ब्राजील के राष्ट्रपति चुनाव में राष्ट्रपति जैर बोल्सोनारो के मुकाबले मामूली अंतर से पूर्व राष्ट्रपति लूला डि'सिल्वा की जीत को अंतरराष्ट्रीय राजनीति के लिहाज से एक बड़ी घटना के रूप में देखा जा रहा है। पिछले 2 अक्टूबर को पहले और 30 अक्टूबर को दूसरे दौर के मतदान के बाद बोल्सोनारो ने 1 नवंबर को अपनी हार स्वीकार करने से इनकार कर दिया था और चुनाव परिणाम को कानूनी चुनौती देने का मन बना लिया था। अगले ही दिन उन्होंने हार स्वीकार कर ली। दोनों के बीच वोटों का अंतर बमुश्किल दो फीसदी है, जो अगले साल 1 जनवरी को पद ग्रहण करने जा रहे लूला के लिए संकट का एक बड़ा कारण है क्योंकि उन्हें कांग्रेस में अपने वैचारिक विरोधियों के साथ मिलकर राजकाज चलाना होगा, जिनकी संख्या वामपंथी और मध्यमार्गी सदस्यों से ज्यादा है।
घरेलू मोर्चे पर लूला के संकट की शुरुआती झलक चुनाव नतीजों के ठीक बाद दिखी, जब बोल्सोनारो के समर्थकों ने सड़कें जाम कर दीं और तकरीबन वही अराजक तरीके अपनाए, जो डोनाल्ड ट्रंप की हार के बाद उनके समर्थकों ने कैपिटल हिल पर हमले के दौरान अपनाए थे। इस दौरान लोकतंत्र के समकालीन संकटों पर लोकप्रिय किताब हाउ डेमोक्रेसीज डाई के लेखक स्टीवेन लेवित्सकी ने टिप्पणी की थी कि अमेरिका में हुई घटना ब्राजील में नहीं दुहरायी गई, इससे पता चलता है कि यहां चुनावों को ज्यादा सक्षम तरीके से संपन्न किया गया। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने लूला को ‘स्वतंत्र, निष्पक्ष और विश्वसनीय’ चुनाव के लिए बधाई दी और उप-राष्ट्रपति कमला हैरिस ने उनके शपथ ग्रहण में शामिल होने की भी बात कही।
कई जानकारों ने इस घटनाक्रम से यह निष्कर्ष निकाला है कि बाइडन चाहते थे कि जीत लूला की हो। ब्राजील में बोल्सोनारो को ‘ट्रॉपिकल ट्रंप’ कहा जाता है, लिहाजा इस संयोग ने भी यह धारणा बनाने में मदद की। इसमें दो राय नहीं है कि बोल्सोनारो के राज में कोरोना महामारी के चलते ब्राजील में सात लाख लोगों की मौत हुई, करोड़ों लोग वापस गरीबी के जाल में फंस गए, जिन्हें लूला ने अपनी सत्ता के दो कार्यकाल में उबारा था और अमेजन के जंगलों की तबाही से दुनिया भर में ब्राजील की बदनामी हुई। बोल्सोनारो की ट्रंप से तुलना के वैचारिक कारण भी रहे। सिर्फ इसलिए यह कहना कि बाइडन उन्हें हारते हुए देखना चाहते थे, यह बात मोटे तौर पर भ्रामक है।
लूला चाहते हैं कि यूक्रेन के संकट को हल करने में ब्रिक्स के देश मध्यस्थता और वार्ता में अपनी भूमिका निभाएं
घरेलू मोर्चे पर लूला चाहे जैसे अपने देश से निपटें, लेकिन बाकी दुनिया के लिए ब्राजील की सत्ता में उनकी वापसी की अहमियत दो कारणों से है। इसमें एक है यूक्रेन-रूस के बीच जारी युद्ध के चलते देशों के बदलते रिश्ते। दूसरा कारण खुद लूला हैं, जिनके बारे में अमेरिका का नजरिया पिछले दो दशक में बदला है। जब वे 2003 में राष्ट्रपति बने थे, उस वक्त अमेरिका उन्हें लिबरल और मध्यमार्गी नेता के रूप में देख रहा था जो लातिनी अमेरिका के धुर वामपंथी नेताओं, जैसे ह्यूगो शावेज, इवो मोरालेस और नेस्टर कर्शनर को संतुलित करने का काम करेंगे। पश्चिम की नजर में उस समय शावेज और उनके समर्थक अन्य नेताओं को ‘खराब वाम’ माना जाता था जबकि लूला को संतुलनकारी और उदार माना जाता था।
यह नजरिया 2010 में अचानक बदला जब लूला ने 1967 की सीमा के आधार पर फिलिस्तीनी राज्य को मान्यता दे दी। उनके बाद आधा दर्जन लातिनी अमेरिकी देशों ने भी यही किया। इसी साल लूला ने ईरान के परमाणु कार्यक्रम का समर्थन किया और महमूद अहमदीनेजाद से बात की, जिससे अमेरिका की भौंहें टेढ़ी हो गईं। उसके बाद से वे अमेरिका की नजर में बदल गए और दक्षिणी गोलार्ध के देशों के स्वाभाविक प्रवक्ता बन गए।
