हर साल भारत में बनने वाली हजारों फिल्मों में भोजन संस्कृति पर केंद्रित फिल्में न के बराबर हैं। हिंदी सिनेमा में रेस्तरां, ढाबों और पांच सितारा होटलों की उपस्थिति तो दिखाई देती है, लेकिन वहां भोजन सिर्फ परिदृश्य के रूप में इस्तेमाल होता है, संस्कृति के वाहक के रूप में नहीं। मसलन, अक्टूबर में नायक का रेस्तरां खोलने का सपना कथा का एक भाग भर है, प्रमुख कथानक प्रेम कहानी है। इसी तरह, 26/11 के आतंकवादी हमलों पर आधारित फिल्म होटल मुंबई विषय की वजह से होटल को केंद्र में तो रखती है, पर भोजन संस्कृति से उसका कोई प्रत्यक्ष संबंध स्थापित नहीं होता। यह संकेत है कि भारतीय सिनेमा में भोजन को सांस्कृतिक विमर्श का विषय बनाने की परंपरा अब भी विकसित नहीं हो सकी है। खैर, बॉलीवुड में भोजन संस्कृति को चिन्हित करने वाली कुछ फिल्में और वेब सीरीज हैं। जैसे खाने की खुशबू से सजी नेटफ्लिक्स की सीरीज किलर सूप अच्छी मर्डर मिस्ट्री है, लेकिन इसके भीतर रेस्टोरे के सपनों और संघर्ष की आंच भी पकती रहती है, जिसे कोंकणा सेन और मनोज बाजपेयी ने बखूबी निभाया है। ऋषि कपूर के अभिनय वाली अंतिम फिल्म शर्माजी नमकीन बुजुर्ग पिता के जीवन को नया अर्थ देती है। रिटायरमेंट के बाद वह रसोई की दुनिया में अपनी पहचान ढूंढ लेता है। शेफ में सैफ अली खान का किरदार अपने बेटे और परिवार से टूटी हुई डोर को जोड़ने के लिए खाना पकाने और फूड ट्रक की संस्कृति को अपनाता है। भोजन की विरासत को याद करती फिल्म लव शबनम ते चिकन खुराना पंजाबी स्वाद की महक के साथ दादा की खोई हुई रेसिपी तलाशने की कहानी कहती है। स्टेनली का डब्बा मासूम बच्चे की भूख, स्कूल और रिश्तों की नमी को पेश करती है, तो चीनी कम में अमिताभ बच्चन और तब्बू की अनोखी प्रेमकथा हैदराबादी पुलाव की खुशबू से शुरू होकर पीढ़ियों की दूरी को पाटती है।
लंच बॉक्स फिल्म के एक दृश्य में इरफान खान
इंग्लिश विंग्लिश साधारण गृहिणी की आत्म-सम्मान यात्रा है, जहां अंग्रेजी सीखने के साथ-साथ लड्डू और मिठाइयां भी उसके व्यक्तित्व का हिस्सा बनते हैं। तुम्बाड अनाज और भोजन को लालच का प्रतीक बनाकर लोककथा और सांस्कृतिक भयावहता का अनूठा रूप रचती है। अगर कुछ और पीछे जाएं, तो ऋषिकेश मुखर्जी की बावर्ची भोजन को परिवार की बिखरी हुई डोर जोड़ने का सूत्र बना देती है। बहुत थोड़ा ही सही मगर भारतीय सिनेमा में भोजन और कहानियों का रिश्ता बेहद आत्मीय और बहुरंगी रहा है। कभी यह रिश्तों को जोड़ने वाला माध्यम बनता है, तो कभी जीवन की जटिलताओं और संवेदनाओं को समझाने का जरिया।
लंच बॉक्स में इरफान खान और नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने उस दुर्लभ ठहराव को जीवंत किया है, जहां डिब्बे में रखा साधारण खाना दो अनजान आत्माओं को जोड़ देता है और चुपचाप चिट्ठियों का सिलसिला प्यारी-सी प्रेम कहानी में बदल जाता है। तरला में हुमा कुरैशी, भारत की पहली महिला शेफ तरला दलाल के जीवन को पर्दे पर उतारती हैं और दिखाती हैं कि कैसे पाक-कला किसी स्त्री के लिए सशक्तिकरण की भाषा भी हो सकती है। इसी क्रम में हमें भारतीय क्षेत्रीय सिनेमा की सराहना करनी चाहिए, क्योंकि इस मामले में यहां वाकई बहुत उत्कृष्ट काम हुआ है। क्षेत्रीय सिनेमा ने कई बार यह दिखाया है कि भोजन केवल स्वाद या परंपरा नहीं, बल्कि जीवन-दर्शन, रिश्तों और समाज की संरचना से गहराई तक जुड़ा हुआ है।
शर्मा जी नमकीन में ऋषि कपूर
