तारीख 11 मई 1973। पचास वर्ष पहले जिस दिन निर्माता-निर्देशक प्रकाश मेहरा की जंजीर प्रदर्शित हो रही थी, उस दिन फिल्म को लेकर कोई ‘बज’ नहीं था। बतौर निर्देशक उससे पहले वे तीन सफल फिल्में हसीना मान जाएगी (1969), मेला (1971) और समाधि (1972) बना चुके थे। लेकिन निर्माता के रूप में यह उनकी पहली फिल्म थी। उन्होंने अपनी सारी जमा-पूंजी उस फिल्म में लगा दी थी। बंबई के सिनेमाघरों से आ रही शुरुआती खबरें उन्हें बेचैन करने वाली थीं।टिकट खिड़कियां खाली थीं। चौथे दिन वे जब बांद्रा के थिएटर पहुंचे तो चौंक गए। दर्शकों की भारी भीड़ वहां मौजूद थी। पांच रुपये के टिकट की सौ रुपये में कालाबाजारी हो रही थी। अंदर सिनेमाहॉल में सलीम-जावेद लिखित फिल्म में इंस्पेक्टर विजय खन्ना की भूमिका निभा रहा एक दुबला-पतला नायक परदे पर अपनी जानदार आवाज में डायलॉग बोल रहा था, “जब तक बैठने को न कहा जाए शराफत से खड़े रहो। ये पुलिस स्टेशन है तुम्हारे बाप का घर नहीं।” दर्शक सीटियां बजा रहे थे। फिल्म सुपरहिट हो चुकी थी।
जंजीर में अमिताभ बच्चन के साथ जया भादुड़ी
प्रकाश मेहरा के लिए यह राहत की बात थी। जिस नायक अमिताभ बच्चन पर उन्होंने दांव खेला था, वह सफल रहा। अमिताभ की उससे पहले तकरीबन एक दर्जन फिल्में फ्लॉप हो चुकी थीं पर उनकी एकमात्र हिट फिल्म आनंद (1971) का सारा श्रेय उस जमाने के सुपरस्टार राजेश खन्ना को मिला था। उससे बड़ी बात थी कि जंजीर के किरदार को निभाने से उस दौर के कम से कम चार बड़े नायकों ने इनकार कर दिया था। फिल्म शुरुआत में धर्मेंद्र को लेकर बनने वाली थी और उन्होंने सलीम खान से फिल्म का आइडिया खरीद भी लिया था।
फिल्म को प्रकाश मेहरा धर्मेंद्र के भाई अजित देओल के साथ बनाने वाले थे, लेकिन बाद में दोनों के बीच विवाद हो गया और धर्मेंद्र फिल्म से बाहर हो गए। उन्होंने प्रकाश मेहरा को वह फिल्म दे दी। प्रकाश मेहरा अब देव आनंद के साथ फिल्म बनाना चाहते थे। प्राण उस फिल्म में शेर खान का जोरदार किरदार निभा रहे थे। सलीम खान उन्हीं के घर पर देव आनंद को उस फिल्म की स्क्रिप्ट सुनाने गए। स्क्रिप्ट सुनने के बाद देव आनंद ने सलीम खान के स्क्रिप्ट की तो प्रशंसा की, लेकिन उनसे कहा कि अगर वे किसी कारण से जंजीर में काम नहीं कर पाए तो उसे स्क्रिप्ट का खराब होना न समझा जाए।
दरअसल देव आनंद उस दौर के चोटी के अभिनेताओं में शुमार थे। उनकी जॉनी मेरा नाम (1970) और हरे रामा हरे कृष्णा (1972) दोनों बहुत बड़ी म्यूजिकल हिट फिल्में साबित हुई थीं। फिल्म इंडस्ट्री में यह चर्चा तब जोर से हुई कि देव आनंद ने स्क्रिप्ट पसंद आने के बाद भी उस फिल्म में काम करने से मना कर दिया क्योंकि फिल्म के नायक पर कोई गाना नहीं था। खबरें तो यहां तक आईं कि देव आनंद ने प्रकाश मेहरा को उस फिल्म को अपने नवकेतन बैनर तले बनाने की भी पेशकश की, जिसे प्रकाश ने अस्वीकार कर दिया।
