प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए अगले लोकसभा चुनाव से पहले सौ जनसभाओं का कार्यक्रम तय करके भाजपा ने अपनी तरफ से चुनाव की तैयारी का ऐलान ही नहीं किया है, चुनावी रणनीति की दिशा का भी कुछ इशारा किया है। और यह इशारा बताता है कि पार्टी मोदी जी के नाम और चेहरे को ही आगे करके चुनाव लड़ने जा रही है। स्वतंत्र मूल्यांकन में मोदी सरकार के नौ-दस वर्षों के कार्यकाल की उपलब्धियों के बारे में चाहे जो राय हो, भाजपा को लगता है कि मोदी के व्यक्तित्व और काम के आगे कोई विपक्ष नहीं ठहर पाएगा। मुफ्त राशन और दूसरी लोकलुभावन योजनाओं से सरकार की वोट दिलाऊ लोकप्रियता बन गई है। जगह-जगह विपक्ष ने भी पुरानी पेंशन योजना से लेकर मुफ्त दी जाने वाली चीजों के सहारे भाजपा का मुकाबला करने की कोशिश की तो प्रधानमंत्री ने चुनाव और उसके वादों से बिगड़ने वाले बजट की चर्चा छेड़ी लेकिन वह बात ज्यादा आगे नहीं बढ़ा पाई।
हालांकि ऐसे लोग कम नहीं हैं, जो मानते हैं कि चुनाव प्रबंध और साधनों के मामले में आगे रहने वाली भाजपा के लिए ऐसी तैयारी करना कोई टेढ़ी खीर नहीं है और इससे यह निष्कर्ष निकालना गलत होगा कि भाजपा ने अपनी कोई रणनीति तय कर ली है। हर चुनाव की तरह वह पहले तरह-तरह के मुद्दे उठाकर हवा का रुख भांपेगी और जो बात जमती दिखेगी, उसी पर सारा जोर लगाकर चुनाव लड़ेगी। उत्तर प्रदेश के चुनाव में ही भाजपा ने पहले अयोध्या में मंदिर निर्माण, फिर अनुच्छेद 370 की समाप्ति और तीन तलाक जैसे मुद्दों को उठाया लेकिन बात बनी मुलायम-अखिलेश राज में कानून-व्यवस्था की बदहाली के मुद्दे पर और उसका डर दिखाकर भाजपा ने मुश्किल लड़ाई को अंतत: सरल बना लिया। इससे उसे महिलाओं का ज्यादा वोट पाने में सफलता मिल गई, वरना पहले के चुनावों का अनुभव यही होता था कि महिलाएं भाजपा को दंगे से जुड़ी पार्टी मानती थीं और इस चलते उसे महिलाओं का वोट औसत से कम मिलता था।
यह भी सही है कि भाजपा ने मंदिर निर्माण, अनुच्छेद 370 की समाप्ति और तीन तलाक के मुद्दे पर जैसी-तैसी पहल करके अपने को मुद्दाविहीन कर लिया है। अब भाजपा कभी गाय के नाम पर तो कभी हिजाब और बुर्के के नाम पर, कभी किसी मुसलमान संगठन के राष्ट्रविरोधी हाव-भाव पर तो कभी विपक्ष की ‘राष्ट्र और हिंदू-द्रोही’ बताकर अपने हिंदुत्ववादियों और उसकी चाकरी में लगे लोगों के जरिए राष्ट्रवाद का झंडा बुलंद कर लेती है। गजब तो यह है कि मीडिया मैनेजमेंट में उस्ताद भाजपा ने पाकिस्तान की बदहाली को भी मोदी सरकार का अच्छा कामकाज बताने के लिए इस्तेमाल कर लिया है। ऐसा श्रीलंका की बदहाली में नहीं किया गया था क्योंकि उसके नाम से अंध राष्ट्रवादी जुनून पैदा करना संभव नहीं है। नोटबंदी, कोरोना महामारी के दौर में देशव्यापी तालाबंदी और इस तरह की प्रशासनिक नाकामियों को भाजपाई मीडिया मैनेजर सफलता के साथ छुपाने में कुशल साबित हुए हैं।
सो, ऐसे भी लोग हैं, जो मानते हैं कि मोदी 2019 की तरह कोई चमत्कारी काम करेंगे। पुलवामा की तरह का कोई मुद्दा कमजोर पाकिस्तान सौंप देगा या मोदी आगे बढ़ाकर किसी छोटे मुद्दे को वैसा ही प्रभावी मुद्दा बना लेंगे। उसी में राम मंदिर ही नहीं, काशी, मथुरा और उज्जैन के मंदिर परिसर के काम, मुसलमानों को ‘औकात’ में रखने की सफलता और समान नागरिक संहिता की चर्चा वगैरह के सहारे हिंदुत्ववादी-राष्ट्रवाद का चुनाव जिताऊ फार्मूला बना लेंगे। इसे मंदिर-दो का नाम दिया जाए या नहीं, लेकिन यह व्यवहारगत मंदिर-दो ही होगा। बहुत संभव है इस बार पाक अधिकृत कश्मीर कोई ‘अवसर’ दे। मोदी के व्यक्तित्व और सरकार के काम की बात ऊपर ही ऊपर रहेगी। चुनाव जीतने के लिए दूसरा मंत्र जपा जाएगा।
