30 अगस्त 2019 को केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय द्वारा अप्रैल से जून की तिमाही के लिए जीडीपी ग्रोथ के आंकड़े जारी किए गए। इस तिमाही में पिछले छह साल में सबसे कम जीडीपी ग्रोथ, यानी पांच प्रतिशत आंकी की गई है। पूर्व में आठ प्रतिशत से भी ज्यादा ग्रोथ दिखा रही अर्थव्यवस्था, और जिसे दुनिया की सबसे तेज गति से बढ़ने वाली बड़ी अर्थव्यवस्था माना जाता हो, के लिए इस प्रकार के समाचार विचलित करने वाले हैं। लेकिन देखना यह है कि क्या यह धीमापन किसी गहरी मंदी की ओर संकेत कर रहा है या एक मध्यम स्थिति की ओर? क्या यह धीमापन जल्दी समाप्त हो सकता है या लंबा भी चल सकता है? इस संबंध में अंतरराष्ट्रीय सलाहकार फर्म गोलमैन सैक का कहना है कि यह धीमापन धीरे-धीरे समाप्त होने वाला है। एशियाई विकास बैंक ने भी रिजर्व बैंक द्वारा अधिशेष हस्तांतरित करने से अर्थव्यवस्था को गति मिलने के संकेत दिए हैं। यानी अर्थव्यवस्था में धीमापन होते हुए भी रिकवरी की संभावनाएं सीधे तौर पर दिखाई दे रही हैं।
पिछली तिमाही में जीडीपी ग्रोथ में आई कमी की तह में जाएं तो पता चलता है कि हालांकि सामूहिक आंकड़ों के अनुसार इस तिमाही में पिछले वर्ष की तुलना में विकास दर 7.7 प्रतिशत से घटकर मात्र पांच प्रतिशत रह गई है, लेकिन यदि सेक्टर के अनुसार आंकड़ों को देखें तो अर्थव्यवस्था के तीन प्रमुख सेक्टर ऐसे हैं जिनमें सात प्रतिशत से ज्यादा ग्रोथ हुई है। वे हैं गैस, इलेक्ट्रिसिटी, वॉटर सप्लाई और अन्य सेवाएं (8.6 प्रतिशत), व्यापार, होटल, ट्रांसपोर्ट, संचार और ब्रॉडकास्टिंग (7.1 प्रतिशत), पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन, प्रतिरक्षा और अन्य सेवाएं (8.5 प्रतिशत)। कृषि में ग्रोथ 2 प्रतिशत, खनन में 2.7 प्रतिशत और मैन्युफैक्चरिंग में 0.2 प्रतिशत ही हुई है। कंस्ट्रक्शन में ग्रोथ 5.7 प्रतिशत और वित्तीय सेवाओं, रियल एस्टेट और प्रोफेशनल सेवाओं में 5.9 प्रतिशत ग्रोथ आंकी गई है। पिछली तिमाही में जिस प्रकार से ऑटोमोबाइल क्षेत्र में मांग में भारी गिरावट देखी गई, उसके चलते जीडीपी ग्रोथ के ये आंकड़े कोई आश्चर्यजनक नहीं हैं।
शेष दुनिया के साथ तुलना भी है जरूरी
प्रश्न यह है कि क्या यह मंदी भारत केंद्रित है या इसका शेष दुनिया के साथ भी संबंध है? और यदि है तो हमें भारत की जीडीपी के धीमेपन की तुलना दूसरे मुल्कों से करनी होगी। आंकड़े बताते हैं कि पिछली तिमाही में शेष दुनिया के अधिकांश देशों में धीमापन आया है। अमेरिका में इस वर्ष की पहली तिमाही में ग्रोथ 3.1 प्रतिशत थी, लेकिन दूसरी तिमाही में मात्र 2.1 प्रतिशत दर्ज की गई। यूरोपीय संघ में पहली तिमाही की ग्रोथ 0.4 प्रतिशत थी, जो दूसरी तिमाही में घटकर मात्र 0.2 प्रतिशत रह गई। चीन की सरकार ने भी जो आंकड़े दिए हैं, उसके अनुसार चीन की ग्रोथ की दर पहली तिमाही की 6.4 प्रतिशत से घटकर दूसरी तिमाही में 6.2 प्रतिशत पर आ गई। आज विश्व के सब देश आर्थिक रूप से एक-दूसरे के साथ जुड़े हुए हैं और एक देश की मंदी दूसरे को भी प्रभावित करती है। पिछले कुछ समय से चल रही वैश्विक मंदी के चलते भारत पर उसका प्रभाव पड़ना स्वाभाविक ही है। जानकारों का यह भी कहना है कि दुनिया में अर्थव्यवस्थाओं की गति धीमी होने के पीछे तेल की बढ़ती कीमतें जिम्मेदार रही हैं। राहत की बात यह है कि पिछले कुछ समय से तेल की कीमतें घटने लगी हैं। ऐसा लगता है कि तेल की कीमतों में यह गिरावट भारत समेत पूरी दुनिया को मंदी से बाहर लाने में मददगार साबित हो सकती है।
