बीसवीं शताब्दी के अग्रणी हंगेरियन साहित्यकार नेमेथ लास्लो (1901-1975) अपनी ‘गांधी की नाट्य डायरी’ में गांधी को इस तरह दर्ज करते हैं, “गांधी न केवल आजादी के योद्धा थे, बल्कि वे साक्षात सत्याग्रह भी थे। राजनीति में सत्य से प्रेम का प्रवेश उन्होंने कराया और अपनी पावन या साधुता की मासूमियत से अत्यंत क्रूर नियति को, मानव स्वभाव को खुद अपने विरुद्ध भड़का दिया।” इस डायरी का संक्षिप्त सारांश नाटक के अंत में दिया गया है। वास्तव में यह डायरी इस नाटक की रचना-प्रक्रिया का महत्वपूर्ण दस्तावेज है।
नेमेथ लास्लो के गांधी की मृत्यु नाटक में भारत का विभाजन सांप्रदायिक उन्माद से अधिक स्वतंत्रता संग्राम के हिंदू-मुस्लिम नेताओं के अंतर्विरोधों और लार्ड माउंटबेटन की कूटनीति का परिणाम दिखता है।
नेमेथ लास्लो ने फ्रांसीसी भाषा में गांधी के लेख और उनकी आत्मकथा पढ़ी थी। हंगरी में फासीवाद के प्रसार और जर्मन आधिपत्य के दौरान लास्लो की गांधी पर लिखने की लालसा प्रबल हो उठी थी। वे अपने देश हंगरी के अनुभवों के आधार पर कहते हैं, “अल्पसंख्यकों का जीवन एक पौधे की तरह है जबकि बहुसंख्यक राष्ट्र एक शिकारी जैसा होता है।”
नेमेथ लास्लो चौरीचौरा की घटना के संदर्भ में गांधी के अंतर्मन को टटोलते हुए कहते हैं, “भारत की जनता अभी इतनी प्रौढ़ नहीं है कि आत्मा की बगावत पूरी कर सके, अहिंसा अभी महज एक शब्द मात्र है, अपनी शक्तिहीनता का एक अनिच्छापूर्ण नारा मात्र। इसके पीछे प्रतिशोध की अंधलिप्सा अपनी प्यास बुझाने की फिराक मंे है, और यह लिप्सा, यह बंद पड़ी हुई एक मशीन को चलाने की चिंगारी, भारत के निवासियों को जाने कहां ले जाएगी...लिहाजा, वे विस्फोट के कगार पर खड़े आंदोलन (चौरीचौरा) को रोक देते हैं...बौखलाए हुए राष्ट्रवाद पर वे जंजीरें डाल देते हैं।”
आज हमारा देश “बौखलाए हुए राष्ट्रवाद” पर एक बार फिर सवार हो गया है। वर्तमान में गांधी के समय का पाकिस्तान और सांप्रदायिकता एक नई भूमिका में पुनः देश के अंतर्मन पर छा जाने को आतुर है। ऐसे समय में नेमेथ लास्लो का हंगेरियन नाटक हमारी अपनी भाषा मंे हमसे ही साक्षात्कार करता हुआ हमें कुछ बोलने पर विवश करता है।
गांधी की मृत्यु नाटक के तेरह दृश्य गांधी हत्या के ऐन पहले के वर्ष से जुड़े हैं। इस नाटक का पहला दृश्य ही नई दिल्ली में वाल्मीकि बस्ती की पृष्ठभूमि पर रचा हुआ है। यहां गांधी और फिशर का संवाद पत्रकारिता पर भी कुछ टिप्पणियों से समकालीन हो उठता है। फिशर एक प्रश्न के उत्तर में कहते हैं, “जो भी हो, ‘छपते-छपते’ वाली खबरों से मुझे कुछ लेना-देना नहीं है।” आज हमारा पूरा देश ही ‘छपते-छपते’ वाली खबरों से बौराया-सा है। अब तो इससे आगे अनछपे का छपना संकट में है। अखबारों और आज इसके व्यापक स्वरूप मीडिया का ढिंढोरा पीटना ही एक नया धंधा बन गया है। दूसरे दृश्य में वाल्मीकि बस्ती में कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक है। इसमंे बंगाल हिंसा पर विचार मंथन चल रहा है। यहां हमारा सामना नेहरू, पटेल, राजा जी, कृपलानी, प्यारेलाल, मनु और नोआखाली के प्रदर्शनकारियों से होता है।
गांधी कहते हैं, “मुझे नोआखाली जाना ही है। भाई-भाई की हत्या वाले उस नरक में।” वे आगे कहते हैं, “इधर दिल्ली में और हिंदुस्तान के महानगरों में जहां राजनीतिक बसते हैं, वहां हिंदुस्तान के टुकड़े करने की बातें हो रही हैं।” गांधी इस व्यथा को नाटक में कई स्थानों पर अभिव्यक्त करते हैं।
तीसरे दृश्य में नोआखाली है। गांधी कहते हैं, “मैं हिंदू या मुसलमान की नहीं, पाप की तलाशी में निकला हूं।” नेमेथ लास्लो के संवाद उनके एक बड़ा लेखक होने को बार-बार सिद्ध करते हैं। गांधी कहते हैं, “मुझे डायोनिजीस की तरह नहीं भटकना पड़ेगा। वो यूनानी संत दिन के उजाले में भी कंदील उठाए पूरे शहर में घूमता फिर रहा था। लोग-बाग जब पूछते, ‘क्या खोज रहे हो? तो वह जवाब देता - ‘इन्सान’!”
