लद्दाख में जून 2020 में विवादास्पद वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर चीन की सैन्य कार्रवाइयों से भारत ‘हैरान’ रह गया था। दोनों तरफ जवानों को जान गंवानी पड़ी। दोनों देशों के पहले से तनावपूर्ण रिश्ते और खराब हो गए और सैन्य टकराव के काले बादल घुमड़ने लगे। उस घटना के साल भर बाद भी रणनीतिक स्थिति अनसुलझी है और नाजुक बनी हुई है। वाकई यह 1950 के दशक से ऊंच-नीच से भरे चीन-भारत संबंधों पर नए सिरे से पुनर्विचार का अच्छा मौका है।
उस दशक में दोनों एशियाई दिग्गजों ने औपनिवेशिक शासकों को उखाड़ फेंका था। 1947 में भारत और 1949 में चीन। भारत में अखिल एशियाई एकजुटता कायम करने की प्रबल आकांक्षा थी। इसका प्रतीक ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ का लोकप्रिय नारा बना, लेकिन जल्द ही यह स्पष्ट हो गया कि चेयरमैन माओ के राज में चीन की एशियाई एकजुटता का नजरिया कुछ और ही था और वे नए उभरते समीकरण में चीन को ऊपर देखना पसंद करते थे। साफ है कि प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में दिल्ली चीन की चतुराई करीने से नहीं भांप पाई थी। कुछ ही साल बाद अक्टूबर 1962 में सीमा विवाद भड़क उठा और भारत चीन के कदम से स्तब्ध रह गया, जिसे बाद में भारत में चीन की धूर्तता के रूप में देखा जाने लगा।
भारत 2020 में फिर हैरान और स्तब्ध हुआ। यह बार-बार हैरान रह जाने और बेपरवाही वाले रवैए को देश के सुरक्षा संबंधी अफसाने की बड़ी तस्वीर में ही देखा जाना चाहिए। चीन इकलौता दुश्मन देश नहीं है, जिसकी हरकतें उसे बैकफुट पर ला देती हैं। अलबत्ता ऐसा ही कुछ तो 1999 की गर्मियों में करगिल और नवंबर 2008 में मुंबई आतंकी हमले में दिखा था।
इससे तो यही संकेत मिलता है कि 1962 से 2020 के बीच भारत का उच्च रक्षा प्रबंधन राष्ट्रीय संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता पर आने वाली चुनौतियों का अनुमान लगाने और रोकथाम के लिए प्रभावी सूचना-खुफिया तंत्र और सैन्य ताकत स्थापित करने में नाकाम रहा है। यह नाकामी चीन और गलवन घाटी की घटना के संबंध में अधिक प्रासंगिक हो उठती है।
इस साल की शुरुआत में मीडिया रिपोर्टों से पता चलता है कि चीन में सुरक्षा रणनीतिकार बिरादरी भारत को चीन के दीर्घकालिक लक्ष्यों के मद में सुरक्षा चुनौती की तरह देखती है और इसके लिए अकादमी ऑफ मिलिट्री साइंसेज (एएमएस) की सैन्य रणनीति का विज्ञान नामक 2013 में प्रकाशित एक दस्तावेज का विशेष रूप से उल्लेख किया गया। यह तीसरा संस्करण है। इसकी पहली आवृत्ति 1987 और दूसरी 2001 में छपी थी। दिलचस्प यह है कि (गलवन घाटी के घटनाक्रम के साल भर बाद) यह खबर आई कि 2013 में 276 पृष्ठ के इस दस्तावेज का अंग्रेजी में अनुवाद जारी हुआ था और वह सार्वजनिक है। यह दस्तावेज फरवरी में एक अमेरिकी थिंक-टैंक ने दोबारा ढूंढ निकाला तो भारत में यह खबर बना।
