इन दिनों कांग्रेस नेता राहुल गांधी बिहार में ‘वोटर अधिकार यात्रा’ पर हैं। 17 अगस्त को सासाराम से शुरू हुई यात्रा का समापन 1 सितंबर को पटना के गांधी मैदान में एक सभा से होगा। राजद सहित इंडिया ब्लॉक के सभी दल इस यात्रा में उनके साथ हैं। राहुल का आरोप है कि बिहार विधानसभा चुनाव के ठीक पहले चुनाव आयोग के मतदाता सूची के विशेष गहन पुनर्रीक्षण (एसआइआर) के नाम पर हेराफेरी की जा रही है, ताकि सत्तारूढ़ एनडीए को अक्टूबर-नवंबर में होने वाले चुनाव में फायदा पहुंचाया जा सके। चुनाव आयोग ने राहुल के आरोपों को खारिज किया है। चुनाव आयोग ने 1 अगस्त को बिहार में ड्राफ्ट वोटर लिस्ट प्रकाशित की थी और जिन लोगों के नाम छूट गए हैं, उसे फिर से शामिल करने के लिए एक महीने का समय दिया। सभी दावों और शिकायतों का निबटारा करने के बाद आयोग 30 सितंबर को अंतिम मतदाता सूची प्रकाशित करने वाला है, जिसके आधार पर इस बार विधानसभा चुनाव होंगे। पहली सूची में तकरीबन 65 लाख मतदाताओं के नाम काटने की बात सामने आई। निश्चित रूप से यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या राहुल और उनके गठबंधन के अन्य नेता नई मतदाता सूची से संतुष्ट होंगे? अगर उस सूची में भी उन्हें खामियां नजर आती हैं, तो वे उसे प्रदेश के चुनावों में एक बड़ा मुद्दा बनाने की कोशिश करेंगे। लेकिन, क्या यह मुद्दा उतना बड़ा बन पाएगा, जितना राहुल और उनके गठबंधन के प्रमुख साथी तेजस्वी यादव को उम्मीद है?
दरअसल, इस पूरे अभियान ने महागठबंधन बनाम चुनाव आयोग की लड़ाई का रूप ले लिया है, जिसके कारण नीतीश कुमार सरकार के खिलाफ अन्य मुद्दे गौण हो गए हैं। राज्य की चरमराती कानून-व्यवस्था, आजीविका की तलाश में लोगों का पलायन, शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्र की खामियां और सरकारी कर्मियों के खिलाफ भ्रष्टाचार जैसे मामले गुम हो गए हैं। क्या मतदाता सूची में कथित गड़बड़ियों का मुद्दा जमीनी स्तर पर आम मतदाता को उतना प्रभावित कर सकता है, जितना वैसे मुद्दे जो उसकी रोजमर्रा की जिंदगी से जुड़े हैं। इसका यह मतलब नहीं कि लोकतंत्र में अगर वोटर लिस्ट में वाकई खामियां हैं, तो उन्हें नजरअंदाज करना चाहिए, लेकिन विपक्ष के लिए सारी रणनीति उसके इर्दगिर्द बनाना कितना कारगर होगा।
इस लिहाज से नवगठित जन सुराज पार्टी के संयोजक प्रशांत किशोर की नीति ज्यादा स्पष्ट लगती है। किशोर पिछले दो वर्षों से इस चुनाव की तैयारी कर रहे हैं। इस दरम्यान उन्होंने पूरे बिहार की पदयात्रा की है। उनकी हर रैली में निशाना मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ-साथ भाजपा, राजद और कांग्रेस भी रहते हैं। उनके अनुसार, किसी भी पार्टी ने पिछले तीस-चालीस साल में बिहार की बेहतरी के लिए काम नहीं किया। इसलिए वे जनता के बीच एक नया विकल्प लेकर जा रहे हैं। उनकी इस सोची-समझी रणनीति का शायद सबसे बड़ा कारण यह है कि बिहार की सियासत में इस चुनाव के बाद एक बदलाव की सुगबुगाहट है, खासकर नेतृत्व के मामले में। किशोर का मानना है इस चुनाव के बाद नीतीश युग का पटाक्षेप हो जाएगा। नीतीश के समकालीन और बिहार की सियासत के दूसरे दिग्गज लालू प्रसाद भी स्वास्थ्य कारणों से पहले जैसे सक्रिय नहीं हैं। इन दोनों नेताओं के दो प्रमुख समकालीन- लोक जनशक्ति पार्टी के संस्थापक राम विलास पासवान और भाजपा के सुशील कुमार मोदी का देहावसान हो चुका है। इसलिए चुनाव के बाद इस बार नई पीढ़ी के नेताओं के उभरने की प्रबल संभावनाएं हैं, चाहे एनडीए हो या महागठबंधन। पिछले चुनाव में नई पीढ़ी के तेजस्वी जीत के करीब आ गए थे, वहीं चिराग पासवान ने अपनी सियासी विरासत के साथ पहचान बनाने में सफलता पाई। इस बार अगर भाजपा और जदयू सत्ता की बागडोर अपने पास बरकरार रखने में सफल रहती है तो भी उसका नेतृत्व किसी नए चेहरे के हाथों में होने का आकलन है। शायद यही कारण है प्रशांत किशोर ने इस चुनाव को बिहार में नए नेतृत्व के उभरने के अवसर के रूप में लिया है। उनकी लड़ाई चुनाव आयोग के निर्णय से इतर उन मुद्दों पर है, जिनसे बिहार वर्षों से जूझ रहा है। कांग्रेस इस नजरिए से सबसे कमजोर कड़ी नजर आती है क्योंकि उसके पास बिहार के नेतृत्व में होनेवाले खालीपन को भरने के लिए कोई बड़ा चेहरा नहीं है। कांग्रेस के लिए भी यह चुनाव प्रदेश में बेहतर विकल्प के रूप में उभरने के लिए हो सकता था, बशर्ते वह स्थानीय स्तर पर नई पीढ़ी के नेताओं को तवज्जो देती, लेकिन कांग्रेस के लिए सबसे बेहतर विकल्प अभी भी यही लगता है कि वह राजद के तेजस्वी के नेतृत्व में बिहार में चुनाव लड़े। दरअसल राहुल के लिए बड़ी लड़ाई राष्ट्रीय स्तर पर लड़ी जानी है, इसलिए उनके लिए फिलहाल बाकी मुद्दों से एसआइआर ज्यादा बड़ा मुद्दा है, जिसके आधार पर वे भाजपा को घेरने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन बिहार चुनाव में यह कितना कारगर होगा, यह देखने वाली बात होगी।