दृश्य छह नई दिल्ली में वायसराय महल में एक हाल का है। इसमें लार्ड माउंटबेटन और लेडी माउंटबेटन का किसी षड्यंत्रकारी-दंपती के रूप में चरित्र उभरता है। अपने पति के विभाजनकारी मिशन को पूरा करने के लिए लेडी माउंटबेटन भारत के नेताओं को अपने वाग्जाल में फंसाती दिखती हैं। स्वयं माउंटबेटन जिन्ना को विभाजन के लिए उकसाते हैं।
सातवां दृश्य बंगाल के पूर्व प्रधानमंत्री सुहरावर्दी के घर में एक बड़े हाल का है। यहां प्यारेलाल, मनु, बीबीसी रिपोर्टर और सुहरावर्दी हैं। इसमें सबसे उल्लेखनीय वह अंश है जब नेहरू आजादी के बाद प्रधानमंत्री के रूप में रेडियो पर देश को संबोधित कर रहे हैं। गांधी कहते हैं, “मगर आज इस हर्ष उल्लास के परे, हमने जो किया है - जब मुझे उन लाखों हजारों उखड़े हुए दिलों का ख्याल आता है- उस पर चक्कर आ रहा है।” गांधी के इस संवाद के साथ स्वतंत्र हुए देश का पहला खंड समाप्त होता है।
नाटक के द्वितीय खंड के दसवें दृश्य में गांधी बिड़ला हाउस में हैं। कृपलानी कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना चाहते हैं और गांधी उनसे कहते हैं, “मैं आपकी बात समझता हूं। आपके जैसे नफीस मिजाज वाला दलालों और कालाबाजारियों का अध्यक्ष नहीं हो सकता।”
नेमेथ लास्लो की विशेषता है कि वे देश की राजनीति पर सीधे कोई टिप्पणी नहीं कर, उसे गांधी से जुड़ी चर्चा का विषय बनाते हैं। हम देखते हैं कि गांधी स्वतंत्रता मिलने के बाद अपने को अधिक अकेला और अधिक असहाय पाते हैं। यहीं यह प्रश्न भी उठना चाहिए कि ‘गांधी की मृत्यु’ का अर्थ केवल गांधी की ‘भौतिक देह’ का अवसान हो जाना ही नहीं था।
नाटक का तेरहवां और अंतिम दृश्य। कमरे में गांधी और पटेल बातचीत कर रहे हैं। मनु प्रकट होती हैं और गांधी जी दोनों लड़कियों का सहारा लेकर सीढ़ी से उतरने लगते हैं। कमरे में कृपलानी और प्यारेलाल बातचीत कर रहे हैं, उसी क्षण तीन गोलियों की आवाज ...। लोग गांधी जी का शव लेकर अंदर आते हैं। मनु कहती हैं, “उन्होंने बस इतना कहा: हे राम! और जमीन पर गिर पड़े।”
हिंदी में यह नाटक गांधी के विदेशी भाषाओं में हुए अनुवाद की ही लीला है। विदेशी परंपरा और संस्कृति के आस्वाद से यह नाटक और अधिक संवेदनशील हो उठता है। नाटक के अनुवादक गिरधर राठी और 1983 से दिल्ली विश्वविद्यालय में हंगेरियन भाषा की विजिटिंग प्राध्यापक डॉ. मारगित कौवेश का यह अनुवाद हिंदी भाषा में अनुवादों के मुकुट में एक मोरपंख की तरह सुशोभित हुआ है।