सुरक्षा थिंक-टैंक और विशेष अकादमियां ‘प्रतिद्वंद्वियों’ की स्थिति का अध्ययन करती हैं और, एएमएस ही नहीं, चीनी राष्ट्रीय रक्षा विश्वविद्यालय भी इसी तरह की रिपोर्ट जारी करता है। चीन ने भारत का समग्र रूप से अध्ययन करने में जो मानव संसाधन निवेश किया है, उसे देखते हुए संभावना है कि कई और संस्थान और संगठन इस तरह के अध्ययन से जुड़े होंगे।
यह भी हैरतनाक है कि 2013 की रिपोर्ट में बीजिंग के लिए सिफारिश है कि वह भारत को चीनी क्षेत्र में धीमे-धीमे बढ़ते कदम को रोके। रिपोर्ट भारत की समुद्री क्षेत्रों में विस्तार की ओर भी ध्यान दिलाती है। अब सवाल यह उठता है कि क्या भारतीय उच्च रक्षा प्रबंधन तंत्र ने इन रिपोर्टों पर गौर किया था और अगर किया था तो क्या कदम उठाए गए।
गलवन घाटी और उसके साथ हुई घटनाओं की उसी तरह विस्तृत समीक्षा की दरकार है, जैसे वाजपेयी सरकार ने दिवंगत के. सुब्रह्मण्यम की अध्यक्षता में करगिल समीक्षा समिति का गठन किया था, जिसने रिकॉर्ड समय में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की थी। करगिल रिपोर्ट का एक संक्षिप्त संस्करण थोड़े बदलावों के साथ पुस्तक के रूप में भी उपलब्ध है और वह देश के उच्च रक्षा प्रबंधन में सुधार के लिए एक अमूल्य दस्तावेज है। रिपोर्ट में खुफिया जानकारी जुटाने और उसके मूल्यांकन के काम में सुधार को अहम माना गया है। लेकिन अफसोस यह है कि करगिल के 20 साल बाद भी कई खामियां दूर नहीं की जा सकी हैं। गलवन घाटी की घटना एक बार फिर राष्ट्रीय सुरक्षा चुनौतियों के प्रति जरूरी खामियों की गवाही दे रही है।
यह गलवन घाटी घटना के बाद भारत और चीन संबंधों में ‘लाभ-हानि’ की स्थितियों की ओर ध्यान खींचती है। इस एक वर्ष में दो एशियाई दिग्गज कहां पहुंचे हैं और उनके संबंधित फायदे और नुकसान क्या रहे हैं? भारतीय सैनिकों को शुरू में पैंगोंग झील के किनारे लद्दाख क्षेत्र में रणनीतिक रूप से चीनी सेना ने ‘भौंचक’ कर दिया, लेकिन बाद में कैलाश चोटियों पर चीन की पीएलए को बैकफुट पर लाकर भारतीय सैनिकों के कुछ हौसले बुलंद हुए। यह अलग कहानी है कि दिल्ली ने इस आंशिक बढ़त को भी कथित तौर पर दीर्घकालिक सुलह के नाम पर गंवा दिया, लेकिन पीएलए पीछे नहीं हटी और असहज स्थितियां बनी हुई हैं।
हालांकि इसका मतलब यह होगा कि पीएलए सामरिक बढ़त हासिल करने और खास सेक्टर में एलएसी को अपने हक में बदलने में सक्षम है। लेकिन मेरी राय में बीजिंग के लिए इसका रणनीतिक महत्व नकारात्मक है। यह उसकी उसी नीति का विस्तार था जिसमें चीन ने दक्षिण चीन सागर में ताकत का प्रदर्शन कर विभिन्न आसियान देशों (फिलीपींस और मलेशिया ताजा मिसालें हैं) के दावों को कुचला और फिर भारत के खिलाफ सैन्य कार्रवाइयों से झगड़ालू, बाहुबली की छवि को मजबूत करने की कोशिश की। यानी चीन ऐसा देश है जो दादागीरी करता है और उसे अंतरराष्ट्रीय नियम-कायदों और पारंपरिक मर्यादाओं की तनिक परवाह नहीं है। वह द्विपक्षीय समझौतों से भी मुकर जाता है।
