दस दिन जब दुनिया हिल उठी- रूस की अक्टूबर क्रांति पर 1919 में अमेरिकी पत्रकार जॉन रीड की लिखी इस मशहूर किताब का नाम आज वंशिका की जिंदगी का दुःस्वप्न बन चुका है। पिछले साल वह 24 फरवरी की बदकिस्मत सुबह थी जब रूसी मिसाइलों की पहली खेप यूक्रेन की धरती से टकराई। यूक्रेन नेशनल यूनिवर्सिटी में एमबीबीएस की पढ़ाई कर रही वंशिका उस वक्त खारकीव के अपने अपार्टमेंट में थीं। दिल्ली में अपने घर वे 5 मार्च को जैसे-तैसे पहुंचीं, लेकिन इस बीच जो कुछ भी उनके साथ और उनके जैसे हजारों छात्रों के साथ घटा, उसने उनकी दुनिया हमेशा के लिए बदल दी। रूस-यूक्रेन युद्ध का एक साल पूरा होने पर वंशिका आज उन दिनों को याद करते हुए बताती हैं कि कैसे पाकिस्तानी दूतावास ने पूरी उदारता के साथ खाली हाथ वतन वापसी की जद्दोजहद में लगे हिंदुस्तानी छात्रों का खयाल रखा था जब उनकी जान अधर में लटकी थी। देश लौटकर उन्हें इस बात का शिद्दत से अहसास हुआ कि विदेश में मेडिकल की पढ़ाई करने वालों के प्रति अपने लोगों का नजरिया बहुत खराब है। उन्हें इस पर शर्म आती है। वे पूछती हैं, ‘आखिर ऐसा क्यों है कि बाहर पढ़ने वालों को या तो बहुत पैसे वाला समझा जाता है या पढ़ाई में कमजोर?’इस आम धारणा के उलट हकीकत यह है कि विदेश से मेडिकल की स्नातक पढ़ाई करने वाले यानी फॉरेन मेडिकल ग्रेजुएट (एफएमजी) अकसर उन परिवारों के बच्चे होते हैं जो भारत में मेडिकल की फीस भरने में सक्षम नहीं होते। देश के मोटे तौर पर एक लाख के आसपास मेडिकल की सीटें हैं। मेडिकल की स्नातक प्रवेश परीक्षा नीट का 2022 का आंकड़ा कहता है कि अकेले अनारक्षित या ईडब्ल्यूएस (आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग) में पास होने वाले अभ्यर्थियों की संख्या 8 लाख 81 हजार 402 थी। इतनी भारी संख्या के पीछे कटऑफ अंकों का गणित है जिसके अनुसार सरकार 14 से 16 प्रतिशत अंक लाने वाले को भी देश में या बाहर डॉक्टरी की डिग्री के योग्य मानती है। कुल 720 अंकों की इस परीक्षा में 110 के आसपास अंक लाने वाला भी पास हो जाता है। 2022 में यह कटऑफ 117 था। जाहिर है, देश भर के सारे कॉलेज मिलकर भी इन लाखों छात्रों को खपा नहीं पाते। लिहाजा इन्हें बाहर पढ़ने जाना पड़ता है।
दूतावास की गफलतः ताजिकिस्तान की एम्बेसी की छात्रों को भ्रामक एडवायजरी
यही छात्र जब यूक्रेन संकट के दौरान सत्र के बीच भारत लौटकर आए तो इन्होंने अपनी बाकी की पढ़ाई भारत में करवाने की मांग सरकार से की। एक अभिभावक संघ ने इस सिलसिले में मुकदमा भी किया है। गाजियाबाद में रहने वाले एडमिशन एडवाइजर नामक एजेंसी के मालिक रवि कौल बताते हैं कि उन्होंने जब प्रधानमंत्री को इस संबंध में चिट्ठी लिखी, तो उनसे एक अधिकारी ने कहा कि ऐसा नहीं हो सकता। उसका कहना था कि अगर बाहर से आए बच्चों को यहां के कॉलेजों में खपाया गया तो जो लाखों बच्चे बाहर नहीं जा सके और दोबारा परीक्षा की तैयारी कर रहे हैं, वे बगावत पर उतर आएंगे और मेडिकल क्षेत्र में भारी संकट पैदा हो जाएगा।