प्रकाश मेहरा ने उसके बाद सलीम खान को अभिनेता राज कुमार को जंजीर की स्क्रिप्ट सुनाने को भेजा। बकौल सलीम खान, राज कुमार ने स्क्रिप्ट सुनकर उनसे कहा, “जानी, तुम हमारी कहानी लेकर आ गए।” दरअसल फिल्मों में आने से पहले राज कुमार बंबई के माहिम पुलिस स्टेशन में सब-इंस्पेक्टर थे और विजय के किरदार के तेवर उन्हें अपने तेवर से मिलते-जुलते लगे। उन्होंने प्रकाश से तुरंत फिल्म शुरू करने को कहा, लेकिन एक समस्या थी। राज कुमार उन दिनों मद्रास में एक फिल्म की शूटिंग कर रहे थे। उन्होंने प्रकाश से फिल्म मद्रास में शूट करने को कहा। प्रकाश को यह गवारा न था क्योंकि फिल्म की कहानी बंबई पर आधारित थी।
जंजीर के दिग्गज कलाकारों ने किया मना
सलीम-जावेद ने फिल्म दिलीप कुमार को भी सुनाई, लेकिन उन दिनों दिलीप की एक बहुत बड़ी फिल्म बी.आर. चोपड़ा की दास्तान (1972) बॉक्स ऑफिस पर औंधे मुंह गिर चुकी थी और जंजीर की भूमिका उन्हें ‘वन डायमेंशनल’ लगी क्योंकि इंस्पेक्टर का किरदार पूरी फिल्म में एक तरह का था। दिलीप कुमार ऐसा किरदार ढूंढ रहे थे जिसमें उन्हें अभिनय के अलग-अलग आयामों दिखाने का मौका मिलता।
सलीम-जावेद के लिए यह संकट की घड़ी थी। फिल्म को चार बड़े नायकों ने रिजेक्ट कर दिया था। जैसा जावेद अख्तर आउटलुक से कहते हैं, “अगर किसी स्क्रिप्ट को एक-दो बड़े स्टार रिजेक्ट कर देते हैं, तो उससे निर्माता दूरी बना लेते हैं। इसके बावजूद, प्रकाश मेहरा का जंजीर की स्क्रिप्ट में भरोसा बना रहा। वे कहते रहे, फिल्म तो इसी स्क्रिप्ट पर बनाऊंगा।”
आनंद हिट रही मगर श्रेय राजेश खन्ना को मिला
हीरो की तलाश के संघर्ष के दिनों में सलीम-जावेद और प्राण ने अमिताभ का नाम सुझाया। सलीम-जावेद ने अमिताभ की बॉम्बे टू गोवा (1971) और परवाना (1972) देख रखी थी, खासकर बॉम्बे टू गोवा का वह दृश्य जिसमें च्युइंग गम चबाते हुए शत्रुघ्न सिन्हा से लड़ते हैं। मन मारकर प्रकाश मेहरा ने उनकी सलाह मान ली। उसके बाद जो हुआ वह बॉलीवुड के इतिहास का हिस्सा है।
अमिताभ बच्चन दो साल के अंदर इंडस्ट्री के सबसे बड़े सुपरस्टार बन गए। जंजीर के बाद दीवार (1975) और शोले (1975) ने भी बॉक्स ऑफिस के रिकॉर्ड तोड़े। जावेद अख्तर का मानना है कि इंडस्ट्री के उस समय के बड़े नायकों ने जिन कारणों से भी जंजीर को रिजेक्ट कर दिया, उन्होंने अनजाने में अपने सामने एक ऐसा प्रतिद्वंद्वी खड़ा कर लिया जो उनसे कहीं आगे निकल गया। यही नहीं, एक समय ऐसा भी आया जब हिंदी सिनेमा को ‘वन मैन इंडस्ट्री’ कहा जाने लगा। अमिताभ के प्रादुर्भाव ने राजेश खन्ना के सुपरस्टारडम के युग का भी एक झटके में अंत कर दिया।
