जम्मू और कश्मीर में भाजपा के युवा प्रवक्ता और सोशल मीडिया प्रमुख ठाकुर अभिजीत जसरोटिया इस बात से खफा हैं कि नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी जैसे क्षेत्रीय दलों ने नए साल के पहले दिन राजौरी में हुए हमले पर पाकिस्तान की निंदा नहीं की। इस हमले में दो बच्चों सहित छह नागरिक मारे गए थे। श्रीनगर के उच्च सुरक्षा वाले सर्किट हाउस में बैठे जसरोटिया गुस्से से पूछते हैं, “पाकिस्तान के आतंकवादियों ने नागरिकों पर हमला कर उनकी जान ले ली और क्षेत्रीय दल चुप हैं। उलटे वे कह रहे हैं कि हमें पाकिस्तान से बात करनी चाहिए। ये कौन सी राजनीति है?” वे आगे कहते हैं, “इन्हें बस असेंबली चुनाव की फिक्र है, पंचायत चुनाव और ब्लॉक चुनाव को वे चुनाव नहीं मानते। वे चाहते हैं कि पुराने दिनों की तरह यहां दो परिवारों का राज रहे, लेकिन ऐसा नहीं होगा।” भाजपा नेता नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी की निंदा करते वक्त हमेशा दो परिवारों के राज का जिक्र कर निशाना साधते हैं। उनका आशय अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवार से होता है।
जम्मू में बिगड़ते सुरक्षा हालात के बीच सियासी दल अब भाजपा के अड़ियल रवैये को संकट के लिए जिम्मेदार ठहराने लगे हैं। दूसरे सियासी दलों का मानना है कि भाजपा नहीं चाहती कि किसी चुनी हुई सरकार का शासन जम्मू और कश्मीर में हो। पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती विरोधी स्वरों में सबसे मुखर हैं। वे कहती हैं, “जम्मू और कश्मीर में फौज की भूमिका अब खत्म हो चुकी है। समय आ गया है कि अटके हुए विवादों को निपटाने के लिए सुलह-समझौते की राह पकड़ी जाए।”
यहां बीते दिनों हिंदू समुदाय के ऊपर हुए दो हमलों के चलते केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) अपनी अतिरिक्त 18 कंपनियां भेज रहा है, जिन्हें मुख्यत: पूंछ और राजौरी जिलों में तैनात किया जाएगा। महबूबा कहती हैं, “जम्मू और कश्मीर पहले से ही फौज की सघन तैनाती वाला इलाका रहा है। यहां और टुकड़ियां भेजे जाने की जरूरत नहीं है।”
लोक विरोधी तंत्रः पत्थरबाजी की घटनाएं, धरने, हड़ताल इतिहास बन चुके हैं
पूर्व पुलिस महानिदेशक एस.पी. वैद का कहना है कि राजौरी में हुए हमले “सांप्रदायिक रूप से नाजुक जम्मू क्षेत्र में स्थिति को बिगाड़ने के लिए आतंकवादी संगठनों द्वारा किया गया सुनियोजित प्रयास हैं।”
महबूबा मुफ्ती ने राजौरी में हुए हमले को कायराना हरकत कहा था, लेकिन साथ में यह भी कहा था कि भाजपा का शासन होने और “आतंकवाद खत्म करने के उसके खोखले दावे के बावजूद हिंसा लगातार जारी है।” महबूबा कहती हैं, “यदि जम्मू और कश्मीर में आज यहां के लोगों द्वारा चुनी हुई उनकी अपनी सरकार होती तो यही मीडिया उसे कोस रहा होता।”
गौरतलब है कि 2018 में उनकी सरकार को बरखास्त किए जाने के पीछे भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव रहे राम माधव ने कश्मीर में बिगड़ते सुरक्षा हालात को कारण बताया था। उन्होंने पत्रकार शुजात बुखारी की दिनदहाड़े हुई हत्या का आरोप लगाते हुए महबूबा सरकार को बरखास्त किए जाने की बात भी कही थी। उससे पहले राम माधव ने ही दोनों दलों के बीच गठबंधन कायम करवाने में अहम भूमिका निभाई थी।