इस स्थिति का सीधा लाभ उन कंसल्टेंट एजेंसियों को मिला जो विदेश में छात्रों को भेजती हैं। इन एजेंसियों ने यूक्रेन संकट से प्रभावित छात्रों के लिए एक ‘मोबिलिटी प्रोग्राम’ शुरू किया जिसके तहत उनकी बाकी की पढ़ाई जॉर्जिया, आर्मेनिया, अजरबैजान, कजाकिस्तान, ताजिकिस्तान, किर्गिस्तान और उज्बेकिस्तान में करवाई जाएगी। कुछ छात्र इसमें फंस भी गए। खारकीव में पढ़ने वाले प्रवासी छात्रों पर तकरीबन एकाधिकार रखने वाली ऐसी ही एक एजेंसी ने यूक्रेन युद्ध से हुए वित्तीय नुकसान की भरपाई के लिए ग्रेटर नोएडा में एक अस्पताल तक खोल लिया है जहां वह एफएमजी को ट्रेनिंग के लिए आमंत्रित कर रही है।
परीक्षा पर सवालः एनबीई के कार्यकारी निदेशक के खिलाफ जांच की मांग
तकरीबन सभी कंसल्टेंट एजेंसियों को जानने वाले रवि कौल कहते हैं, “एफएमजी के संकट के पीछे एक तो इस देश की परीक्षा नीति है यानी राष्ट्रीय टेस्टिंग एजेंसी (एनटीए) और राष्ट्रीय परीक्षा बोर्ड (एनबीई)। दूसरे, ये कंसल्टेंट हैं जो शुरू से लेकर अंत तक बच्चों और उनके माता-पिता को फंसाए रखते हैं।”
यह जानना जरूरी है कि विदेश से मेडिकल में स्नातक करके लौटे छात्रों को भारत में एक स्क्रीनिंग टेस्ट देना पड़ता है। इसके बाद ही वे इंटर्नशिप और मेडिकल काउंसिलों में पंजीकरण के योग्य हो पाते हैं। यह परीक्षा एनबीई करवाता है। जाहिर है, जब वे पंजीकरण के लिए काउंसिल में जाते हैं तो उनके कागजात परीक्षण के लिए एनबीई के पास भेजे जाते हैं। वहां से जब उन्हें पास बताया जाता है, तभी उनका पंजीकरण हो सकता है। 21 दिसंबर 2022 को दिल्ली में केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआइ) ने जो 73 एफएमजी के ऊपर नामजद एफआइआर की है, उन्हें स्क्रीनिंग परीक्षा में फेल बताया गया है। यानी गड़बड़ी या तो परीक्षा बोर्ड या फिर राज्यों की मेडिकल काउंसिलों के स्तर पर हुई है और बीच में कोई तीसरा पक्ष भी घोटाले में शामिल है।
दिलचस्प यह है कि एफआइआर (संख्या आरसी2162022ए0013, जिसकी एक कॉपी आउटलुक के पास उपलब्ध है) में किसी भी कंसल्टेंट या एनबीई को आरोपित नहीं बनाया गया है। यहां तक कि जिन पंद्रह राज्यों की मेडिकल काउंसिल का जिक्र एफआइआर में है, उसमें भी कोई नामजद नहीं है बल्कि मुकदमा ‘अज्ञात लोक सेवकों’ के ऊपर है। ऐसे में, क्या घोटाले का ठीकरा सिर्फ विदेश से पढ़कर आए डॉक्टरों के सिर पर फोड़ा जा सकता है या इसके तार लंबे हैं?
एफआइआर दो, कहानी एक
आज से दस साल पहले मध्य प्रदेश में व्यापम घोटाला हुआ था, जो 2013 की पीएमटी की परीक्षा में बड़े पैमाने पर पहली बार उजागर हुआ और संगठित गिरोहों से लेकर नेताओं तक पर आंच आई थी। सुप्रीम कोर्ट ने 185 शिकायतें जांच के लिए 2015 में सीबीआइ को सौंप दी थीं। सीबीआइ ने वही किया जो उसको कहा गया। नतीजतन, करीब दो हजार शिकायतें स्पेशल टास्क फोर्स (एसटीएफ) के पास लंबित रह गईं। इन्हीं में से एक अदद शिकायत भारतीय जनता पार्टी के कुछ वरिष्ठ नेताओं के खिलाफ 2014 में पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह की थी, जिस पर आठ साल बाद बीते दिसंबर में एफआइआर दर्ज की गई और कुछ गिरफ्तारियां हुई हैं। इसी अवधि में सीबीआइ ने 73 एफएमजी और 14 राज्य मेडिकल काउंसिलों के खिलाफ भी एफआइआर दर्ज की और तीन गिरफ्तारियां कीं। क्या यह महज संयोग है?