शायद ही कोई अनुमान लगा सकता था कि एलएसी पर भारत और चीन के सैनिकों के बीच गतिरोध साल भर जारी रहेगा, क्योंकि चीन के राडार पर और भी कई मुद्दे हैं। इनमें अमेरिका के साथ संबंध शामिल हैं, जहां रेखाएं खिंच चुकी हैं और राष्ट्रपति जो बाइडन की टीम का अभी रुख स्पष्ट नहीं है। इसके साथ ही बीजिंग को हांगकांग में विरोध प्रदर्शनों पर काबू पाने की जरूरत है, सिंकियांग के प्रतिरोध पर पर्दा डालने और ताइवान पर नजर रखने की दरकार है, ताकि एक चीन का सपना बिखर न जाए।
भारत के लिए गलवान घटना से एक नए बिहान का अक्स भी उभर सकता है, बशर्ते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके करीबी सलाहकार ठीक से इसके रणनीतिक सबक पर गौर करें। भारतीय सेना का पेशेवराना नजरिया और राजनैतिक व्यावहारिकतावाद ने दिल्ली को एलएसी पर तनाव को कम करने की राह की ओर बढ़ाया। लेकिन एलएसी पर जान के नुकसान और 1993 के जियांग जेमिन-नरसिंह राव समझौते से पीएलए के पीछे हटने से चीन के बारे में वह भ्रम तार-तार हो गया है, जिसे मोदी सरकार खुद ही गढ़ रही थी। अहमदाबाद और मामल्लापुरम में प्रधानमंत्री मोदी और राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच बहुप्रचारित शिखर बैठकों की छवियां अब अतीत की बात हो गई हैं, जो दोनों देशों के बीच बेहतर संबंध दावा करती थीं।
हाल ही में मीडिया से बातचीत में विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने कहा, ‘‘मुझे लगता है कि रिश्ता दोराहे पर है। हम किस दिशा में बढ़ेंगे, यह इस बात पर निर्भर करता है कि चीनी पक्ष आम सहमति का पालन करता है या नहीं, क्या वह उन समझौतों पर अमल करेगा, जो हम दोनों ने कई दशक पहले किया है। पिछले वर्ष की घटनाओं से एकदम स्पष्ट है कि सीमा पर तनाव जारी रखकर अन्य क्षेत्रों में सहयोग नहीं किया जा सकता है।’’
हालांकि हकीकत मिली-जुली होगी, क्योंकि वैश्विक व्यापार और निवेश के मौजूदा तौर-तरीके में दोनों पक्षों को एक-दूसरे के साथ संबंधों को पूरी तरह से तोड़ना संभव नहीं है। 1962 की पराजय के बाद प्रधानमंत्री नेहरू की तरह प्रधानमंत्री मोदी को अब चीन और उसकी महती महत्वाकांक्षाओं की वास्तविकता का सामना करना होगा। साथ ही कोविड महामारी से हुए नुकसान को दरकिनार करते हुए भारत की व्यापक राष्ट्रीय क्षमता और उसके नागरिकों की भलाई के लिए उत्तरोत्तर पुनर्निर्माण का संकल्प लेना होगा। एक बात और, जिन चूकों की वजह से गलवान की घटना हुई, उससे भारत की सुरक्षा के लिए कई सबक मिले हैं। और उन्हें अल्पकालिक राजनैतिक फायदे के कारण दफन नहीं कर देना चाहिए।
(लेखक सेनानिवृत्त कॉमोडोर हैं और फिलहाल सोसाइटी फॉर पॉलिटिकल स्टडीज के डायरेक्टर हैं। ये विचार उनके निजी हैं।)