अमिताभ बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं, यह उन्होंने बाद में अपनी कई फिल्मों में सिद्ध किया, लेकिन जंजीर के ‘एंग्री यंग मैन’ ने ही उन्हें इंडस्ट्री में पांव जमाने में मदद की। सलीम-जावेद ने वह किरदार ऐसा रचा जिसमें अमिताभ बखूबी फिट हुए। जिस भूमिका को दिलीप कुमार जैसे पारखी अभिनेता ने ‘वन-डायमेंशनल’ कहकर रिजेक्ट किया, वही किरदार अमिताभ की यूएसपी बन गया- अपने अंदर गुस्से का गुबार रखने वाला नौजवान जो पूरी व्यवस्था से अकेले लड़ता है।
जंजीर से शुरु हुआ एंग्रीयंग मैन का सफर शहंशाह तक रहा जारी
दीवार के बाद त्रिशूल (1977), काला पत्थर (1979) से लेकर शहंशाह (1988) और अग्निपथ (1990) में उनके अभिनय को देखकर ऐसा लगा मानो एंग्री यंग मैन का किरदार उनके लिए ही बना था।
दरअसल जंजीर जिस वर्ष प्रदर्शित हुई, उस समय रोमांटिक म्यूजिकल फिल्मों का दौर था। उस समय चर्चा राज कपूर की बॉबी (1973) की थी जिसमें वे अपने बेटे ऋषि कपूर को पहली बार नायक के रूप में ला रहे थे। उसी वर्ष राजेश खन्ना की दाग (1973) रिलीज हुई, जिससे यश चोपड़ा ने निर्माता के रूप में अपने आप को स्थापित किया। राजेश खन्ना का जलवा बरकरार था और उनके बंगले के बाहर उनके प्रशंसकों की भारी भीड़ मौजूद रहती थी। धर्मेंद्र के 1973 में लोफर, यादों की बारात, जुगनू, कहानी किस्मत की, ब्लैकमेल, झील के उस पार, कीमत, फागुन और ज्वार भाटा जैसी फिल्में प्रदर्शित हुईं, जिनमें अधिकतर सुपरहिट हुई थीं।
इसके बावजूद अमिताभ का एंग्री यंग मैन सब पर भारी पड़ा। इसका श्रेय इस किरदार को गढ़ने वाले सलीम-जावेद को मिला। एंग्री यंग मैन उस दौर का प्रतिनिधि नायक बन गया। वह परदे पर साठ के दशक के चॉकलेटी हीरो से बिलकुल अलग था। सत्तर के दशक की शुरुआत में बढ़ती बेरोजगारी और भ्रष्टाचार, बड़े पैमाने पर हड़ताल के कारण युवाओं के मन में हताशा और निराशा थी। समाजवाद के सपनों को पूंजीवादी व्यवस्था ने धूमिल कर दिया था। इन सबकी परिणति दो साल बाद देश में इमरजेंसी के रूप में हुई। इसलिए दर्शकों को व्यवस्था से चुनौती लेने वाला गुस्सैल नायक रास आया। ऐसा नायक जो कश्मीर की वादियों में अपनी नायिका के साथ पेड़ों के इर्द-गिर्द गाने नहीं गाता। उस दौर में जब राजेश खन्ना और देव आनंद की मुस्कान पर लाखों फिदा थे, उस समय एक ऐसे नायक के किरदार की कल्पना सिर्फ सलीम-जावेद कर सकते थे, जो परदे पर बमुश्किल हंसता हो।
हम भी एंग्रीयंग मैन