प्रवास का दर्दः मां-बाप को एक छात्र की चिट्ठी
व्यापम घोटाले को सामने लाने वाले एक ह्विसिलब्लोअर डॉ. अजय दुबे 73 एफएमजी पर सीबीआइ की एफआइआर के संबंध में कहते हैं, “व्यापम कोविड की तरह एक ऐसा वायरस है जो अपना जेनेटिक स्वरूप बदल रहा है। कोविड खत्म हो जाएगा उसी तरह व्यापम खत्म हो जाएगा, इस पर कोई भरोसा नहीं है। ये चलता रहेगा। जब खुलासा हुआ था 2013 में व्यापम का, तब व्यापम के जो परदे के पीछे बैठे जनक थे उन्होंने कोविड के वायरस की तरह चोला बदल लिया। देश में परीक्षा लेने वाली कोई भी एजेंसी हो, इन सारी संस्थाओं ने ऐसा कोई उदाहरण पेश नहीं किया कि लोग डरें। इसका मतलब कि व्यापम मॉडल अभी जिंदा है।”
एक समानता और है- व्यापम का नाम मध्य प्रदेश सरकार ने जिस तरह बदल दिया उसी तरह केंद्र की भाजपा सरकार ने पुरानी मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया (एमसीआइ) का नाम बदल कर नेशनल मेडिकल कमीशन (एनएमसी) कर दिया है और अब वह एनबीई को भी बदलने जा रही है। इससे हालांकि फर्क कुछ नहीं आया है। कभी एमसीआइ और अब एनएमसी के अंतर्गत आने वाले एनबीई की परीक्षा प्रणाली के घपलों घोटालों के खिलाफ इतने सारे मुकदमे देश भर में दर्ज हैं और इतनी सारी चिट्ठी पत्री हो चुकी है कि उसे यहां समेटा नहीं जा सकता। प्राइवेट कॉलेज को एमसीआइ से मान्यता देने के बदले रिश्वत के मामले में 2001 में जब अध्यक्ष डॉ. केतन देसाई को हटाया गया था और बाद में उन्हें जेल हुई, तब पहली बार इस संस्था का भ्रष्टाचार सबके सामने आया था। इसके बावजूद 2016 में डॉ. देसाई मेडिकल एथिक्स की सबसे बड़ी वैश्विक संस्था वर्ल्ड मेडिकल एसोसिएशन के अध्यक्ष बन गए। भारत में मेडिकल भ्रष्टाचार की इससे बड़ी विडम्बना और नहीं हो सकती थी।
केतन देसाई के एमसीआइ अध्यक्ष पद से हटने के बाद के दो वर्षों तक डॉ. दया ब्रजेश्वर दयाल मेडिकल परीक्षा बोर्ड के कंट्रोलर रहे। उन्होंने 2021 में एक किताब लिखी है जिसका नाम है ‘टेकिंग द बुल बाइ द हॉर्न्स: मेडिकल बोर्ड ऑफ इग्जामिनेशंस’। भारत में मेडिकल परीक्षा प्रणाली की खामियों पर शायद यह इकलौती प्रामाणिक पुस्तक है जिसमें डॉ. दयाल ने अपने कार्यकाल के संस्मरण और अनुभवों को बाकायदे सरकारी कागजात और साक्ष्यों सहित दर्ज किया है।
केतन देसाई कांड के बाद बीते बीस साल के दौरान एमसीआइ, एनएमसी, एनबीई आदि मेडिकल संस्थानों की कहानी देखी जाए तो समझ आता है कि देश में फर्जी डिग्री बांटने, फर्जी कॉलेज को मान्यता देने और पंजीकरण करवाने का एक संगठित कारखाना चल रहा है। व्यापम के विसिलब्लोअर डॉ. आनंद राय मानते हैं कि ऐसे डॉक्टरों को दागी कहने के बजाय सरकारों को दागी कहा जाना चाहिए क्योंकि छात्र और उनके माता-पिता तो केवल ग्राहक हैं। वे कहते हैं, “अगर डिग्री बिकेगी तो खरीददार भी आएगा। असली दोषी बेचने वाला है।”