फिर, मोदी या भाजपा मंदिर-दो का अभियान पहले वाले दौर की तरह जोर-शोर से चलाएं या न चलाएं, विपक्ष की कोशिश मंडल-दो की ओर बढ़ने की साफ दिखाई देती है। विपक्षी नेताओं को मालूम है कि बतौर पिछड़ा नेता नरेंद्र मोदी के शीर्ष पर होने और मोदी की दलित-आदिवासी ही नहीं, पिछड़ा राजनीति में भी अच्छी-भली दखल होने से उनका काम आसान नहीं है लेकिन वे सांप्रदायिक विमर्श को जाति के विमर्श के काटने के फार्मूले को आगे बढ़ाना चाहते हैं। मोदी राज आने के बाद से आरक्षित पदों पर भर्ती का घटिया रिकार्ड, कम नियुक्तियां, कॉलेजों में कम दाखिले और प्रोमोशन में आरक्षण को लगभग भुला ही देने को मुद्दा बनाने की समय-समय पर कोशिश होती रही है। इसमें विपक्ष को ओबीसी बौद्धिकों का भी साथ मिलता रहा है। लेकिन मुश्किल यह है कि आरक्षण के सवाल को आगे ले जाने के लिए लालू यादव, मुलायम सिंह यादव, शरद यादव और रामविलास पासवान जैसे नेता या तो निष्क्रिय हो गए हैं या अब रहे नहीं। अभी भी जिन अखिलेश यादव और तेजस्वी यादव जैसे नेताओं का मुख्य आधार पिछड़ा समाज ही है, वे भी आगे बढ़कर इन सवालों को नहीं उठाते।
हालांकि एक मामले में उन्होंने या अन्य विपक्षी मंडलवादियों ने पहले वाले आंदोलन के मुद्दों का विस्तार किया है। उन्होंने जनगणना में जातियों की गिनती की मांग ही नहीं की है, उसे एक बड़ा राजनैतिक मुद्दा बना दिया है। मजेदार बात यह है कि शुरू से इस बात का विरोध करती आ रही भाजपा ने बिहार में इसका समर्थन किया है। बिहार में जाति के आधार पर जनगणना चल भी रही है। यह मांग ओडिशा जैसे राज्य में भी उठी। नवीन पटनायक को भी लगता है कि भाजपा को पीटने में यह मुद्दा सहायक बनेगा। कभी श्रीकांत जेना और रवि राय जैसे नेता इसी मांग को उठाने के चलते नवीन की आंख की किरकिरी बने थे।
ज्यादा दिलचस्प बात कांग्रेस का मंडलवादी बन जाना है। एक तो उसने मलिकार्जुन खड़गे को अध्यक्ष चुना है। दूसरे उसने रायपुर अधिवेशन में अपनी कार्यसमिति समेत सारे संगठन में पचास फीसदी आरक्षण देने का फैसला किया है। हमने देखा है कि पंजाब में भी उसने अपनी तरफ से पहला दलित मुख्यमंत्री बनाया। अब खड़गे का कहना है कि एक दो राज्यों में जातिवार जनगणना से खास लाभ नहीं होगा, पूरे देश में ऐसा होना चाहिए। कांग्रेस ने आरक्षण वाले पदों पर पूरी भर्ती और सर्वोच्च पदों पर भी कोटा पूरा करने की बात उठाई है। कांग्रेस की नजर सिर्फ ओबीसी पर न होकर दलित, आदिवासी और महिला जैसे सारे समूहों पर है। अब कोई यह सवाल उठा सकता है कि खुद इतने लंबे समय तक शासन में रहने के बाद अब उसे क्यों इस पिछड़े समूह के याद आई है।
साफ लगता है कि उसे भाजपा को घेरने में पिछड़ा कार्ड से मदद मिलने की उम्मीद है। यह किसी ‘कमीटमेंट’ की जगह ‘स्ट्रेटेजी’ ज्यादा है। हर जमात की तो नहीं लेकिन अल्पसंख्यकों के मामले में भाजपा के हाथ बंधे हैं, बल्कि वह इसी ‘चारे’ से बाकी पूरे हिंदू समाज को एकजुट करने और उसका वोट हासिल करने की रणनीति पर चलती रही है। लेकिन कांग्रेस की दिक्कत उसके इतिहास और अभी की बनावट में है और जब बार-बार की कोशिश के बावजूद दलित उसके पक्ष में गोलबंद नहीं होते तो ओबीसी समाज कैसे साथ आएगा। कांग्रेस का इतिहास एक ‘छतरी गठजोड़’ बनाकर काम करने का रहा है। अगर कुछ प्रांतों में यह नहीं चला तो उन्हीं मझोली जातियों के बाहर छिटकने के चलते हुआ, जो बाद में मंडल राजनीति का आधार बनीं।