इस किरदार ने सलीम-जावेद की मकबूलियत को उस मुकाम पर पहुंचा दिया जहां उनका पारिश्रमिक नायकों से भी अधिक हो गया। सलीम खान ने अपने एक हालिया इंटरव्यू में कहा कि फिल्म दोस्ताना (1980) के लिए निर्माता यश जौहर से उन्हें अमिताभ बच्चन से भी पचास हजार रुपये अधिक पारिश्रमिक मिला। उस इंडस्ट्री में जहां स्क्रीनराइटरों को इज्जत और मेहनताना बेहद कम मिलता था, वहां यह माउंट एवरेस्ट फतह करने के बराबर था।
सलीम खान के अनुसार, साठ के दशक में एक बार उन्होंने उस दौर में प्यासा (1957) जैसी मशहूर फिल्म के लेखक अबरार अल्वी को कहा था कि एक वक्त ऐसा आएगा जब फिल्म का लेखक हीरो से अधिक मेहनताना लेगा। अल्वी साहब को तब लगा था कि सलीम खान मजाक कर रहे हैं, लेकिन सत्तर का दशक खत्म होते-होते सलीम-जावेद की जोड़ी ने इसे कर दिखाया।
सलीम-जावेद के बाद के युग के स्क्रीनराइटर उसे बरकरार न रख सके और उनकी स्थिति फिर वैसी ही हो गई, जैसे पहली थी। जावेद अख्तर कहते हैं कि उन्होंने अपनी शर्तों पर काम करके वह मुकाम हासिल किया। जंजीर की सफलता के बाद भी वे महीनों बेकार बैठे रहे क्योंकि उन्होंने स्क्रिप्ट, पारिश्रमिक और पोस्टरों पर अपने नाम जैसी शर्तों पर कभी समझौता नहीं किया। दूसरा कारण यह था कि उन्होंने लगातार हिट फिल्में भी दीं, जो बाकी लेखक नहीं कर पाए। उनके बाद के स्क्रीनराइटरों ने निर्माताओं को नो (नहीं) कहना भी नहीं सीखा।
दिलचस्प यह है कि सलीम-जावेद ने एंग्री यंग मैन का किरदार सोच-समझकर नहीं गढ़ा, लेकिन उस किरदार ने हिंदी सिनेमा को पूरी तरह बदल दिया। उनके बाद के लेखकों ने भी व्यवस्था के खिलाफ लड़ने वाले एंग्री यंग मैन के कई अलग-अलग चरित्र गढ़े, लेकिन वे सलीम-जावेद के लिखे और अमिताभ बच्चन अभिनीत किरदारों जैसे बिलकुल न थे।
आज पचास साल बाद वह किरदार कालजयी हो चुका है, जिसका श्रेय उसे गढ़ने वाले लेखक द्वय सलीम खान और जावेद अख्तर को जाता है। स्टार सिस्टम को स्थायित्व प्रदान करने वाली फिल्म इंडस्ट्री के इतिहास में यह अपने आप में इकलौता उदाहरण है जब एक किरदार के गढ़ने के कारण लेखकों की ऐसी तूती बोली हो।
एंग्रीयंग मैन का सफर
जंजीर (1973)
निर्माता-निर्देशक प्रकाश मेहरा की फिल्म। सलीम-जावेद का लेखन। इस फिल्म से अमिताभ बच्चन की एंग्री यंग मैन छवि स्थापित हुई। अमिताभ बच्चन के अलावा जया बच्चन, प्राण, ओम प्रकाश, अजीत, इफ्तिखार ने मुख्य भूमिकाएं निभाईं। फिल्म का मुख्य किरदार विजय अपने माता-पिता की हत्या के बाद असामान्य बचपन गुजारता है। माता-पिता के हत्यारे की तलाश उसे पुलिस विभाग में इंस्पेक्टर बनाती है और उसका सामना शेर खान से होता है।
दीवार (1975)
निर्देशक यश चोपड़ा की फिल्म। सलीम-जावेद का लेखन। मुख्य भूमिका अमिताभ बच्चन, शशि कपूर, नीतू सिंह, परवीन बाबी, निरूपा रॉय ने निभाई। पिता के साथ हुए अपमान के कारण विजय अपने जीवन में ऐसी राह पकड़ता है जो जेल की सलाखों तक जाती है। विजय को जेल तक पहुंचाने का जिम्मा विजय के ही छोटे भाई रवि को मिलता है। विजय और रवि के आमने-सामने आने से मां सुमित्रा पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ता है।