अब तक के सबसे संगीन और त्रासद परीक्षा घोटाले व्यापम में पचास से ज्यादा लोग मारे गए थे, लेकिन कोई इसका जिम्मेदार नहीं साबित हुआ। गनीमत यह है कि एनबीई और एनएमसी से त्रस्त मेडिकल के छात्रों के बीच अभी मौतें होना शुरू नहीं हुई हैं, लेकिन अदालतों के माध्यम से संघर्ष करने वाले छात्र अब पस्त हो रहे हैं। इन्हीं में एक हैं हरियाणा के डॉ. जितेंद्र, जो बोकारो के एक अस्पताल में तीन साल की रेजिडेंसी पूरी करने के बाद मेडिकल की परास्नातक डिग्री डीएनबी (डिप्लोमेट ऑफ नेशनल बोर्ड) पाने के लिए दिल्ली में रह कर अदालती लड़ाई लड़ रहे हैं और दोबारा परीक्षा दे रहे हैं क्योंकि उन्हें फेल कर दिया गया था। कारण पूछने पर उन्हें बताया गया कि 2021 की परीक्षा में (दिसंबर 2020 सत्र) उनका परचा बदल गया था (पेपर स्वैप) जिसके चलते वे फेल हो गए। जितेंद्र ने अगर आरटीआइ न लगाई होती, तो यह बात कभी सामने नहीं आती कि इस कथित ‘तकनीकी त्रुटि’ का शिकार अकेले वे ही नहीं, ऑर्थोपेडिक्स के कुल 48 छात्र डीएनबी में हुए थे।
यहां स्वाभाविक सवाल उठता है कि सीबीआइ ने जिन 73 एफएमजी छात्रों को ‘फेल’ बताकर नामजद किया है, उनमें कोई पास भी हो सकता था क्या? जितेंद्र कहते हैं, “कुछ भी हो सकता है। नीट और एनबीई की करवाई परीक्षाओं में पास या फेल होना अपने आप में रहस्य है।”
पास और फेल से इतर, सबसे बड़ा रहस्य उन मेडिकल छात्रों के परीक्षा नतीजों में छुपा है जिनका परिणाम ‘विदहेल्ड’ कर लिया जाता है यानी रोक लिया जाता है। रूस से स्नातक की डिग्री लेकर मुंबई उच्च न्यायालय में एनएमसी और एनबीई के खिलाफ 27 मुकदमे लड़ रहे डॉक्टर यति पाटील की मानें तो ऐसे कुल साढ़े छह हजार छात्र हैं जिनका परीक्षा परिणाम ‘विदहेल्ड’ है। पाटील कहते हैं, “इन्हीं रुके हुए नतीजों में पैसे कमाने की संभावनाएं छुपी होती हैं। उसी के हिसाब से पास को फेल या फेल को पास बनाया जा सकता है।”
भ्रष्ट ‘तकनीक’ की आड़
डॉ. जितेंद्र ने जब डीएनबी के फाइनल पेपर (दिसंबर 2020 सत्र) में स्वैपिंग घोटाले को उजागर किया, तब गाजियाबाद स्थित एसोसिएशन ऑफ डीएनबी डॉक्टर्स (एडीडी) ने स्वास्थ्य मंत्री मनसुख मंडाविया, सीबीआइ, दिल्ली क्राइम ब्रांच और अन्य अधिकारियों को एक चिट्ठी (22 दिसंबर 2021) लिखी। यह संगठन दुनिया भर में करीब एक लाख डॉक्टरों का प्रतिनिधित्व करता है। इसने लिखा कि ऑर्थोपेडिक्स के 48 छात्रों के पेपर स्वैप का मामला ‘हिमखंड की सतह’ भर है क्योंकि दूसरी विशेषज्ञ शाखाओं के परचों के बारे में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। इसी पत्र में लिखा गया था कि एनबीई में साइबर फ्रॉड कोई नई चीज नहीं है क्योंकि 2017 में नीट-पीजी की परीक्षा का जो घाटाला सामने आया था, उसमें भी एनबीई के परीक्षा तंत्र को हैक कर लिया गया था (दिल्ली क्राइम ब्रांच एफआइआर संख्या 13/2017)।
पत्र कहता है, “इसी के बाद एनबीई ने 10 फॉरेन मेडिकल ग्रेजुएट को परीक्षा देने से रोक दिया और उनके ऊपर हैकिंग का आरोप लगाया था। इस मामले की जांच अब तक हो रही है, हालांकि इसी मामले में एनबीई के तत्कालीन कार्यकारी निदेशक डॉ. बिपिन बत्रा को 16 अगस्त 2017 को निलंबित किया गया। इसके बाद आए कार्यकारी निदेशक डॉ. रश्मिकांत दवे को भी भ्रष्टाचार के आरोपों में निलंबित किया गया।”
