स्टेन स्वामी
(26 अप्रैल 1937-5 जुलाई 2021)
हर रोज की तरह आज भी पुष्पी ने कमरा साफ किया। एक तरफ बेड पर मसहरी लगी है। टेबुल पर दस्तावेज, पत्रिकाएं हैं। वह कोई पांच साल से यह कर रही है। तब भी जब 8 अक्टूबर 2020 को भीमा कोरेगांव मामले में फादर को एनाआइए की टीम पकड़ कर ले गई थी। स्टेन स्वामी यहां नहीं थे। इंतजार था, क्या पता कब वापस आ जाएं। मगर अब पुष्पी का इंतजार पूरा नहीं होने वाला। फादर अब कभी नहीं आएंगे। मुकम्मल इलाज के अभाव में अस्पताल (न्यायिक हिरासत) में उनकी मौत हो गई। वजह कोई बीमारी बता रहा है तो उनको चाहने वाले इसे संस्थागत हत्या का नाम दे रहे हैं।
स्टेन स्वामी के न रहने की खबर से पुष्पी कच्छप नि:शब्द है। उसे याद है जब उसे खाना बनाना ठीक से नहीं आता था, फादर ने सिखाया था। कभी चूक भी हो जाती तो नाराज होने के बदले प्यार से उसे समझाते, सिखाते। उनके व्यवहार और संघर्ष का ही नतीजा है कि पुष्पी की तरह आदिवासियों, वंचितों के साथ अनेक सुपठित लोगों की बड़ी आबादी उनकी अंधभक्त जैसी है। क्या जवान, क्या बुजुर्ग। बाहर मुख्य सड़क पर खड़े सुदेश को यह भान नहीं था कि कोई इतना बड़ा आदमी यहां रहता था जिसकी मौत पर मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन, कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी से लेकर संयुक्त राष्ट्र की विशेष प्रतिनिधि मेरी लॉवलोर ने शोक जाहिर किया।
उनके चले जाने की खबर से बगईचा शोक में है। हाते में एक तरफ भगवान बिरसा की प्रतिमा खामोश है। पत्थलगड़ी की शिला भी बुत बनी हुई है। ये शिलालेख 1831 के महान कोल विद्रोह के सिंगराय और विंदराय, 1880 की स्वतंत्रता की लड़ाई के तेलंगा खडि़या (चंदाली, सोसो, गुमला गोलीकांड), 1858 के स्वतंत्रता संग्राम के शेख भिखारी, 1859 के संग्राम के नीलांबर और पीतांबर की शहादत से लेकर 2016 में बुंडू पुलिस अत्याचार जैसी कई घटनाओं की याद दिला रहे हैं। पूरा परिसर ही आदिवासियों की संस्कृति और संघर्ष को याद दिलाने वाला ‘स्कूल’ है।
फादर स्टेन स्वामी अब यहां सदेह नहीं होंगे मगर उनके सपने यहां बरकरार हैं, दूसरों की आंखों में। रांची शहर के किनारे नामकुम एटीएस (एग्रीकल्चर ट्रेनिंग सेंटर) के हाते में ही बगईचा है। स्टेन स्वामी के सपनों का बगईचा। इसी में उनका एक कमरा भी है। इस बगईचा नामक स्वयंसेवी संस्था की नींव 2006 में उन्होंने रखी थी। यहां स्किल डेवलपमेंट की ट्रेनिंग मिलती रही। हजारों किताबें, रिकॉर्ड हैं जिनका इस्तेमाल अध्ययन, शोध और प्रशिक्षण के लिए किया जाता रहा।
तमिलनाडु के त्रिचिर में 26 अप्रैल 1937 को जन्मे स्वामी के पिता किसान और मां गृहिणी थीं। मई 1957 में जेसुइट बने। उसके बाद गरीबों, वंचितों की आवाज बन गए। लगा कि झारखंड काम करने की मुफीद जगह है, यहां के लोगों को उनकी जरूरत है तो करीब 28 साल की उम्र में 1965 में झारखंड के चाईबासा चले आए। 1970 में फिलिपींस के मनीला से समाज-शास्त्र की पढ़ाई पूरी की। आगे पढ़ाई के सिलसिले में ब्राजील गए, जहां कैथोलिक आर्कबिशप को गरीबों के बीच काम करते हुए देख बड़े प्रभावित हुए। मन में काम का सपना लेकर कोल्हान इलाके में आए। आदिवासियों के साथ उनके गांव में रहे, उनके जीवन दर्शन और समस्याओं से अवगत हुए। 1974 में पीएचडी करने बेल्जियम गए। वहां से लौटकर भारतीय सामाजिक शोध संस्थान के निदेशक के रूप में बेंगलूरू में करीब डेढ़ दशक तक रहे।
1991 में वे स्थायी रूप से वापस झारखंड (तत्कालीन बिहार) आ गए। प्रारंभ में पादरी बने। करीब एक दशक तक चाईबासा में आदिवासी अधिकारों पर काम किया। मानवाधिकार, भूमि अधिग्रहण के खिलाफ आवाज उठाई। बांध, खदान, उद्योगों के लिए जबरिया जमीन अधिग्रहण के खिलाफ आदिवासियों को एकजुट किया। उनकी आवाज बने। विस्थापन की समस्या क्यों है, उनके मामले में कानून का पालन हो रहा है या नहीं, क्या कदम उठाने की जरूरत है, इन मसलों पर जागरूकता पैदा करने के साथ अदालतों से न्याय दिलाने की दिशा में लगातार संघर्षरत रहते। माओवादी के नाम पर गलत तरीके से जेलों में बंद हजारों लोगों के लिए लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी। ऑपरेशन ग्रीनहंट में माओवादियों के नाम पर आदिवासियों के दमन के खिलाफ जंगलों में जाकर उन्होंने आवाज उठाई। भाजपा की रघुवर सरकार के समय सीएनटी-एसपीटी कानून और भूमि अधिग्रहण कानून में किए गए संशोधन का उन्होंने खुलकर विरोध किया। पांचवीं अनुसूची और पेसा कानून के क्रियान्वयन को लेकर वे लगातार अभियान चलाते रहे। इस कारण पूर्ववर्ती भाजपा सरकार उन्हें अच्छी नजर से नहीं देखती थी।
नामकुम बगईचा संघर्ष के लिए प्रशिक्षण और अधिकार दिलाने का बड़ा केंद्र माना जाता है। जमीन अधिग्रहण, माओवादी के नाम पर दमन के खिलाफ योजना बनाने के साथ-साथ गरीबों से जुड़ी योजनाएं जैसे भोजन का अधिकार, मनरेगा, सामाजिक सुरक्षा योजनाओं का लोगों को कैसे लाभ मिले, इसके लिए प्रशिक्षण, महिलाओं, आदिवासियों में नेतृत्व विकास की ट्रेनिंग का बगईचा बड़ा केंद्र रहा है। स्टेन स्वामी के सपनों का बगईचा उनके चले जाने के बाद कितना पुष्पित-पल्लवित हो पाएगा, यह उनके उत्तराधिकारियों पर निर्भर है।