धीमेपन के पैमाने
अर्थव्यवस्था की गति को सामान्यतः मांग की गति से मापा जाता है। एक अर्थव्यवस्था में चार स्रोतों से मांग सृजित होती है। उसमें से पहला स्रोत है उपभोक्ता मांग। उपभोक्ता स्थायी और गैर-स्थायी दोनों प्रकार की वस्तुओं की मांग करते हैं। यदि उसका हिसाब लगाया जाए तो पिछली तिमाही में सभी उपभोक्ता-वस्तु बनाने वाली कंपनियों की मांग में वृद्धि हुई है। हिंदुस्तान लीवर की बिक्री में पिछली तिमाही (अप्रैल-जून) में सात प्रतिशत, मेरिको में पांच प्रतिशत, डाबर इंडिया में एक प्रतिशत, कॉलगेट में चार प्रतिशत और नेस्ले की बिक्री में 11 प्रतिशत वृद्धि दर्ज हुई है। इसी तिमाही में बिग बाजार की बिक्री में आठ प्रतिशत और गृहस्थों को बैंक ऋणों में 16.6 प्रतिशत सालाना की दर से वृद्धि दर्ज हुई है। एयर कंडीशनरों की मांग में पांच प्रतिशत, वाशिंग मशीन में तीन प्रतिशत और रेफ्रिजरेटरों की बिक्री में 11 प्रतिशत वृद्धि दर्ज हुई है। यानी कहा जा सकता है कि चाहे एयर कंडीशनर, वॉशिंग मशीन और रेफ्रिजरेटर जैसी स्थायी उपभोक्ता वस्तुएं हों या रोजमर्रा की गैर-स्थायी उपभोक्ता वस्तुएं हों, अर्थव्यवस्था में धीमेपन के लक्षण नहीं दिखाई देते।
अर्थव्यवस्था में मांग का दूसरा स्रोत होता है, सरकारी खर्च। अप्रैल-जून की तिमाही में पिछले वर्ष की तुलना में सरकारी खर्च में 8.84 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, जो किसी भी दृष्टि से संतोषजनक नहीं है। मांग का तीसरा स्रोत होता है, निवेश मांग। पिछले वर्ष की इसी तिमाही की तुलना में इस वर्ष निवेश की ग्रोथ पहले से जरूर कम हुई है, और यह मात्र चार प्रतिशत रही है। मांग का चौथा स्रोत होता है, निर्यात मांग। निर्यात नहीं बढ़ पा रहे हैं, यह सभी स्वीकार करते हैं और दुनिया में चल रहे व्यापार युद्ध के चलते इस संबंध में स्थिति डांवाडोल रहने वाली है। लेकिन यह भी सच है कि यह स्थिति विश्व भर में है।
ऑटोमोबाइल में है संकट
हुआ यूं कि इस बीच ऑटोमोबाइल क्षेत्र में मांग में भारी कमी दर्ज हुई। कॅमर्शियल और निजी दोनों प्रकार के वाहनों की मांग में कमी आई है। यात्री वाहनों की मांग हालांकि 2018 से ही कम होती जा रही थी, लेकिन अप्रैल-जून तिमाही के हर माह में यह कमी दर्ज हुई। यात्री वाहनों की मांग अप्रैल में 17.1 प्रतिशत, मई में 20.6 प्रतिशत और जून में 17.5 प्रतिशत सालाना की दर से घट गई।
कॅमर्शियल वाहनों की मांग जो जनवरी-मार्च की तिमाही में स्थिर थी, अप्रैल में छह प्रतिशत, मई में 10 प्रतिशत और जून में 12.3 प्रतिशत सालाना की दर से घटी। तिपहिया वाहनों की स्थिति भी लगभग ऐसी ही थी। दुपहिया वाहनों की मांग अप्रैल, मई, जून में क्रमशः 16.4 प्रतिशत, 6.7 प्रतिशत और 11.7 प्रतिशत की दर से घटी। यह भी सही है कि इस क्षेत्र में मांग घटने, बिक्री न होने के कारण स्टॉक बढ़ने से उद्योगबंदी के आसार हो रहे हैं और इस क्षेत्र में रोजगार भी घट रहा है।
क्या मंदी से है ऑटोमोबाइल संकट?