त्रिशूल (1978)
निर्देशक यश चोपड़ा की फिल्म। सलीम-जावेद का लेखन। मुख्य भूमिका में अमिताभ बच्चन, संजीव कुमार, वहीदा रहमान, राखी, शशि कपूर नजर आए। मुख्य किरदार राज कुमार गुप्ता एक अमीर औरत से शादी करने के लिए अपने प्यार शांति को बीच मझधार में छोड़ देता है। शांति को राज कुमार गुप्ता से एक बेटा होता है, जिसका नाम विजय होता है। विजय अपनी मां शांति की मौत के बाद राज कुमार गुप्ता से हर नाइंसाफी का बदला लेने का प्रयास करता है।
काला पत्थर (1979)
निर्देशक यश चोपड़ा की फिल्म। सलीम-जावेद का लेखन। मुख्य भूमिका अमिताभ बच्चन, शशि कपूर, राखी, संजीव कुमार, नीतू सिंह, परवीन बाबी, शत्रुघ्न सिन्हा ने निभाई। एक कायराना हरकत के कारण फिल्म के मुख्य किरदार विजय को समाज द्वारा तिरस्कृत कर दिया जाता है। विजय नई जिंदगी शुरू करने की इच्छा से कोयले की खदान में काम करना शुरू करता है। अचानक आई बाढ़ में विजय अपने साथियों के साथ कोयले की खदान में फंस जाता है।
अग्निपथ (1990)
निर्देशक मुकुल आनंद की फिल्म। कादर खान और संतोष सरोज का लेखन। मुख्य भूमिका अमिताभ बच्चन, मिथुन चक्रवर्ती, डैनी डेन्जोंगपा, माधवी, नीलम ने निभाई। मुख्य किरदार विजय के पिता की हत्या कांचा चीना करता है और विजय अपनी मां के साथ संघर्षपूर्ण जीवन जीने को मजबूर हो जाता है। विजय का एक लक्ष्य होता है और वह है कांचा चीना से बदला। इस बदले की आग में विजय दिन-रात जलता है और अग्निपथ पर चलता है।
कालिया (1981)
निर्देशक टीनू आनंद की फिल्म। टीनू आनंद और इंदर राज आनंद का लेखन। मुख्य भूमिका में अमिताभ बच्चन, कादर खान, आशा पारेख, अमजद खान, परवीन बाबी, प्राण नजर आए। मुख्य किरदार कल्लू खलनायक साहनी सेठ से अपने बड़े भाई के साथ हुए जुल्म का बदला लेने के लिए जुर्म की दुनिया में कदम रखता है और कालिया बनता है। बदले की आग में कालिया जुर्म के दलदल में धंसता जाता है।
मिली (1975)
निर्देशक हृषिकेश मुखर्जी की फिल्म। राही मासूम रजा का लेखन। मुख्य भूमिका अमिताभ बच्चन, जया बच्चन, अशोक कुमार, असरानी, परीक्षित साहनी, अरुणा ईरानी ने निभाई। मुख्य किरदार शेखर, जो डिप्रेशन के कारण गुस्सैल शख्सियत का मालिक होता है और शराब को अपना सहारा मानता है, उसकी जब मिली नामक लड़की से जान-पहचान होती है तो जीवन रूपांतरित हो जाता है। सुख का यह क्षण तब निराशा में बदल जाता है जब मिली को लाइलाज बीमारी घेर लेती है। इस बीमारी के संघर्ष में शेखर जीवन के नए अर्थ समझता है।