आज के दौर में घटनाक्रम इतनी तेजी से बदल रहे हैं कि सुबह की सुर्खियां सूरज के खिलते ही बदल जाती हैं और अनेक तरह के स्वाभाविक सवाल भी खड़े हो जाते हैं। लेकिन इससे भी ज्यादा महत्व का यह है कि इन सवालों पर मतभिन्नता इस कदर दो-ध्रुवीय दिखती है कि कोई निष्पक्ष या साझा जवाब तक पहुंचना मुश्किल हो जाए। कई बार बेहद जाने-माने और स्थापित तथ्यों पर भी भ्रम की स्थिति पैदा हो जाती। बेशक, इसमें बड़ा योगदान टेक्नोलॉजी में तेज बदलावों से सूचनाओं की आसान उपलब्धता का है। सूचनाओं का यह प्रवाह ऐसी सूनामी की तरह है, जिसमें सही और गलत या दुष्प्रचार को विलगाना बेहद मुश्किल है। यकीनन यह पोस्ट-ट्रुथ का दौर भी है जो कुछ विशेषज्ञों के मुताबिक पोस्ट-मेमोरी का भी चिंताजनक दौर साथ में ला रहा है। ऐसे में इसका सबसे ज्यादा असर समाज और संस्कृति में होता है, जिसके बदलाव अब परेशान करने लगे हैं।
ऐसे दौर में खासकर समाचार माध्यमों की जिम्मेदारी बनती है कि समाज में इन बदलावों की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित करे और उन्हें सही फैसले लेने या सही दिशा में सोच-समझ बनाने में मदद करे। लेकिन इस दौर में समावेशी, बहुलतावादी और निष्पक्ष रहकर जनसरोकार के मुद्दों को प्राथमिकता देना सहज नहीं रह गया है। ऐसे माहौल में भी आउटलुक पिछले 17 साल की निष्पक्ष पत्रकारिता की अपनी जिम्मेदारी पर टिकी हुई है। सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक उथल-पुथल के इस दौर में किसी भी समाचार माध्यम की यह जिम्मेदारी बढ़ जाती है कि वह अपने मार्ग से विचलित न हो। हमने अपने दायित्व को निभाते हुए इस दौर में पाठकों को वह देने की कोशिश की है जो उनके जीवन को प्रभावित करता है। अपने इस वार्षिक विशेषांक में भी हमने उसी कसौटी को ध्यान में रखकर देश में जारी सांस्कृतिक बदलावों पर केंद्रित किया है, जो देश के हर आदमी को प्रभावित कर रहा है।
असल में संस्कृति ही वह है जो धर्म और राजनीति से भी ज्यादा समाज और व्यक्ति को प्रभावित करती है और राष्ट्र-निर्माण की धारा तय करती है। हमारे जैसे बहुधर्मी, बहुभाषी, विविध समाजों वाले देश में प्रचीन काल से ही सामासिक या समावेशी संस्कृति सबको साथ लेकर चलती रही है। लेकिन कुछ समय से इसे एकरंगी संस्कृति में बदलने की आक्रामक कोशिशें चल रही हैं। इससे समाज, देश और राष्ट्र की छवि कैसी बन रही है? क्या यह हमें उस ओर ले जा रही है जो भारत के बुनियादी विचारों के ही विपरीत है? सबसे बढ़कर यह कि आजादी के सत्तर साल बाद इसमें इतनी आक्रामकता क्यों दिख रही है?
इन सवालों के जवाब जानने की कोशिश में समाज विज्ञानियों, चिंतकों, साहित्यकारों और कवियों के विचार हमें नई राह दिखा सकते हैं। आप पाएंगे कि आफ्टर एमनेशिया जैसी पुस्तक के लेखक, सुप्रसिद्ध भाषाविद और संस्कृतिकर्मी गणेश देवी आर्थिक नीतियों और विज्ञान-टेक्नोलॉजी के आविष्कारों का संस्कृति पर पड़ने वाले प्रभावों की बात कर रहे हैं। वरिष्ठ पंजाबी साहित्यकार सुरजीत पातर की कविता बताती है कि कितने रंगों की स्मृति लोप हो रही है। प्रसिद्ध आलोचक और साहित्यकार रविभूषण मौजूदा सांस्कृतिक परिदृश्य और उसमें राजनीति के असर की तहकीकात कर रहे हैं। उर्दू के प्रतिष्ठित आलोचक, कवि और नाटककार शमीम हनफ़ी ने सीमा के इस पार और उस पार यानी भारत और पाकिस्तान में फैल रही तंगनजरी का बयान किया है। प्रसिद्ध कथाकार, नाटककार और संस्कृतिकर्मी असग़र वजाहत भाषा के गहरे सवालों की पड़ताल कर रहे हैं। वरिष्ठ कवि मंगलेश डबराल के मुताबिक संस्कृति, अपसंस्कृति और विकृति की विचित्र यात्रा ऐसी स्थिति पैदा कर रही है जो स्वाधीन लोकतंत्र की जगह भयभीत लोकतंत्र को गढ़ रही है। वरिष्ठ कवि और सांस्कृतिक मसलों के टिप्पणीकार मदन कश्यप बताते हैं कि प्राचीन काल से भारत की संस्कृति समावेशी रही है और जब-जब इसे तोड़ने की कोशिश हुई तो देश टूटा है। वरिष्ठ पत्रकार, कवि कुलदीप कुमार ने तमाम उदाहरणों से बताया है कि सांस्कृतिक विचलन का माहौल देश के लिए ठीक नहीं है। इतिहासकार एम. राजीव लोचन बताते हैं कि टेक्नोलॉजी लोगों का जीवन बदल रही है। वरिष्ठ पत्रकार के. यतीश राजावत संगीत पर टेक्नोलॉजी के बढ़ते असर से लोगों की रुचि परिवर्तन की बात कर रहे हैं।
इस बीच, कुछ और बेहद चिंताजनक पहलू उभरे हैं, जिन पर बरबस ध्यान जाता है। महाराष्ट्र का घटनाक्रम राजनीति के क्षेत्र में चाहे जैसे वर्णित हो लेकिन इससे संवैधानिक संस्थाओं पर भी गहरे सवाल खड़े हो गए हैं। निश्चित रूप से यह दौर मानो देश का चरित्र ही बदलने पर उतारू है, इसलिए गहन विचारणीय है। इसी वजह से यह विशेषांक संस्कृति के मूल सवालों के प्रति पाठकों का ध्यान दिला रहा है। यह बदलाव आने वाले दिनों में देश, समाज और राष्ट्र सभी की दिशा तय करेगा। उम्मीद है कि यह विशेषांक पाठकों के विचार और जीवन को समृद्ध करेगा। आपकी प्रतिक्रिया का हमें इंतजार रहेगा।