एक चीनी वैज्ञानिक ने पिछले दिनों यू ट्यूब पर दुनिया का पहला जीन-संशोधित शिशु पैदा करने का दावा करके वैज्ञानिक जगत में जबरदस्त हलचल मचा दी। कई वैज्ञानिकों ने चीनी वैज्ञानिक के इस काम की जमकर भर्त्सना की। कइयों ने ऐसे प्रयोगों की नैतिकता पर सवाल उठाए। वहीं, जुड़वा लड़कियों के जन्म से पहले उनके डीएनए में परिवर्तन करने वाले चीनी वैज्ञानिक हे चियानकुई को अपने प्रयोग में कुछ भी अनुचित नहीं लगा। हांगकांग यूनिवर्सिटी में आयोजित अंतरराष्ट्रीय जीन संपादन सम्मेलन में हे ने कहा कि उन्हें अपने काम पर गर्व है। उन्होंने यह भी दावा किया कि उनके परीक्षण में शामिल एक और महिला गर्भवती है और उसके शिशु का इसी तरह जीन-संशोधित किया गया है। चियानकुई के अनुसार, परीक्षण के दौरान जन्मे पहले जुड़वा शिशुओं का विवरण एक वैज्ञानिक पत्रिका को भेजा गया है। उन्होंने इस पत्रिका का नाम नहीं दिया। यह भी नहीं बताया कि इसके परिणाम कब प्रकाशित किए जाएंगे।
सम्मेलन में अपने प्रजेंटेशन में हे ने बताया कि उन्होंने किस प्रकार कई भ्रूणों में ‘सीसीआर-5’ नामक जीन को संशोधित करने के लिए ‘क्रिस्पर केस-9’ नामक जीन-संपादन तकनीक का उपयोग किया। ये भ्रूण आइवीएफ तकनीक से तैयार किए गए थे। आइवीएफ तकनीक जिन दंपतियों पर आजमाई गई, उनमें सभी पिता एचआइवी पॉजिटिव थे या एड्स वायरस से संक्रमित थे। कुछ लोगों में मौजूद कुदरती म्यूटेशन (परिवर्तित जीन) के कारण उन पर एड्स वायरस का असर नहीं होता। यूरोप और अमेरिका में करीब 10 फीसदी लोगों को माता-पिता में से किसी एक से परिवर्तित सीसीआर-5 जीन मिला है। इनमें अधिकांश लोगों में जीन की सामान्य किस्म भी मौजूद रहती है और ऐसे लोगों को अन्य लोगों की तरह एड्स के शिकार होने का खतरा रहता है। लेकिन, जिन एक फीसदी लोगों को माता-पिता दोनों से यह परिवर्तित जीन मिलता है, वे एड्स-प्रतिरोधी होते हैं। अध्ययन से पता चलता है कि एड्स वायरस के संपर्क में आने पर ऐसे लोगों के संक्रमित होने का खतरा सौ फीसदी कम होगा। चीनी वैज्ञानिक द्वारा किए गए जीन संशोधन का उद्देश्य इसी म्यूटेशन को दोहराना था, ताकि जन्म लेने वाले बच्चे एड्स वायरस से मुक्त रहें। जीन संशोधन के बाद जन्मीं लड़कियों को नाना और लूलू नाम से पुकारा जा रहा है।
हांगकांग सम्मलेन में मौजूद अन्य वैज्ञानिकों ने हे चियानकुई के प्रस्तुतीकरण पर तीखे प्रश्न पूछे। सम्मलेन के एक आयोजक और कैलिफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में जीव विज्ञान के प्रोफेसर एमरिट्स और नोबेल पुरस्कार विजेता डेविड बाल्टीमोर ने हे के कार्य को गैर-जिम्मेदाराना बताया। उन्होंने कहा कि पारदर्शिता नहीं होने के कारण यह वैज्ञानिक समुदाय में आत्मानुशासन की विफलता का मामला है। मैसाचुसेट्स में कैम्ब्रिज स्थित ब्रॉड इंस्टीट्यूट के जीव-विज्ञानी ने पूछा कि परिवर्तित जीन से लड़कियों को किस प्रकार फायदा होगा। उन्होंने कहा कि इन बच्चों के एड्स वायरस से ग्रसित होने का कोई जोखिम नहीं था। जीवन में एड्स के इनफेक्शन से बचने के कई तरीके होते हैं। इसलिए ऐसी कौन-सी चिकित्सीय आवश्यकता थी, जिसकी वजह से उनके जीन में संशोधन करना पड़ा।