एक मुहिम और शुरू हुई जिससे मंडल बनाम मंदिर के दूसरे दौर की संभावना ज्यादा प्रबल दिखती है। अखिलेश यादव, नीतीश कुमार, तेजस्वी यादव, सिद्धरमैया, बघेल, अशोक गहलोत जैसे दिग्गजों के विपक्ष में होने से यह गुंजाइश बनी हुई है कि जिस दिन यह फौज एकजुट होकर निकलेगी, मंडल-दो की हवा बनाने में ज्यादा देर नहीं लगेगी। जिस मुद्दे से इसकी गुंजाइश बनती लगी थी, वह खुद इतना विवादास्पद है कि उस पर पिछड़ा हिंदू समाज क्या रुख लेगा, पूरा हिंदू समाज क्या करेगा और कहीं यह मुद्दा विपक्ष की जगह भाजपा को ही मदद न कर दे, ये सारे अंदेशे हैं। संभवत: यही कारण है कि अखिलेश यादव ने अपने दल के एक नेता स्वामी प्रसाद मौर्य के हाल के बयानों से दूरी बनाकर उन्हें खामोश हो जाने का संकेत दिया। उसका वैसा ही असर भी पड़ा है।
लेकिन जब बिहार के शिक्षा मंत्री ने रामचारितमानस को लेकर बहुत भद्दी टिप्पणी की और उस पर हंगामा मचा तो उस मंत्री का ही नहीं काफी सारे ओबीसी नेताओं का व्यवहार देखकर लगा कि ओबीसी नेताओं का एक वर्ग फिर से मंडल को जीवित करने के लिए बेचैन है। तब एक ओर मौर्य समेत काफी लोगों का बयान आया तो दूसरी ओर कई पिछड़ावादी बौद्धिकों की सक्रियता भी बढ़ गई। फिर अन्य हिंदू धर्मग्रंथों की चर्चा भी जहां-तहां सुनाई दी। जाहिर तौर पर मंडल-दो खड़ा करने के इस तरीके के जोखिमों को देखते हुए ओबीसी नेताओं की तरफ से उसे आगे बढ़ाने का इशारा नहीं मिला।
अगर भाजपा अपनी रणनीति साफ नहीं करती और उसे अभी मंदिर-दो का माहौल बनाने में लाभ नहीं दिखता है तो मंडल वाली बिरादरी की तरफ से ही क्यों आगे बढ़ाने की उम्मीद की जाए। लेकिन ये संभावित हथियार और बम हैं जिनके टिक-टिक करने की आवाज सुनाई दे रही है। किसी भी एक मुद्दे पर यह जंग शुरू हो सकती है। मुख्य विपक्षी कांग्रेस का इतिहास और अपना सामाजिक हिसाब इसमें बाधक है तो ओबीसी नेताओं का प्रशासनिक इतिहास या उपलब्धियां। इस मामले में भाजपा का रिकॉर्ड बेहतर है, भले सामान्य प्रशासन और चुनावी वादे पूरे करने का उसका रिकार्ड ज्यादा खराब है।
समाजवादी चिंतक किशन पटनायक की यह बहुचर्चित स्थापना है कि मंडल और मंदिर के साथ ही एक तीसरा ‘प्रोजेक्ट’ भूमंडलीकरण का भी हिंदुस्तानी समाज में शुरू हुआ। वे मंदिर और भूमंडलीकरण को ज्यादा खतरनाक मानते थे और उन्हें रोकने की ऊर्जा मंडल में ही देखते थे। उनको मंडल नेतृत्व से कई शिकायतें भी रहीं लेकिन बाकी जीवन सांप्रदायिकता और आर्थिक गुलामी के खतरे से लड़ते हुए ही गुजरा। इसलिए जब मंदिर और मस्जिद के दूसरे चरण की संभावनाओं की चर्चा हो तो भूमंडलीकरण को नहीं भूलना चाहिए। उसने बड़े मजे से इन बाकी दोनों को गोद में बैठा लिया और अपना एजेंडा कहलवाता रहा। मनमोहन हों या अटल बिहारी, नरसिंह राव हों या नरेंद्र मोदी, लालू हों या मुलायम, सभी उसके एजेंडे से बाहर नहीं गए। सो, इस बार क्या होगा, इसमें उसकी मर्जी भी देखनी होगी। वह अपने रंग में रंग गए इन दो धाराओं को अपने असर से बाहर जाने देगा, इसमें शक ही है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। उनकी कई चर्चित किताबें हैं। विचार निजी हैं)