दवे के बाद एनबीई के कार्यकारी निदेशक बने डॉ. पवनिंदर लाल की कहानी और दिलचस्प है, जिनके कार्यकाल में पेपर स्वैप घोटाला हुआ। जितेंद्र बताते हैं कि आरटीआइ करने के बाद उन्हें किसी तरह पहली बार दिल्ली में डीएनबी के द्वारका स्थित दफ्तर में घुसने दिया गया। वहां उन्हें बताया गया कि उच्चस्तरीय बैठक चल रही है। जितेंद्र ने बताया, “बिलकुल उसी दिन पवनिंदर लाल ने इस्तीफा दे दिया। उसका कार्यकाल पांच साल का था और उसे केवल साल भर हुआ था, लेकिन बीच में ही उसने छोड़ दिया। ऐसे हाइ लेवेल इस्तीफे के बावजूद आज तक स्वैपिंग घोटाले की जिम्मेदारी किसी पर तय नहीं की गई है।”
एनएमसी और एनबीई के खिलाफ भ्रष्टाचार के मुकदमे करने वालों की फेहरिस्त में सबसे ऊपर मुंबई के डॉ. यति पाटील का नाम आता है। डॉ. पाटील ऑल इंडिया मेडिकल स्टूडेंट्स वेल्फेयर एसोसिएशन से जुड़े हैं जिसमें देश भर के डॉक्टर सदस्य हैं। वे बताते हैं कि पांच सत्र में साढ़े छह हजार मेडिकल छात्रों का परीक्षा परिणाम रोके रखा गया था और मुंबई उच्च न्यायालय में एक मामला लंबित है (28/07/2021)। इसमें भी एनबीई के कार्यकारी निदेशक रहे पवनिंदर लाल के खिलाफ जांच चल रही है, हालांकि उनके इस्तीफे के बाद मामला ठंडे बस्ते में चला गया। फिलहाल एनबीई का कोई निदेशक नहीं है। एम्स की डॉ. मीनू बाजपेयी मानद निदेशक हैं।
भ्रष्टाचार की तकनीक केवल कंप्यूटर और ऑनलाइन परीक्षा तक ही सीमित नहीं है। दो दिलचस्प मुकदमे मेडिकल परास्नातक की फीस में जीएसटी शुल्क लगाने को लेकर भी दिल्ली और मुंबई में लंबित हैं जबकि शिक्षा शुल्क में जीएसटी लगाने का कोई प्रावधान नहीं है। दिल्ली उच्च न्यायालय में दायर मुकदमे में पाया गया कि एनबीई ने करीब 51 करोड़ रुपये जीएसटी के मद में डीएनबी डॉक्टरों से वसूले थे। जब जीएसटी कार्यालय से इसकी बाबत पूछताछ की गई, तो जीएसटी आयुक्त ने हलफनामा देकर कहा कि यह पैसा आयोग के खाते में जमा नहीं हुआ है (सिविल रिट याचिका 10326/2021)। जीएसटी आयुक्त ने खुद कहा है कि इस शुल्क को लेने का कोई प्रावधान ही नहीं है। यह मुकदमा भी डीएनबी एसोसिएशन ने ही एनएमसी और अन्य के खिलाफ किया था। विदेश से ग्रेजुएट 73 डॉक्टरों और राज्य मेडिकल काउंसिलों के खिलाफ सीबीआइ की ताजा एफआइआर की असली कहानी इसी जीएसटी वाले मुकदमे से खुलती है।
73 की पहेली
डॉ. यति पाटील बताते हैं कि जब दिल्ली और मुंबई में तमाम मुकदमे एनबीई के खिलाफ दायर हुए, तो उसी दौरान अध्ययन करते हुए उन्हें यह बात पकड़ में आई कि एनबीई ने एफएमजी की परीक्षा पर 18 प्रतिशत जीएसटी लगाकर करीब साढ़े ग्यारह करोड़ रुपये और डीएनबी के परीक्षार्थियों से इसी दर पर करीब 51 करोड़ वसूले थे। इस सिलसिले में एक ही अवधि में दिल्ली और मुंबई दोनों जगह मुकदमे हुए।
वे बताते हैं, “मुंबई में कई मुकदमों के चक्कर में हम लोग जीएसटी वाले पर फोकस नहीं कर पाए लेकिन अभी यह मुकदमा दिल्ली में चल ही रहा है कि 51 करोड़ रुपया कहां गया। एनबीई को यहां ऐसा लगा कि यह मामला अब वित्तीय फर्जीवाड़े की ओर जा रहा है और उनके गले की हड्डी बन रहा है। तब अचानक एक दिन एनबीई की मानद निदेशक मीनू बाजपेयी ने स्वास्थ्य मंत्रालय और सीबीआइ निदेशक दोनों को पत्र लिखा कि उन्हें ऐसे 73 प्रत्याशी पकड़ में आए हैं जो बिना पास हुए मेडिकल काउंसिलों में पंजीकृत हैं। एनबीई की मातृ संस्था एनएमसी है, तो कायदे से उन्हें एनएमसी से पहले पूछना चाहिए था। इसके बाद मंत्रालय को पत्र भेजना चाहिए था।”
