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आवरण कथा/नजरिया: रॉयल्टी की बाबत दो टूक

सम्मानजनक रॉयल्टी की कहानी पर ऐसी खरी-खरी कि हिंदी प्रकाशन जगत की पूरी बखिया ही उधड़ गई
हिंदी में रॉयल्टी के किस्से अनूठे

सबसे पहले यह स्वीकार करना होगा कि मैंने कभी किसी प्रकाशक को अपनी किताब देते हुए यह कहने से गुरेज नहीं किया कि यह मान कर दे रही हूं कि उस पर मुझे पर्याप्त रॉयल्टी मिलेगी। जब 1975 में मेरा लिखा छपना शुरू हुआ, तो सम्मानजनक रॉयल्टी दर 15 प्रतिशत थी। मेरा हर अनुबंध उसी दर पर होता था। रॉयल्टी मिलती भी थी। जाहिरा तौर पर किसी ने बेईमानी नहीं की।

अलबत्ता इसमें एक जबरदस्त पेच है। मैंने कहा न, जाहिरा तौर पर बेईमानी नहीं की। पर गैर जाहिरा क्या कम कहर ढाता है।

अक्षर प्रकाशन के अलावा, जिसे राजेंद्र यादव ने लेखकीय अभियान की तरह शुरू किया था, किसी प्रकाशक ने लिखित तौर पर कभी नहीं बतलाया कि एक संस्करण में किताबों की संख्या क्या रहेगी। इसलिए बिक्री हुई किताबों की संख्या तो मालूम रहती थी, पर कितनी बची हैं, उसके जोड़ जरब में धोखे की पूरी गुंजाइश थी। धड़ल्ले से धोखा हुआ भी। यानी जितनी किताबें वाकई छपी होतीं, उन पर शायद ही कभी रॉयल्टी मिलती, बल्कि नहीं ही मिलती।

वैसे, मेरे उपन्यास बिका खूब करते थे। अक्षर प्रकाशन द्वारा प्रकाशित एक पुस्तक का 2100 का संस्करण एक साल में बिक गया। रॉयल्टी भी मिल गई। जब किताब के दाम 12 रुपये हो, तो कितनी, आप हिसाब लगा सकते हैं।

तभी हिंद पॉकेट बुक्स ने उस किताब का जेबी संस्करण छापने की पेशकश की। इसके बावजूद कि सजिल्द संस्करण अभी बिक रहा था, सौजन्य का परिचय देते हुए, यादव जी ने अनुमति दे दी।

अब शुरू हुआ असल प्रहसन। एक तो पॉकेट बुक के दाम ढाई रुपया, ऊपर से रॉयल्टी 15 के बजाय 7 प्रतिशत। पता नहीं किस तर्क के तहत जेबी पुस्तक की रॉयल्टी दर कम थी। शायद इस खुशफहमी में कि पॉकेट बुक ज्यादा बिकती हैं। अब सुनिए खरी-खरी। यूं वह किताब हर रेलवे स्टेशन की व्हीलर दुकान पर सजी दिखी। पर जाने किस दिलजले की सलाह पर प्रकाशक ने उस जैसी पुस्तकों पर “उत्कृष्ट” का ठप्पा लगा दिया। कयास लगाएं। गुलशन नंदा और गुरुदत्त की किताबों से लदे काउंटर पर किसी किताब को उत्कृष्ट बतला कर धर देंगे, तो हर गैर-साहित्यिक बंदा खरीदने को जिल्लत ही मानेगा!

यानी रॉयल्टी मिली ठेंगा। हिसाब मिला सिफर।

सजिल्द किताब बिकती रही पर जरा कम। क्योंकि जेबी का विज्ञापन था, उसका नहीं। तो साहब न दीदारे खुदा मिला, न संगे सनम।

बाद में राजकमल पेपरबैक्स ने जेबी को पेपरबैक का खिताब बख्श, हिन्द बुक्स से किताब ले ली। पर रॉयल्टी दर और बिक्री की अदायगी वैसी ही फिसड्डी रही।

इस किस्से को छोड़ दें तो मेरी किताबें काफी बिकती रहीं। उसके हिस्से की धूप, चित्तकोबरा और अनित्य तक। दाम बीस-पच्चीस रुपये होने पर भी, महीने के लाख रुपये रॉयल्टी मिल ही जाती थी। उन दिनों समीक्षाएं भी खूब छपती थीं। अनित्य के जमाने में तो बैठे ठाले जो अखबार खोलूं, अनित्य की समीक्षा हाजिर।

फिर स्‍त्री-विमर्श के हमले के साथ वह दौर आया जब हिंदी साहित्य अजब डगर पर जा पहुंचा। वह किताब जो स्‍त्री की मजबूरी, दर्द और जुल्मोसितम का रोना न रोए, वह सूची से बाहर। मारा गया बेचारा अनित्य।

उसके साथ-साथ उपन्यास के संस्करण में पुस्तक संख्या भी कम हुई। उससे ताल्लुक न था, बस संयोग था। जी नहीं, संख्या बतलाने का रिवाज नहीं चला, पहले की तरह मैंने कयास लगाया है। अभी तक वही हाल है।

दूसरी तरफ दाम बढ़े। तो एक रिवायत और चली।

लोग किताबें पढ़ें तो सही पर खरीदें नहीं। लेखक से मांगे। जब तमाम किताबें लेखक खुद खरीद कर बांटने पर मजबूर हो, तो रॉयल्टी किस गर्भाशय से पैदा हो। तो समझो खा गए लालच और कंजूसी उसे।

वैसे रॉयल्टी की सबसे बड़ी एकमुश्त रकम मुझे मिली सात (7) लाख रुपये की। राष्ट्रीय पुस्तक न्यास (एनबीटी) से किशोरों के लिए लिखे कहानी संग्रह छलावा के लिए। एक लाख सालाना आम बात थी।

अब जरा अंग्रेजी की तरफ घूम आएं। अंग्रेजी में खास बात यह हुई कि पचास-पचहत्तर हजार रुपये का एडवांस मिल जाता था। बाकी हाल हिंदी वाला था। अलबत्ता अच्छे व्यापारी की तरह, न दिए जाने का विस्तृत विवरण मिल जाता, जो इस बंदी ने पूरा कभी पढ़ा नहीं। ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी का चलन अलग था। अनित्य का अनुवाद छापा, मेहनत और निष्ठा से। जितनी कही थी, उतनी रॉयल्टी दी, दो साल के भीतर। फिर उपन्यास अनुपलब्ध हुआ और बना रहा। अब तक अधर में टंगा है।

बकौल रवि सिंह, जिनसे पेंग्विन से स्पीकिंग टाइगर तक राब्ता रहा, हिंदी की किताबें ज्यादा बिकती हैं, अंग्रेजी की कम! हम कौन ठहरे उज्र करने वाले!

ईमानदारी की मांग है कि बतला दें, अब हिंदी प्रकाशक भी एडवांस देने लगे हैं। वाणी हो या पेंग्विन। अच्छी रिवायत है पर बंदापरवर, बिक्री, आलोचना और रॉयल्टी की बात कुछ और है। सुकून देने वाली।

हिंद युग्म जैसे धुरंधर रॉयल्टी दाता ने, जिनकी आजकल चहुं ओर धूम है, हमसे कभी आहुति मांगी नहीं। तो उनकी कथा वे जाने या उनके कथावाचक।

मृदुला गर्ग

(लेखिका साहित्य अकादेमी प्राप्त वरिष्ठ साहित्यकार हैं)

 

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