कांग्रेसियों की हालत पर तमाम लोग हंस रहे हैं। कांग्रेस अध्यक्ष चुनने में कांग्रेसियों की जो फजीहत हुई है उसे देख कर कांग्रेसियों का खूब मजाक बन रहा है। कांग्रेस के शुभचिंतकों और राजनैतिक विद्वानों के अगर वश में होता तो कांग्रेस के एक क्या, दर्जन भर अध्यक्ष बन गए होते, दर्जनों नामों के सुझाव अब तक वे दे चुके होते। लेकिन कांग्रेसी हैं कि एक अध्यक्ष चुनने में उन्हें पसीना आ गया।
यहां एक बात पर सहानुभूति के साथ गौर करना जरूरी है कि कांग्रेसियों को ऐसा काम करने को कहा गया है जो उन्होंने कभी किया नहीं है। उन्हें अध्यक्ष चुनने का कभी कोई तजुर्बा नहीं रहा। किसी से भी कोई ऐसा काम करने को कहा जाए जो उसने कभी नहीं किया, तो उसमें मुश्किल तो होगी ही। यह हालत सिर्फ कांग्रेस की नहीं है। देश की किसी भी पार्टी पर ऐसा प्रसंग आ जाए, तो उसकी यही हालत होगी। अगर तृणमूल कांग्रेस से ममता बनर्जी कहें कि कोई अध्यक्ष चुन लो तो क्या ऐसा हो सकता है? यही हाल सपा, बसपा, जदयू, अकाली दल, टीडीपी, द्रमुक सबका है। भाजपा में नरेंद्र मोदी, अमित शाह कल कहें कि हम हट रहे हैं आप कोई दूसरा नेता चुन लो, तो भाजपाइयों की हालत भी कांग्रेसियों जैसी ही होगी।
हमारे देश में किसी पार्टी के लोग नेता नहीं चुनते, नेता पार्टी के लोगों को चुनता है। नेता छोटे नेताओं को चुनता है, छोटे नेता अपने से छोटे नेता को चुनते हैं, वे और छोटे नेताओं को चुनते हैं, इस तरह यह क्रम नीचे तक चलता है। सबसे छोटे नेता जनता को चुनते हैं। इसलिए हमारे लोकतंत्र में जनता नेता को नहीं चुनती, नेता जनता को चुनते हैं। जो जनता चुनने से वंचित रह जाती है वह हाशिए पर चली जाती है।
चुनना या चुनाव की आजादी एक भ्रम है जिस पर लोकतंत्र चलता है। राजनेता उस जादूगर की तरह होते हैं जो दर्शकों से वही ताश का पत्ता चुनवाते हैं जो वे चाहते हैं। जनता भ्रम पाले रहती है कि उसने अपनी मर्जी से पत्ते चुने हैं। यह भ्रम उन कथित रूप से पढ़े-लिखे लोगों में ज्यादा होता है, जो यह मान लेते हैं कि कथित अनपढ़, गंवार लोगों से ज्यादा समझदार हैं, क्योंकि वे सोच-समझकर वोट देते हैं और गरीब पैसे और शराब के लालच में अपना वोट बरबाद करते हैं।
अव्वल तो यह गलत है कि सभी गरीब पैसे या शराब के लिए अपना वोट देते हैं। ध्यान से देखा जाए तो वे लोग सबसे ज्यादा समझदार साबित होते हैं जो ऐसा करते हैं। उन्हें कम से कम कुछ पैसा और शराब तो मिलती है, बाकियों को तो कुछ भी नहीं मिलता। न चुनाव के पहले न चुनाव के बाद। यह भी कथित पढ़े-लिखे लोगों का भ्रम ही है कि वे बेहतर जनप्रतिनिधि चुनते हैं। भोपाल राजधानी है और उसमें बड़ी तादाद में मध्यवर्गीय पढ़े-लिखे सरकारी नौकर किस्म के लोग रहते हैं। उन लोगों ने साध्वी प्रज्ञा ठाकुर को सांसद चुना है। अगर तमाम कथित पढ़े-लिखे लोगों की समझदारी का निचोड़ यह है, तो उस समझदारी की कंपोस्ट खाद तक नहीं बन सकती। वह ऐसा कूड़ा है जो प्लास्टिक की तरह धरती का बोझ है।
कांग्रेसी समझते हैं कि चुनाव एक भ्रम है, हम नहीं समझते तो हंसी का पात्र कौन हुआ?