मलयालम फिल्म द ग्रेट इंडियन किचन घरेलू स्त्री के जीवन और रसोई की दिनचर्या को केरल की भोजन संस्कृति और पितृसत्ता से जोड़ते हुए तीखा प्रहार करती है, तो वहीं सॉल्ट एन पेपर खाने और रेडियो कार्यक्रम के माध्यम से दो अनजान लोगों की दोस्ती और व्यंजन परंपरा की आत्मीयता को सामने लाती है। तमिल थ्रिलर ओनायुम आटुकुट्टियुम अपने कथानक में दक्षिण भारत में रात में चलने वाले टी-स्टॉल संस्कृति को पिरोती है, जबकि असमिया फिल्म आमिष खानपान की असामान्य परंपराओं के जरिए सामाजिक वर्जनाओं और मानव-स्वभाव की गहराइयों को उजागर करती है। गुलाबजाम महाराष्ट्रीयन पाक-कला और मिठाइयों के माध्यम से गुरु–शिष्य संबंध की संवेदनशीलता को प्रस्तुत करती है, भोजपुरी सिनेमा सहित कई अन्य क्षेत्रीय फिल्में भोज, दावत और थाली संस्कृति को सामाजिक रीतियों और सामूहिक जीवन से जोड़ती रही हैं। जबकि उस्ताद होटल, बिरयानी, आतिथ्य और पारिवारिक रिश्तों के जरिए जीवन-दर्शन सिखाती है। अंगमाली डायरीज स्थानीय व्यंजनों के माध्यम से छोटे शहर की सांस्कृतिक पहचान को प्रामाणिकता से चित्रित करती है। कड़वी हवा जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से बदलती भोजन संस्कृति और किसान जीवन की त्रासदी को मार्मिक ढंग से सामने रखती है।
स्टेलने का डिब्बा
विश्व सिनेमा की बात करें, तो इस संदर्भ में उनका दायरा कहीं अधिक व्यापक हो जाता है। कोरियाई सिनेमा में भोजन और संस्कृति का गहरा संगम देखने को मिलता है। कभी यह व्यंजन किसी राष्ट्र की पहचान और सांस्कृतिक धरोहर के रूप में सामने आते हैं, तो कभी एक युवती के गांव लौटकर पारंपरिक और मौसमी भोजन बनाने की आत्मीयता में झलकते हैं। कहीं रहस्यमयी व्यंजन की खोज, स्वाद, सुगंध और स्मृतियों को जोड़ती है, तो कहीं बेकरी और मिठाइयों के जरिए रिश्तों की परतें खुलती हैं। कभी यह व्यंजन प्रतियोगिता और मेलजोल का प्रतीक बनते हैं, तो कभी जीवन की सरलता और भावनाओं का आईना। इस तरह भोजन सिर्फ स्वाद तक सीमित नहीं रहता, बल्कि संस्कृति, स्मृतियों और रिश्तों का गहरा रूपक बन जाता है।
हॉलीवुड के सिनेमा में भोजन केवल स्वाद की अनुभूति नहीं, बल्कि जीवन और समाज के जटिल ताने-बाने का रूपक बनकर उभरता है। डिनर रश फिल्म में न्यूयॉर्क का रेस्टोरेंट महज व्यंजन परोसने की जगह नहीं, बल्कि शक्ति और पहचान के संघर्ष का रंगमंच है, जहां इटैलियन परंपरा और आधुनिक प्रवृत्तियां आमने-सामने खड़ी हैं। द मेन्यू फिल्म भोजन को कला और उपभोग की पराकाष्ठा बनाते हुए यह प्रश्न उठाती है कि क्या स्वाद का चरम अंततः विनाश का आह्वान करता है, यहां हर डिश एक नाटक है और हर मेहमान अपनी नैतिक शून्यता का उद्घाटन। इसके बरक्स वेटिंग फिल्म का रेस्टोरेंट अमेरिकी मध्यमवर्गीय जीवन का व्यंग्यचित्र है, जहां श्रमिकों की असुरक्षा और उपभोक्ता का दंभ भोजन को एक सामाजिक प्रयोगशाला का विषय बना देता है। फिल्म बर्न्ट भोजन को आत्ममुक्ति और पुनर्जन्म का प्रतीक मानती है। मिशेलिन स्टार की खोज यहां आधुनिक मिथक का रूप लेकर कला, श्रम और प्रतिस्पर्धा को त्रासदीपूर्ण यात्रा में बदल देती है। वहीं द हंड्रेड-फुट जर्नी भारतीय मसालों और फ्रांसीसी व्यंजनों के बीच की सौ फुट दूरी को संस्कृतियों के संवाद और सह-अस्तित्व के पुल में रूपांतरित कर देती है।
एक रोचक तथ्य यह भी है कि इस फिल्म में महान कलाकार ओम पुरी का अभिनय देखने लायक है। कुछ फिल्में फ्रांसीसी भोजन संस्कृति और अमेरिकी जीवन शैली के मेल को दर्शाती हैं, तो कुछ आधुनिक फूड ट्रक संस्कृति और परिवारिक रिश्तों में भोजन की अहमियत को रेखांकित करती हैं। कहीं रसोईघर को कला और जुनून की प्रयोगशाला के रूप में चित्रित किया गया है, तो कहीं पास्ता, पिज्जा और पारंपरिक व्यंजनों के माध्यम से आत्मीयता और जीवन का संतुलन दिखाया गया है। स्वादिष्ट भोजन करना हमेशा से सुखद अनुभवों में से एक रहा है।
(लेखक फिल्म अध्येता हैं)