समझना होगा कि जहां निर्यात में मंदी अंतरराष्ट्रीय कारणों से होती है, ऑटोमोबाइल की मांग में कमी घरेलू कारणों से है। घरेलू कारण मंदी नहीं बल्कि बैंकिंग और वित्तीय है, यह बात स्वयं ऑटोमोबाइल क्षेत्र के लोग कहते हैं। गौरतलब है कि पिछले कुछ समय से भारतीय बैंकिंग क्षेत्र एनपीए की समस्या से जूझ रहा है। इसका बैंकों द्वारा दिए जाने वाले ऋणों पर खासा असर पड़ा। दूसरी तरफ एनबीएफसी यानी गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियां भी भारी संकट झेल रही हैं। ‘आइएलएफएस’ घोटाले के बाद एनबीएफसी क्षेत्र में भारी संकट आ गया है। इन कंपनियों की ऋण देने की क्षमता तो घटी ही है, बैंक भी इन्हें ऋण देने से कतरा रहे हैं। गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियां जो बड़ी मात्रा में वाहन और घर खरीदने के लिए ऋण दे रही थीं, उनकी क्षमता में भारी कमी आई है। एनबीएफसी संकट के चलते लघु उद्योगों के ऋणों पर भी प्रभाव पड़ा है।
अर्थव्यवस्था में रियल एस्टेट ग्रोथ को बढ़ाने का काम कर सकता है। यदि घरों की मांग देखें तो पता चलता है कि बैंकों द्वारा रियल एस्टेट के लिए पहले से ज्यादा तेजी से ऋण दिए गए। इसका असर यह हुआ कि घर ज्यादा बिके। लेकिन उसके बावजूद बिना बिके घरों की संख्या में कमी नहीं आ रही। लेकिन इस बार के बजट में अफोर्डेबल हाउसिंग के लिए जो बल दिया गया है, उसका असर जल्दी ही घरों की मांग पर पड़ेगा। अब ज्यादा कीमत वाले घर भी अफोर्डेबल की श्रेणी में आ गए हैं। यही नहीं, हाउसिंग ऋणों की अदायगी में इनकम टैक्स में छूट को भी खासा बढ़ाया गया है। यह सब उपाय हाउसिंग की मांग को बढ़ाने वाले हैं।
लिक्विडिटी और मांग बढ़ाने के रिजर्व बैंक के संकल्प को भी सकारात्मक रूप से देखा जाना चाहिए। वास्तव में रिजर्व बैंक की अभी तक की सोच से यह अलग है। पहली बार रिजर्व बैंक द्वारा महंगाई को रोकने के प्रयासों से इतर वास्तविक अर्थव्यवस्था की तरफ ध्यान दिखाई दे रहा है। यह एक शुभ संकेत है। रिजर्व बैंक अर्थव्यवस्था को गति प्रदान करने के लिए कई नए उपाय कर सकता है।
क्या है समाधान?
हर बार की तरह कॉरपोरेट जगत सरकार पर दबाव बना रहा है कि उसके लिए राहत पैकेज का इंतजाम हो। उनका कहना है कि सरकार समस्याग्रस्त आटो उद्योग को सब्सिडी और करों में छूट दे। लेकिन सरकारी खजाने की सीमाओं के चलते यह सही कदम नहीं होगा। आज जरूरत इस बात की है कि स्थायी उपभोक्ता वस्तुओं, घरों और वाहनों की मांग बढ़ाई जाए। इस काम में प्रमुख भूमिका बैंकों की होगी। पिछले काफी समय से बैंकों का क्रेडिट बहुत सुस्त गति से बढ़ रहा है। रिजर्व बैंक द्वारा बैंकों की लिक्विडिटी बढ़ाना इसके लिए जरूरी कदम होगा। हालांकि पिछले एक साल में रेपो रेट में 1.1 प्रतिशत की कमी की दर्ज गई है, लेकिन उसमें और कमी की संभावना है। ब्याज दरों को घटाकर हम मांग को बढ़ा सकते हैं। उधर सरकारी खर्च बढ़ाने के लिए राजस्व बढ़ाना तो जरूरी है ही, लेकिन वर्तमान मंदी की स्थिति में यदि सरकार राजकोषीय घाटे को थोड़ा बढ़ा भी दे तो उससे कोई विशेष खतरा नहीं है।
सरकारी सिस्टम हो दुरूस्त
सरकार को भी अपनी मशीनरी को चुस्त करना होगा। जिन लघु और अन्य उद्योगों के बिल सरकार के पास बकाया हैं, उनका तुरंत भुगतान सिस्टम में लिक्विडिटी बढ़ा सकता है। जीएसटी के बकाया रिफंडों को भी तेजी से जारी किया जाना चाहिए, ताकि व्यवसायियों के पास चालू पूंजी बढ़ सके। गूगल, माइक्रोसॉफ्ट, उबर समेत कई विदेशी कंपनियां अपने व्यवसाय को भारत में कम और विदेशों में ज्यादा दिखाकर टैक्स देने से बच रही हैं। इसके लिए सरकार को अपने सिस्टम को दुरुस्त करना होगा, ताकि इससे राजस्व बढ़ाकर खर्चों की पूर्ति की जा सके।
(लेखक स्वदेशी जागरण मंच के नेशनल को-कनवीनर हैं)