अपने बचाव में हे ने कहा कि एड्स का टीका उपलब्ध नहीं होने के कारण न सिर्फ इन बच्चों को, बल्कि लाखों बच्चों को एड्स से सुरक्षा की जरूरत है। हे ने बताया कि आठ दंपती उनके अध्ययन में शामिल होने के लिए राजी हुए थे, लेकिन बाद में एक दंपती ने अपना नाम वापस ले लिया। इन दंपतियों में सभी माताएं एड्स वायरस से मुक्त थीं, जबकि सभी पिताओं में यह वायरस मौजूद था। हे ने सम्मलेन में बताया कि उन्होंने 31 अंडाणुओं पर काम किया और दो परिवर्तित भ्रूणों को एक महिला में प्रत्यारोपित किया। एक शिशु के पास संपादित जीन की सिर्फ एक कॉपी है, जो एड्स से प्रतिरोध के लिए पर्याप्त नहीं है। दोनों बच्चों के स्वास्थ्य पर अगले 18 वर्षों तक नजर रखी जाएगी।
जीन-संपादन का काम तीन साल पहले शुरू हुआ था और इसका आंशिक खर्च स्वयं हे ने उठाया था। उन्होंने अपने बहुत कम सहयोगियों से अपनी योजनाओं के बारे में विचार-विमर्श किया था। हे शेनचेन स्थित दक्षिण चीन विज्ञान और टेक्नोलॉजी विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। हांगकांग सम्मेलन में भाग लेने के बाद हे का कुछ पता नहीं चल रहा है। अफवाह है कि उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया है अथवा शेनचेन में घर में नजरबंद कर दिया गया है। चीन के स्वास्थ्य अधिकारियों का कहना है कि उन्हें हे के कार्यों के बारे में कोई जानकारी नहीं है। चीन के विज्ञान और टेक्नोलॉजी मंत्रालय ने इस मामले की जांच के आदेश दिए हैं और हे को रिसर्च रोकने को कहा है।
अनेक देशों में जीन-संशोधित बच्चे पैदा करना अवैध है और इस क्षेत्र में काम करने वाले वैज्ञानिकों में आमतौर पर इस बात पर सहमति है कि इस तरह के प्रयोग अनैतिक होंगे। जीन संपादन को सुरक्षित नहीं माना जाता। कोई भी आनुवंशिक फेरबदल न सिर्फ बच्चे को प्रभावित करते हैं, बल्कि भावी पीढ़ियों पर भी असर डालते हैं। कुछ वैज्ञानिकों का कहना है जीन-संशोधन के लिए सबसे ज्यादा प्रचलित क्रिस्पर केस-9 तकनीक से डीएनए को ज्यादा नुकसान होता है। यदि वैज्ञानिकों की बात सही है तो इस तकनीक से दोषपूर्ण जीन को ठीक करने के चक्कर में स्वस्थ जीन अस्त-व्यस्त हो जाएंगे। दूसरी बात यह है कि भ्रूण के डीएनए में किए गए परिवर्तन से शुक्राणु और अंडाणु समेत उसकी सारी कोशिकाओं पर असर पड़ेगा। इसका अर्थ यह हुआ कि आनुवंशिक संशोधन आगे की सारी पीढ़ियों में हस्तांतरित होंगे।
क्या है क्रिस्पर तकनीक?