तत्कालीन राज्यपाल सत्यपाल मलिक द्वारा विधानसभा भंग किए जाने के बाद नवंबर 2018 से जम्मू और कश्मीर बिना किसी चुनी हुई सरकार के है। बीते चार वर्षों में बहुत सी घटनाएं हुई हैं। मसलन, 5 अगस्त 2019 को अनुच्छेद 370 समाप्त कर दिया गया। उसके बाद से सैकड़ों कश्मीरी जेल में कैद हैं और करीब एक हजार हेबियस कॉर्पस याचिकाएं राज्य के उच्च न्यायालय में लंबित हैं। सारे अलगाववादी नेता परिदृश्य से बाहर हो चुके हैं और इनमें सबसे प्रमुख सैयद अली शाह गीलानी की मौत हो चुकी है। इस तरह कश्मीर में सियासी अलगाववाद का दौर खत्म हो चुका है। इन चार वर्षों में कानून व्यवस्था की भी कोई बड़ी गड़बड़ी सामने नहीं आई है। पत्थरबाजी की घटनाएं इतिहास बन चुकी हैं। धरने, हड़ताल और हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के दिन भी लद चुके हैं।
भाजपा को जम्मू और कश्मीर में कानून व्यवस्था की इस स्थिति पर गर्व होता है। पिछले साल फरवरी में केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने उत्तर प्रदेश में एक बयान दिया था, “वे (अखिलेश) मेरे सामने खड़े होकर बोले कि इस फैसले के कारण (अनुच्छेद 370 को हटाया जाना) खून की नदियां बहेंगी, लेकिन अखिलेश बाबू, खून की नदियां तो छोड़िए किसी को अब तक एक कंकर फेंकने तक की हिम्मत नहीं हुई है।” इसके बावजूद भाजपा यहां चुनाव नहीं करवा रही है।
पिछले कुछ साल से भाजपा के नेता लगातार कह रहे हैं कि जम्मू और कश्मीर में चुनाव तब होगा जब परिसीमन आयोग अपना काम पूरा कर रिपोर्ट सौंप देगा। पिछले साल 6 मई को परिसीमन आयोग ने दो साल तक चली अपनी कवायद को अंजाम देते हुए जम्मू क्षेत्र में छह और कश्मीर घाटी में एक अतिरिक्त विधानसभा क्षेत्र के गठन की सिफारिश की थी। कश्मीर के राजनीतिक दलों ने इस रिपोर्ट की निंदा की थी और इसे कश्मीरियों को कमजोर करने का कदम करार दिया था। इसके बावजूद सबको यह उम्मीद थी कि परिसीमन के बाद 2022 में विधानसभा चुनाव करवा दिया जाएगा, लेकिन साल गुजर गया और चुनाव आयोग सोता रहा।
राजभवन की सत्ताः महबूबा मुफ्ती, राज्यपाल मनोज सिन्हा और फारूक अब्दुल्ला (बाएं से दाएं)
पीडीपी ‘कश्मीर के व्यापक मसले पर संवाद की बात लगातार कर रही है, तो दूसरे सियासी दल, खासकर नेशनल कॉन्फ्रेंस चुनाव की मांग कर रहे हैं क्योंकि उन्हें इसमें चमकदार संभावनाएं दिखती हैं। महबूबा ने कहा है कि भारत सरकार को बातचीत की प्रक्रिया में आगे आना चाहिए। उनका कहना है, “शीर्ष पर बैठे फौज के लोगों ने भी कई बार कहा है कि जम्मू और कश्मीर का मसला सैन्य तरीके से हल नहीं हो सकता बल्कि अस्थिरता को समाप्त करने के लिए सियासी हल की जरूरत है। भाजपा अपने सियासी एजेंडे को पूरा करने के लिए सेना के कंधे पर रखकर बंदूक चला रही है। भाजपा आखिर कश्मीर पर बातचीत से क्यों भाग रही है। जिस चीन ने न सिर्फ लद्दाख में हमारी जमीनंल कब्जाईं बल्कि अतीत में जिसके हाथों हमारे दर्जनों फौजी शहीद हुए, उसके साथ वे बातचीत क्यों कर रहे हैं। जब चीन के साथ बातचीत हो सकती है तो भारत सरकार कश्मीर मसले पर इससे क्यों बच रही है?”
