चुनाव में एनडीए और महागठबंधन के बीच कांटे की टक्कर थी। इस बार भी नीतीश के लिए चुनौतियां कम नहीं हैं। महागठबंधन के सभी घटक दलों ने एकजुट होकर चुनाव लड़ने के लिए मन बना लिया है। चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर के नेतृत्व वाली जन सुराज पार्टी तीसरे मोर्चे के रूप में उभर रही है। ऐसे में नीतीश के लिए यह आवश्यक है कि बिहार में कानून-व्यवस्था पर सरकार का फिर से वैसा ही नियंत्रण हो, जिसके लिए उनकी सरकार हमेशा से जानी जाती रही है। नीतीश सरकार की कई खामियां गिनाई जाती रही हैं, लेकिन खराब कानून-व्यवस्था शायद ही कभी उनके खिलाफ चुनावी मुद्दा बना है।