क्रिस्पर टेक्नोलॉजी जीनों को संपादित करने का एक शक्तिशाली साधन है। इसकी मदद से रिसर्चर डीएनए क्रमों में आसानी से फेरबदल कर सकते हैं और जीन के फंक्शन को संशोधित कर सकते हैं। इसके कई उपयोग हैं, जिनमें आनुवंशिक गड़बड़ियों को ठीक करना, बीमारियों का फैलाव रोकना और फसलों में सुधार करना शामिल है। लेकिन इसके इस्तेमाल पर विवाद है। अनेक वैज्ञानिकों ने इसके प्रयोग की नैतिकता पर सवाल उठाए हैं। क्रिस्पर का पूरा नाम ‘क्रिस्पर केस-9’ है। क्रिस्पर डीएनए का विशेष हिस्सा होता है। केस-9 एक एंजाइम है, जो आणविक कैंचियों की तरह काम करता है। इन कैंचियों की मदद से डीएनए के गुच्छे काटे जा सकते हैं। क्रिस्पर टेक्नोलॉजी को बैक्टीरिया की कुदरती रक्षा प्रणाली से अपनाया गया है। ये जीवाणु वायरसों और अन्य बाहरी तत्वों के हमले को विफल कर देते हैं। इसके लिए वे क्रिस्पर-जनित आरएनए (राइबोन्यूक्लिक एसिड) का उपयोग करते हैं। वे बाहरी हमलावर का डीएनए काटकर उसे नष्ट कर देते हैं। जब इन हिस्सों को दूसरे अधिक जटिल जीवों में हस्तांतरित किया जाता है तो जीन में फेरबदल अथवा उनके संपादन का रास्ता खुल जाता है। 2017 तक किसी को भी यह नहीं मालूम था कि यह प्रक्रिया वास्तव में कैसे होती है। नेचर कम्युनिकेशन पत्रिका में 10 नवंबर 2017 को प्रकाशित एक शोधपत्र में जापान की कनाजावा यूनिवर्सिटी के मिकिहिरो शिबाटा और तोक्यो यूनिवर्सिटी के हिरोशी निशिमासु ने बताया कि क्रिस्पर तकनीक वास्तव में कैसे काम करती है।
विभिन्न जीवों के जीन-समूहों अथवा जीनोम में उनके डीएनए क्रमों के भीतर कई संदेश और निर्देश कूटबद्ध होते हैं। जीनों के संपादन के जरिए इन क्रमों को बदला जा सकता है। इस तरह उनमें छिपे संदेश को बदला जा सकता है। क्रिस्पर केस-9 के जरिए डीएनए में काटछांट की जा सकती है और उसमें मनचाहे परिवर्तन किए जा सकते हैं। 2012 में साइंस और पनास पत्रिकाओं में प्रकाशित दो शोधपत्रों से बैक्टीरियाई क्रिस्पर केस-9 को जीन-संपादन का औजार बनाने में मदद मिली। अलग-अलग ग्रुपों द्वारा किए गए इन अध्ययनों का निष्कर्ष था कि केस-9 को डीएनए के किसी भी हिस्से को काटने के लिए निर्देशित किया जा सकता है। एक बार डीएनए का हिस्सा कटने पर कोशिका की कुदरती मरम्मत प्रणाली हरकत में आ जाती है और परिवर्तित जीनों या अन्य परिवर्तनों को जीन-समूह में शामिल करने के लिए काम करने लगती हैं। क्रिस्पर केस-9 तकनीक हाल के वर्षों में काफी लोकप्रिय हुई है। हार्वर्ड मेडिकल स्कूल में जेनेटिक्स के प्रोफेसर जॉर्ज चर्च का कहना है कि इस टेक्नोलॉजी का प्रयोग करना आसान है और यह पिछली जीन संपादन तकनीक (टेलेंस) से चार गुणा अधिक असरदार है।
मानव कोशिकाओं को संपादित करने के लिए क्रिस्पर केस-9 तकनीक के इस्तेमाल की पहली रिपोर्ट चर्च और ब्रॉड इंस्टीट्यूट के फंग चांग की प्रयोगशालाओं के शोधकर्ताओं ने प्रकाशित करवाई थी। मनुष्य के रोगों के जानवर मॉडलों को लेकर किए गए अध्ययनों से पता चला कि यह टेक्नोलॉजी आनुवंशिक गड़बड़ियों को दूर करने में सहायक हो सकती है। ऐसे रोगों के उदाहरणों में सिस्टिक फाइब्रोसिस और मोतियाबिंद आदि शामिल हैं। नेचर बायोटेक्नोलॉजी पत्रिका में प्रकाशित इन अध्ययनों से मनुष्यों में इस तकनीक के चिकित्सीय उपयोग का आधार तैयार हुआ। खाद्य और कृषि उद्योगों में भी क्रिस्पर टेक्नोलॉजी का उपयोग किया गया है। फसलों की पैदावार और पौष्टिक गुणों को बढ़ाने तथा उनमें सूखा झेलने की क्षमता बढ़ाने के लिए इस तकनीक का इस्तेमाल किया जा रहा है।