पाटील पूछते हैं कि परीक्षा एनबीई लेता है, पास होने का प्रमाण पत्र भी वही देता है और उसके प्रमाणन के बिना राज्य की मेडिकल काउंसिल पंजीकरण नहीं कर सकती, फिर एनबीई कैसे कह सकता है कि उसकी इसमें कोई भूमिका नहीं है? वे पूछते हैं, “2004 के बंदे के खिलाफ आप 2022 में जांच कर रहे हो। अभी तक आप कहां थे? हमारी बात कुछ राज्यों के मेडिकल काउंसिल से हुई है। उनका कहना है कि हमने एनबीई के कहने पर ही पंजीकरण किया था।”
घोटालों का दस्तावेजः डॉक्टर दयाल की पुस्तक
पाटील के मुताबिक एनबीई के ऊपर इतने सारे मुकदमों का बहुत दबाव था इसलिए उसने ठीकरा विदेश के ग्रेजुएट छात्रों के सिर पर फोड़ दिया। सीबीआइ ने तीन लोगों को इस मामले में पकड़ा है। वे कहते हैं कि सीबीआइ को हलफनामा देना चाहिए कि केवल 73 अभ्यर्थी ही फर्जी पंजीकृत हैं, “सच्चाई यह है कि मेरे पास खुद ऐसे चार छात्रों के मामले हैं जिनका जिक्र सीबीआइ की एफआइआर में नहीं है। हमने हर याचिका में इन चार छात्रों का केस लगाया है। जैसे, एक छात्र महाराष्ट्र मेडिकल काउंसिल का है जिसके 12 अंक थे लेकिन उसे 174 अंक पासिंग सर्टिफिकेट में दिए गए हैं पर उसका नाम सीबीआइ की एफआइआर में कहीं नहीं है।”
पाटील कहते हैं कि 2002 के बाद से सभी अभ्यर्थियों की जांच होनी चाहिए क्योंकि एफएमजी का स्क्रीनिंग टेस्ट 2002 में ही सरकार ने लागू किया था। उनके मुताबिक “अभी जो 73 की सीबीआइ लिस्ट है, वह सेलेक्टिव है और एनबीई की फेस सेविंग के लिए है। यह मामला केवल फॉरेन मेडिकल ग्रेजुएट का नहीं है, समूची मेडिकल परीक्षा प्रणाली से जुड़ा है। स्वैप घोटाले में आज तक एक एफआइआर तक नहीं हो सकी। साफ है कि उन्हें स्वास्थ्य मंत्रालय बचा रहा है। हमने पिछले 30 महीने में 535 नोटिसें एनबीई को भेजी हैं लेकिन आज तक एक भी जवाब नहीं आया। उन्होंने पूरी तरह चुप्पी साध रखी है। किसी को कोई मतलब नहीं है।”
मौन संघर्ष के मोर्चे
चुप्पी की इस राजनीति का सबसे ताजा उदाहरण संयुक्त राष्ट्र महासभा में रूस के खिलाफ लाए गए नवीनतम प्रस्ताव पर मतदान के दौरान भारत के रुख में दिखा। भारत यहां भी ‘अनुपस्थित’ रहा। इस कदम पर विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने जो स्पष्टीकरण दिया, उसमें यूक्रेन में फंसे भारतीय छात्रों की चिंता का हवाला दिया। वंशिका के पिता को इस बात का दुख है कि सरकार उनकी बच्ची को खारकीव से निकालने के लिए समय पर नहीं पहुंची लेकिन हवाई जहाज पर बैठने के बाद नारे जरूर लगवाए गए। नारे लगाने में भला क्या समस्या हो सकती है, लेकिन जरूरी नहीं कि ये नारे भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में काम ही आएं। व्यापम घोटाले के सबसे युवा ह्विसिलब्लोअर आशीष चतुर्वेदी इसका जीता-जागता उदाहरण हैं।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का विस्तारक होने के बावजूद आशीष चतुर्वेदी को उसके दफ्तर में घुसने से रोक दिया गया और एफआइआर तक करवा दी गई। आउटलुक से बातचीत में आशीष कहते हैं, “1925 से लेकर अब तक के इतिहास में पहली बार किसी संघ कार्यकर्ता के संघ कार्यालय में घुसने पर मुकदमा करवाया गया जबकि उससे पहले दिल्ली में बाकायदे राकेश सिन्हा और मोनिका अरोड़ा ने मुझे भ्रष्टाचार उजागर करने के लिए सम्मानित किया था।”
