महाराष्ट्र की सरकार ने धार्मिक संगठनों के दबाव में मध्याह्न भोजन योजना में प्रोटीनयुक्त अंडे और चीनी के लिए दिया जाने वाला अनुदान खत्म कर दिया है। इस फैसले से शिक्षा और स्वास्थ जानकार चिंतित हैं। उनका मानना है कि यह स्कूली बच्चों के पोषण के साथ समझौता है। सरकारी और सरकारी अनुदान प्राप्त स्कूलों के भोजन से अंडा खत्म करने का काम इससे पहले गोवा और मध्य प्रदेश की सरकारें कर चुकी हैं। राज्य के स्कूली शिक्षा और खेल विभाग ने मध्याह्न भोजन योजना के अंतर्गत संशोधित भोजन सूची से संबंधित अधिसूचना जारी की थी, जिसमें अंडे और चीनी का प्रावधान खत्म किया गया है।
यह अधिसूचना कहती है कि अंडे और चीनी (नचनी सत्व) के लिए कोई अतिरिक्त सरकारी फंड नहीं दिया जाएगा। जो स्कूल यह आहार देना चाहते हैं वे खुद इसके लिए पैसे जुटाएं। यह फैसला समूचे राज्य के 85, 267 स्कूलों को प्रभावित करेगा।
महायुति सरकार के मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे ने पिछले ही साल प्रधानमंत्री पोषण शक्ति निर्माण योजना के अंतर्गत स्कूली आहार में अंडा शामिल करवाया था। राज्य सरकार ने हफ्ते में एक बार अंडे के लिए हर बच्चे पर पांच रुपये के अनुदान का प्रावधान किया था। मध्याह्न भोजन योजना का 60 प्रतिशत अनुदान केंद्र सरकार से आता है और उसकी सूची में अंडा शामिल नहीं है। अंडा शामिल करने के शिंदे के कदम की धार्मिक समूहों ने आलोचना की थी। इनमें जैन, वरकरी, इस्कॉन सहित भारतीय जनता पार्टी के धर्म प्रकोष्ठ के लोग भी शामिल थे।
भाजपा के धर्म प्रकोष्ठ के प्रमुख तुषार भोसले ने कहा, ‘‘हम लोगों ने अभियान चलाया था कि स्कूलों से अंडे को हटाया जाए ताकि कुछ समुदायों की धार्मिक आस्थाएं अक्षुण्ण रह सकें। हम मुख्यमंत्री के स्कूली बच्चों को अंडा न देने के फैसले का स्वागत करते हैं।’’
भोसले का कहना है कि अंडे हमेशा से मध्याह्न भोजन का हिस्सा नहीं थे। उन्हें आहार में शामिल करने से उन बच्चों पर बुरा असर पड़ेगा जो शाकाहारी हैं और कुछ खास समुदायों से आते हैं। उनका कहना है कि सरकार को अंडे की जगह केले या बादाम देने के विकल्प पर विचार करना चाहिए, ‘‘स्कूलों में जब अंडे बांटे जाते हैं, तो पारंपरिक रूप से शाकाहारी परिवारों से आने वाले बच्चे भी उसे खाने को प्रेरित हो सकते हैं। हम लोगों को उनके परिवारों की आहार परंपरा का सम्मान करना चाहिए।’’
इसके उलट, शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्र के सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इस फैसले को आड़े हाथों लिया है। उनका कहना है कि महाराष्ट्र में छोटे बच्चों और स्कूली बच्चों में कुपोषण का स्तर बहुत ज्यादा है। स्वास्थ्य पर काम करने वाली स्वयंसेवी संस्थाओं के एक नेटवर्क जन आरोग्य अभियान के एक हालिया सर्वे के मुताबिक महाराष्ट्र् का हर चौथा बच्चा कुपोषित है।
वैसे तो महाराष्ट्र आर्थिक रूप से संपन्न राज्य है जहां शहरों, कस्बों और अधिरचना वाली परियोजनाओं के लिए बजट बहुत ज्यादा है, लेकिन स्वास्थ्य पर राज्य का बजट खर्च महज 4.1 प्रतिशत है। महाराष्ट्र पैरेंट्स टीचर्स असोसिएशन के अध्यक्ष नितिन दलवी कहते हैं, ‘‘स्कूली बच्चों की थाली से अंडे जैसे पोषाहार को छीनना आपराधिक है। यह गरीब बच्चों के साथ अन्याय जैसा है। गांवों में किसानों-मजदूरों के परिवार अपने बच्चों को पोषाहार देने के लिए संघर्ष करते हैं और इस मामले में उनके लिए मध्याह्न भोजन आसान विकल्प होता है।’’
दलवी कहते हैं कि अल्पसंख्यकों के आहार के हक में सरकार ने उन बहुसंख्य बच्चों के लिए पोषाहार के स्रोत पर वार किया है जिन्हें अंडे से कोई एतराज नहीं। वह कहते हैं, ‘‘बच्चों के कल्याण और पोषण को धार्मिक भावनाओं या राजनैतिक चिंताओं के ऊपर तरजीह दी जानी चाहिए।’’
जनस्वास्थ्य अभियान के राष्ट्रीय सह-संयोजक डॉ. अभय शुक्ला कहते हैं कि बच्चों में पोषण के स्तर को सुधारने की तत्काल जरूरत है, ‘‘राज्य में बच्चों में कुपोषण की दर 25.6 प्रतिशत है। छोटे बच्चों को अच्छी गुणवत्ता वाला प्रोटीन चाहिए, जो आसानी से पचाया भी जा सके। अंडे प्रोटीन के कैप्सूल की तरह होते हैं जो आसानी से पच जाते हैं। इसलिए मध्याह्न भोजन से उन्हें बाहर करने की कोई नैतिक या तार्किक वजह नहीं होनी चाहिए।’’