तकनीक की सीमाएं और खतरे
क्रिस्पर केस-9 तकनीक का अन्य संभावित उपयोग जीन ड्राइव का निर्माण है। ये ऐसे जीन सिस्टम हैं, जिनसे पैरेंट के किसी खास गुण को संतान में हस्तांतरित करने की संभावना बढ़ जाती है। अनेक पीढ़ियों में हस्तांतरित होने के बाद यह गुण समस्त आबादी में पहुंच जाएगा। जीन ड्राइव मादा मच्छरों में बांझपन बढ़ा कर मलेरिया जैसे रोगों के फैलाव को रोकने में मदद कर सकती है। बहरहाल, क्रिस्पर केस-9 तकनीक में भी खामियां हैं। इसकी सबसे बड़ी सीमा यह है कि यह सौ फीसदी कारगर नहीं है। इसके अलावा क्रिस्पर टेक्नोलॉजी के कई उपयोगों से जीनों से छेड़छाड़ के दुष्परिणाम सामने आ सकते हैं और इनके नैतिक पहलुओं पर सवाल खड़े हो सकते हैं। 2014 में साइंस पत्रिका में प्रकाशित एक लेख में ओय और उनके सहयोगियों ने जीन ड्राइव के उपयोग से पर्यावरण पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों की तरफ इशारा किया था। किसी प्रजाति में प्रविष्ट किया गया गुण दूसरी प्रजातियों में भी फैल सकता है। जीन ड्राइव से लक्षित आबादी की आनुवंशिक विविधता कम हो सकती है।
मानव भ्रूणों, शुक्राणुओं और अंडाणुओं में आनुवंशिक संशोधन को जर्मलाइन संपादन भी कहा जाता है। चूंकि इन कोशिकाओं में किए गए बदलाव दूसरी पीढ़ियों तक पहुंच सकते हैं, जर्मलाइन संपादन के लिए क्रिस्पर टेक्नोलॉजी के उपयोग से नैतिकता के सवाल खड़े होते हैं। इस तकनीक की सेफ्टी भी एक बड़ा मुद्दा है। इसके अलावा बहुत-सी चीजें आज भी वैज्ञानिक समुदाय के लिए अज्ञात है। मानव आनुवंशिकी के बारे में हमारे ज्ञान की सीमाएं हैं। एक बड़ी चिंता इस बात की है कि क्या हमें लोगों की सहमति लिए बगैर ऐसे परिवर्तन करने चाहिए, जो भावी पीढ़ियों पर बुनियादी प्रभाव डालते हों। यदि इस तकनीक का उपयोग एक चिकित्सीय साधन के बजाय विभिन्न मानव गुणों को बढ़ाने के लिए किया जाए तो क्या होगा? इन चिंताओं को देखते हुए अमेरिका की नेशनल एकेडमिज ऑफ साइंसेज, इंजीनियरिंग एंड मेडिसिन ने जीन संपादन के लिए विस्तृत रिपोर्ट और मार्गनिर्देश जारी किए थे। नेशनल एकेडमिज ने जीन संपादन में सावधानी बरतने को कहा है, लेकिन साथ ही, यह भी कहा है कि सावधानी का मतलब संपूर्ण रोक नहीं है। उसने कहा कि जीन संपादन सिर्फ उन जीनों में किया जाना चाहिए जिनसे गंभीर बीमारियां पैदा होती हों और यह तब किया जाना चाहिए जब चिकित्सा के दूसरे विकल्प उपलब्ध न हों। उसने स्वास्थ्य संबंधी जोखिमों के बारे में डेटा जुटाने और क्लिनिकल ट्रायल पर निरंतर निगरानी रखने के अलावा परिवारों पर कई पीढ़ियों तक नजर रखने की भी सिफारिश की है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और विज्ञान संबंधी विषयों के स्तंभकार हैं)