दूसरी तरफ, वेनेजुएला जैसे देश के जिस नेतृत्व को अमेरिका युद्ध अपराधी मानता है, उसे लूला ने मान्यता देकर एक बार फिर अमेरिका के पड़ोस को उसके लिए दिक्कततलब बना दिया है। वर्तमान स्थितियों में अमेरिका की चिंता यही है। दो दशक पहले के मुकाबले आज दुनिया भर के देशों में सत्ताएं अलग-अलग वैचारिकी की हैं और सभी राष्ट्र रूस-यूक्रेन युद्ध के हिसाब से अपनी-अपनी फायदेमंद स्थिति को देख रहे हैं।
फिलहाल स्थिति यह है कि भारत से लेकर चीन, लातिनी अमेरिका और अफ्रीका ने रूस के खिलाफ प्रतिबंधों को समर्थन नहीं दिया है। नाटो के खिलाफ व्यापक असंतोष है। पश्चिम के बरक्स वैकल्पिक आर्थिक, वित्तीय और वाणिज्यिक तंत्र आकार ले रहा है। क्षेत्रीय धड़ों का लगातार उभरना जारी है। इन धड़ों में सबसे महत्वपूर्ण धड़ा ब्रिक्स देशों का है (ब्राजील, भारत, चीन, रूस और दक्षिण अफ्रीका) जिससे अमेरिकी वर्चस्व को खतरा महसूस होता है।
अमेरिका में ब्रिक्स को लेकर क्या चिंताएं हैं, उसे समय-समय पर आए बयानों से भी समझा जा सकता है। पूर्व अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोंपियो तो ब्रिक्स का मजाक उड़ाते हुए लिख चुके हैं कि भारत और ब्राजील खुद ही रूस और चीन से डरे रहते हैं, ऐसे में ब्रिक्स की कोई उपयोगिता नहीं। आज दो साल बाद यह स्थिति यूक्रेन युद्ध के आलोक में बदल चुकी है।
लूला ने 2019 में जेल से दिए एक इंटरव्यू में कहा था कि ब्रिक्स को बचाव नहीं, आक्रामकता के नजरिये से बनाया गया था। अबकी चुनाव प्रचार में भी उन्होंने ब्रिक्स सहित कुछ और क्षेत्रीय रणनीतिक धड़ों का जिक्र किया था, जैसे कम्युनिटी ऑफ लैटिन अमेरिकन ऐंड कैरिबियन स्टेट्स और यूनियन ऑफ साउथ अमेरिकन नेशंस। जिस दिन उन्होंने चुनाव जीता, अर्जेंटीना के राष्ट्रपति अल्बर्टो फर्नांडीज उनसे मिलने गए और बयान दिया कि लूला के आने से ब्रिक्स में उसकी सदस्यता के लिए जोर लगाने वाला एक्टिविस्ट उन्हें मिल गया है।
आने वाले समय में ब्रिक्स का स्वाभाविक विस्तार होना तय है। अर्जेंटीना, मिस्र, सऊदी अरब, ईरान, तुर्की और रूस इसमें शामिल हो सकते हैं। सम्मिलित रूप से इन देशों का कुल सकल घरेलू उत्पाद इसे एक ऐसी ताकत बना सकता है जिसके भूराजनीतिक संदर्भ से अमेरिका अनजान नहीं होगा। खासकर इसलिए भी क्योंकि लूला यूक्रेन के संकट में मध्यस्थता और वार्ता के लिए ब्रिक्स की भूमिका पर बोल चुके हैं।
एक और मुद्दा अमेरिका के लिए परेशानी वाला यह है कि लूला ब्रिक्स देशों की अपनी साझा मुद्रा का मामला फिर से जिंदा न कर दें। अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि ब्रिक्स की सबसे बड़ी कमी यह रही कि उसने अमेरिकी डॉलर का मुकाबला करने के लिए अपनी मुद्रा नहीं शुरू की। आज की तारीख में ब्रिक्स की मुद्रा की संभावनाएं कहीं मजबूत हैं क्योंकि पांचों सदस्य इसके पक्ष में हैं। वैसे भी इस साल पांचों देशों की मुद्राओं का प्रदर्शन यूरो से बेहतर रहा है।
लूला हमेशा बहुध्रुवीय दुनिया की बात करते रहे हैं। जैसे-जैसे शक्तिशाली देश बाकी देशों को अपने पाले में खींचने की कोशिश करेंगे, राष्ट्रीय स्वायत्तता का अहसास गहराता जाएगा और गुटनिरपेक्षता को और हवा मिलेगी। मामला बस इतना-सा है कि लूला क्या विरोधी सत्ताओं को रणनीतिक रूप से एक करने को तैयार होंगे? या फिर वे उन्हीं देशों की गुटनिरपेक्षता कायम करने की ओर बढ़ेंगे जो उनके वैचारिक बिरादर हैं?