नेशनल कॉन्फ्रेंस याद दिलाती है कि भाजपा लगातार कहती रही है कि अनुच्छेद 370 के खात्मे के बाद वह कश्मीर को देश के दूसरे राज्यों के बराबर बरतेगी। नेशनल कॉन्फ्रेंस के वरिष्ठ नेता और प्रवक्ता तनवीर सादिक पूछते हैं, “वे हर राज्य में चुनाव करवा रहे हैं, फिर कश्मीर को इससे बाहर क्यों रखा जा रहा है? अगर पंचायत चुनाव और डीडीसी चुनाव इतने ही अहम हैं तो भाजपा देश भर की विधानसभाओं को खत्म करे और पंचायती मॉडल को अपना ले।” वे कहते हैं कि उन्हें कोई दिक्कत नहीं है यदि राज्य में भाजपा की ही चुनी हुई सरकार आ जाए लेकिन “राज्यपाल के शासन को चुनी हुई सरकार के शासन के तौर पर भाजपा नहीं बरत सकती। इससे एक मतदाता के तौर पर मैं अपने अधिकार से वंचित होता हूं और त्रासदी यह है कि भारत का निर्वाचन आयोग सब कुछ चुपचाप देख रहा है।”
जम्मू और कश्मीर कांग्रेस की प्रवक्ता दीपिका पुष्कर नाथ इस बात से सहमत हैं। वे कहती हैं, “जम्मू-कश्मीर में जनता के अधिकारों और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को बहाल क्यों नहीं किया जाना चाहिए। मोदी सरकार के एकतरफा फैसले ने यहां के लोकतांत्रिक ढांचे और जनता के अधिकार को जब 2019 में खत्म किया, तब से ही हमसे विकास, रोजगार और निवेश का वादा किया जा रहा है। तीन साल बीत गए और आज तक ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है। हत्याएं, प्रशासनिक उदासीनता और बेरोजगारी रोजमर्रा की बात हो चुकी है। लोगों को अधिकार है कि उन्हें एक चुनी हुई मिले।”
जम्मू और कश्मीर में फिलहाल सब कुछ भाजपा के पाले में है। भाजपा दो विरोधी बातें एक साथ कहती है और उस पर कोई सवाल खड़ा नहीं हो पाता। पार्टी एक ओर कहती है कि अनुच्छेद 370 खत्म किए जाने के बाद से राज्य में सुरक्षा, विकास और शांति लौट आई है। दूसरी ओर वह दलील देती है कि सुरक्षा हालात सुधरने तक चुनाव रोके रखे जा सकते हैं।
यह साल हालांकि जम्मू और कश्मीर के लिए अहम होगा क्योंकि हर दल इसी उम्मीद में है कि चुनाव आयोग यहां विधानसभा चुनाव का ऐलान करेगा। इस ऐलान से जम्मू् और कश्मीर में एक नई राजनीतिक प्रक्रिया का आगाज होगा। फिर भी चारों तरफ संदेह का माहौल कायम है। नाम न छापने की शर्त पर एक नेता कहते हैं, “भाजपा यहां चुनाव करा कर सत्ता हाथ से निकलने नहीं देगी। कम से कम कश्मीर में उसका एजेंडा अब भी अधूरा है। कश्मीर की जमीन पर उसकी निगाह है। वह कश्मीर को एक पहाड़ी राज्य बनाकर छोड़ना चाहती है। यही हकीकत है और यह बात हर किसी को मालूम है।”