साल भर से बीमार चल रहे आशीष अब भी व्यापम घोटाले की जांच को उसकी तार्किक परिणति पर पहुंचाने की कसम खाए हुए हैं। आशीष बताते हैं कि दिल्ली में उन्हें सम्मानित करने के दौरान कुछ नेताओं का नाम लेने से मना किया गया था। वे कहते हैं, “लेकिन मैंने अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। आज भी कायदे से जांच हो तो सब लपेटे में आएंगे। जब तक ऐसा नहीं होगा, मैं लड़ता रहूंगा।”
ऐसा ही एक मौन संघर्ष रवि कौल का है। वे एक ऐसे एडमिशन सलाहकार हैं जिन्होंने पिछले एक साल में एक भी छात्र को पढ़ने के लिए विदेश नहीं भेजा है। वे कहते हैं कि बाकी कंसल्टेंट यूक्रेन की ‘आपदा में अवसर’ तलाश रहे हैं लेकिन वे लगातार बच्चों के कैरियर की सुरक्षा के लिए प्रधानमंत्री और विदेशों में भारतीय दूतावासों को चिट्ठियां लिख के सरकार को जगा रहे हैं।
उदाहरण के लिए, वे 12 अक्टूबर 2022 को ताजिकिस्तान में भारत के दूतावास से जारी एक एडवायजरी दिखाते हैं जो वहां मेडिकल पाठ्यक्रमों में प्रवेश लेने वाले भारतीय छात्रों के हित है। वे रेखांकित कर के दिखाते हैं कि एडवायजरी के दूसरे ही पैरा में लिखा है, “नीचे दी गई सूचना के पूरी तरह से सही होने का दावा दूतावास नहीं करता।’ वे पूछते हैं, ‘फिर इसका क्या मतलब है? एम्बेसी को ही पता नहीं कि क्या सलाह छात्रों को देनी है।”
पिछले साल 7 जुलाई को उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक लंबा पत्र लिखा था। इसमें उन्होंने विदेश पढ़ने जाने वाले भारतीय छात्रों के प्रति आम धारणा को चुनौती देते हुए विनम्रता के साथ बताया था कि ऐसे बच्चे ज्यादातर निम्न मध्यवर्गीय परिवारों से होते हैं। इस पत्र में वे एनएमसी के अधिनियमों की भाषा का सवाल उठाते हैं। खासकर यूक्रेन से लौटे छात्रों के संबंध में उन्होंने प्रधानमंत्री को लिखा था कि कंसल्टेंट और एजेंट एनएमसी के अधिनियमों और शर्तों की अपनी व्याख्या कर के छात्रों को भटकाने का काम करते हैं। प्रधानमंत्री, स्वास्थ्य मंत्री और विदेश मंत्री को लिखी दर्जनों चिट्ठियों में कौल ने एफएमजीएल नियमन की धारा 4(बी) की एकाधिक व्याख्याओं और दुरुपयोग के बारे में बार-बार सवाल उठाए हैं और छात्रों के कल्याण की सिफारिश की है।
वे इस बात से दुखी हैं कि उनकी आरटीआइ और पत्रों का जवाब नहीं आता, फिर भी वे चुपचाप लगे हुए हैं। आजकल वे एक और लंबी चिट्ठी प्रधानमंत्री के नाम तैयार कर रहे हैं। वे कहते हैं, “मैं यह सब इसलिए कर रहा हूं क्योंकि ये बच्चे मेरे अपने हैं।”
भविष्य पर सवाल
