देश का किसान और कृषि क्षेत्र इस समय चर्चा और बहस के केंद्र में है। किसान की आर्थिक और सामाजिक हालत में बदलाव आज सबसे जरूरी मुद्दा है। भले ही हमारी सरकारें किसानों को प्राथमिकता देने के दावे करती रही हों लेकिन यह अर्धसत्य ही है। सरकारों के दावे सच होते तो किसान को संकट से उबारने के लिए इतनी ज्यादा चर्चाओं, आंदोलन और राजनैतिक पैंतरेबाजी की जरूरत नहीं पड़ती। इसी पृष्ठभूमि में आउटलुक ने किसानों, नेताओं, नीति-नियंताओं और विशेषज्ञों को एक मंच पर लाने का प्रयास किया, जो आउटलुक एग्रीकल्चर कॉन्क्लेव के रूप में सामने आया। देश के विभिन्न हिस्सों से आये किसानों और नीति-निर्धारकों तथा विशेषज्ञों को रूबरू कराने के इस प्रयास का मूल मकसद था किसानों की आर्थिक और सामाजिक स्थिति में बदलाव के विकल्पों पर बात करना, उनके सामने कुछ कामयाब उदाहरण रखना ताकि वे उन लोगों से प्रेरणा ले सकें, जिन्होंने वाकई खेती या उससे जुड़े कामकाज को मुनाफे की दिशा में मोड़ा है।
असल में किसानों के संकट का हल निकालने का जिम्मा सरकार और नीति-निर्धारकों का तो है ही, इसमें किसानों की सक्रिय भागीदारी की भी उतनी ही अहमियत है। इस समय देश के कृषि संकट के तात्कालिक हल के लिए कर्जमाफी को एक कारगर उपाय की तरह पेश किया जा रहा है। राज्य दर राज्य सरकारें किसानों की कर्जमाफी के फैसले ले रही हैं। 11 दिसंबर को आए पांच राज्य विधानसभाओं के चुनाव नतीजों ने इस प्रक्रिया को तेज कर दिया है। इनमें तीन राज्यों में कांग्रेस की सरकारें बनने के कुछ घंटों के भीतर ही किसानों की कर्जमाफी के फैसले ले लिए गए। थोड़ा पीछे जाएं तो उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार ने भी पहली कैबिनेट बैठक में किसानों की कर्जमाफी का फैसला किया था। उसके बाद महाराष्ट्र, पंजाब, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना में किसान कर्जमाफी के फैसले किए गए।
कर्जमाफी का आंकड़ा दो लाख करोड़ रुपये के करीब पहुंच गया है। ऐसे में कुछ अर्थविद, बैंकर और कॉरपोरेट जगत के लोग कर्जमाफी को देश की अर्थव्यवस्था और वित्तीय अनुसाशन के खिलाफ बताने लगे हैं। बहस जारी है। किसान संगठन भी दो मुद्दों पर आंदोलन कर रहे हैं। एक, कर्जमाफी, और दूसरा, मुनाफे वाला समर्थन मूल्य। तर्क-वितर्क के इस माहौल में जो बात सबको स्वीकार्य है, वह है, किसानों की फसलों का वाजिब दाम ही उनको वित्तीय संकट के दुश्चक्र से निकाल सकता है। राज्य विधानसभा चुनावों के नतीजों के बाद के माहौल में 15 दिसंबर को आयोजित आउटलुक एग्रीकल्चर कॉनक्लेव के लिए एक ऐसे विषय का चुनाव किया गया जो कुछ हद तक संकट के हल की राहें खोलता है। वह है किसानों के सशक्तीकरण में सहकारिता और फार्मर प्रोड्यूसर ऑर्गनाइजेशन यानी एफपीओ की भूमिका। इस मंच पर देश के सहकारिता जगत के दिग्गज, विशेषज्ञ, नीति-निर्धारक और किसान एक-दूसरे से रूबरू हुए। सभी इस बात पर एकमत थे कि किसानों को बाजार पर अधिकार दिया जाए तो वह अपनी फसल का वाजिब दाम हासिल कर सकता है। इसका रास्ता है संगठित रूप से कारोबारी के रूप में काम करना और उसके लिए सहकारिता को अपनाना। जहां यह संभव नहीं है, वहां संगठित होकर काम करने के लिए एफपीओ स्थापित करने के विकल्प को अपनाया जा सकता है। ये दोनों विकल्प किसानों को थोक में इनपुट उत्पाद खरीदने की शक्ति तो देते ही हैं, बेहतर प्रबंधन और सही समय पर बाजार में अपनी उपज बेचने की क्षमता भी तैयार करते हैं जो सीधे उपभोक्ताओं तक पहुंच बनाकर अधिकांश मुनाफा कमा सकते हैं।
दिलचस्प बात यह है कि कर्जमाफी को किसान संगठन भी तात्कालिक राहत ही मान रहे हैं। किसानों की आय में बढ़ोतरी ही समस्या का असली हल है। जाहिर है, हमें किसानों को उस स्थिति में ले जाना जरूरी है, जहां उन्हें कर्ज की जरूरत कम से कम पड़े।
कॉनक्लेव में एक पैनल चर्चा में दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी सहकारी संस्था अमूल के प्रबंध निदेशक आर.एस. सोढ़ी एक बेहतर उदाहरण रखते हैं। वे कहते हैं कि पिछले तीन-चार साल में देश और दुनिया में दूध की कीमतों में भारी गिरावट आई है लेकिन डेयरी कंपनियों का मुनाफा रिकार्ड स्तर पर पहुंच गया। इसे समझना कोई मुश्किल काम नहीं है, कंपनियों ने किसानों के लिए दूध के दाम घटा दिए और अपने उत्पादों के दाम पुराने स्तर पर ही बरकार रखे। लेकिन इसके उलट अमूल ने उत्पादों की कमाई का 80 से 82 फीसदी हिस्सा अपने किसानों को दिया। यह इसलिए संभव हुआ क्योंकि किसान ही अमूल यानी गुजरात कोऑपरेटिव मिल्क मार्केटिंग फेडरेशन (जीसीएमएमएफ) के मालिक हैं। इस तरह के उदाहरण देश के और हिस्सों में, और उत्पादों के मामले में भी मौजूद हैं। कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (सीएसीपी) के पूर्व चेयरमैन और देश के जाने-माने कृषि अर्थशास्त्री डॉ. टी. हक भी मानते हैं कि विकल्प तो सहकारिता या एफपीओ ही है लेकिन पारदर्शिता और ईमानदार नेतृत्व की दरकार है। सहकारी संस्थाओं में, बड़ी संख्या में भ्रष्टाचार और उनके राजनैतिक दोहन से लोगों का भरोसा टूटा है।
केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री राधा मोहन सिंह भी सहकारिता को किसानों के लिए सबसे बेहतर विकल्प बताते हैं। लेकिन उनका कहना है कि सहकारी संस्थाओं का नेतृत्व सच्चा और ईमानदार होना चाहिए। उद्घाटन समारोह, दो पैनल चर्चा, विशेषज्ञों की प्रस्तुति, किसानों की भागीदारी और खुद केंद्रीय कृषि मंत्री के संबोधन के साथ दिन भर के कॉनक्लेव में यह बात साफ होती दिखी कि किसानों को आंत्रप्रन्योर के रूप में बदलकर और खेती को बिजनेस की तरह देखने से ही इस क्षेत्र की स्थिति को बदला जा सकता है।