राजनीतिक संरक्षण के कारण भ्रष्ट हो चुके परीक्षा तंत्र में भविष्य की चिंता सबको है। डॉ. जितेंद्र पूछते हैं कि जो देश कायदे से परीक्षाएं नहीं करवा सकता वो सुपरपावर कैसे बन पाएगा। मध्य प्रदेश की राजनीति को बेहद करीब से समझने वाले पत्रकार और ग्लोबल इन्वेस्टिगेटिव जर्नलिज्म नेटवर्क के भारत में संपादक दीपक तिवारी कहते हैं, “जब तक परीक्षाएं होती रहेंगी व्यापम रहेगा। व्यापम हमारे सिस्टम में समा चुका है और वह रह-रह कर उठता रहेगा।” व्यापम में आठ साल बाद हुई अप्रत्याशित एफआइआर को तिवारी राजनीति से प्रेरित बताते हैं, “जो एफआइआर दिग्विजय सिंह की शिकायत पर हुई है वह भाजपा की अंदरूनी लड़ाई के कारण है।”
इस बीच यूक्रेन का युद्ध थमने का नाम नहीं ले रहा और विदेश में मेडिकल पढ़ रहे छात्रों का मसला लगातार गहराता जा रहा है। कंसल्टेंट और एजेंटों ने जिन बच्चों को मोबिलिटी के नाम पर यूक्रेन से जॉर्जिया भेज दिया है, उनके नाम अब तक उनकी युनिवर्सिटी की सूची में नहीं आए हैं। उनका पूरा एक साल खतरे में पड़ गया है लेकिन कंसल्टेंट प्रति विषय उनसे भारी रकम लेकर उनका साल बचाने का प्रलोभन दे रहे हैं। सबसे बड़ी विडम्बना यही है कि पूरे प्रसंग में इन कंसल्टेंटों की भूमिका पर रवि कौल के अलावा भारत में कोई बात नहीं कर रहा और पैसे कमाने की लालच में हर अगला छात्र खुद कंसल्टेंट बन जा रहा है।
डॉ. यति पटेल कहते हैं, “व्यापम तो हजार बारह सौ लोगों का था। कायदे से जांच हो तो विदेश के मेडिकल ग्रेजुएट का घोटाला व्यापम से कहीं बड़ा निकलेगा।”
इस सब के बीच वंशिका जैसे मेधावी छात्रों की चिंताएं अलग हैं। फिलहाल वंशिका एमबीबीएस के आखिरी वर्ष में हैं और जंग के कारण खारकीव की जगह यूक्रेन के इवानो शहर में पढ़ रही हैं जहां उनके विश्वविद्यालय ने किराये पर एक परिसर ले रखा है। अगर सब कुछ सही रहा तो वे मई में भारत वापस आ जाएंगी। इस सिस्टम से उनकी असली लड़ाई तब शुरू होगी। हो सकता है वह रूस-यूक्रेन के दुस्वप्न से भी भयावह निकले। अगले सत्र से एनबीई की जगह नई परीक्षा एजेंसी प्रभाव में आ चुकी होगी और पंजीकरण के लिए स्क्रीनिंग टेस्ट की जगह दो चरणों का एग्जिट टेस्ट (नेक्स्ट) लागू हो चुका होगा। एनएमसी के नए नियमों के अनुसार इन दो चरणों के नेक्स्ट टेस्ट को अगर बचे हुए तीन साल में नहीं निकाला गया तो पूरे दस साल की पढ़ाई बेकार चली जाएगी। इस खतरे से 2024 में भारत के करीब बीस हजार विदेशी ग्रेजुएट दो-चार होंगे। देश के भीतर यह संख्या लाखों में होगी।
डॉ. पटेल मानते हैं कि मेडिकल काउंसिल और उसकी परीक्षा प्रणाली में इतनी तेजी से किए जा रहे तमाम बदलाव छात्रों के लिए कतई नहीं हैं। इससे बस सरकारों के पुराने पाप धुल जाएंगे और सब कुछ पहले जैसा चलता रहेगा।
व्यापम एक ऐसा वायरस है जो हर दवा के बाद और इम्यून होकर रूप बदल लेता है
अजय दुबे, व्यापम के ह्विसिलब्लोअर
कंसल्टेंट आपदा में अवसर खोज रहे हैं और बच्चों के करियर के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं
रवि कुमार कौल, एडमिशन परामर्शदाता
व्यापम में ताजा मुकदमा राजनीति से प्रेरित है, यह कभी खत्म नहीं होने वाला है
दीपक तिवारी, संपादक, जीआइजेएन
(साथ में इंदौर से आदित्य सिंह)