कोरोना के वैश्विक संक्रमण के दौर में जब टीका और दवा उपलब्ध नहीं है तब लोग रोग निरोधक क्षमता विकसित कर इससे मुकाबला कर रहे हैं। अंग्रेजी या देशी चिकित्सा वालों की भी यही राय है। पिज्जा, बर्गर के दौर में पुरानी परंपराएं, खान-पान, औषधीय महत्व के पौधों का स्वाद लोगों की जुबान पर चढ़ रहा है। बात देशी खान-पान की हो तो जनजातीय भोजन की चर्चा जरूरी है। ऐसी मान्यता है कि आदिवासी सिर्फ स्वाद और पेट भरने के लिए भोजन नहीं करते बल्कि सेहत का भी ध्यान रखते हैं। वास्तव में उनके पारंपरिक भोजन में इस तरह की सामग्री शामिल होती है, जिसमें कई के बारे में आम आदमी जानता भी नहीं है। साग की इतनी किस्म हैं कि गिनते रह जाएं। ये सिर्फ भोजन का हिस्सा नहीं हैं, रोग से बचाव और रोग होने पर उसे दूर करने के लिए भी इस्तेमाल किया जाता है। कई फूल हैं, जिनका औषधीय महत्व है। हालांकि, अभी भी आदिवासियों की भोजन सामग्री और उसमें पाए जाने वाले पोषक तत्वों का वैज्ञानिक अनुसंधान बाकी है। इस काम मे पहले ही देर हो चुकी है। यदि और देर हुई तो इन्हें पहचानने वाले भी नहीं रहेंगे।
झारखंड टीआरआइ (जनजातीय शोध संस्थान) के निदेशक रणेंद्र कुमार कहते हैं, “संक्रमित होने पर चिकित्सक विटामिन सी, आयरन, जिंक, फॉलिक एसिड आदि जिस तरह की दवाएं देते हैं उस तरह के तत्व तो इन सागों में भरपूर हैं, जो आदिवासी इस्तेमाल करते रहे हैं।” रोग प्रतिधक क्षमता बढ़ाने वाले कई किस्म के साग कोविड संक्रमण से मुकाबला करने में बहुत प्रभावी हैं। संक्रमण से मुकाबले के लिए शरीर को मजबूत रखना जरूरी है। रुगड़ा, खुखरी (स्वााभाविक रूप से पैदा हुआ या कहें जंगली मशरूम) में प्रचुर मात्रा में प्रोटीन, आयरन रहता है। रणेंद्र कुमार का खुद का परिवार कोरोना पॉजिटिव हो गया था। उन्होंने बताया कि वे गिलोय, चिरैता और कालमेघ का इस्तेमाल करते रहे। कालमेघ और गिलोय संक्रमण से मुकाबला करने में बहुत कारगर है। औषधीय पौधों पर और काम करने के लिए टीआरआइ ने पटना के ए एन सिन्हा समाज अध्ययन संस्थान को जिम्मेदारी सौंपी है।
होड़ोपैथी (आदिवासियों की चिकित्सा पद्धति) एथनिक मेडिसिन डॉक्टर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया टोडांग ट्रस्ट की महासचिव, सोशल एक्टिविस्ट वासवी किड़ो शराब के लिए बदनाम लेकिन पोषक तत्व से भरपूर महुआ को नया आयाम दे रही हैं। वे महुआ के लड्डू और केक बाजार में उतार रही हैं। वे बताती हैं कि इसमें प्रोटीन और आयरन भरपूर मात्रा में है। स्वयंसेवी संगठन के माध्यम से बड़ी संख्या में महिलाओं को इससे जोड़ा गया है। वे बताती हैं कि फूड एवं एग्रीकल्चर ऑर्गनाइजेशन, यूनाइटेड नेशन ने यहां के फूलों के पोषक तत्व के प्रति दिलचस्पी दिखाई है। उन्होंने पलाश, मुनगा, जीरहुल, कोयनार, सनई, महुआ के फूलों पर काम किया है। इन फूलों में प्रोटीन, आयरन, कैल्शियम आदि बहुतायत में पाया जाता है। वे फूलों की दस अन्य किस्मों पर काम करने जा रही हैं। वे कहती हैं, खाने के दो सौ से ज्यादा किस्मों के साग हैं और कंद की संख्या इससे भी ज्यादा है। झारखंड में बंस करील यानी बांस की कोपल सब्जी, अचार, चटनी के रूप में इस्तेमाल में लाई जाती है। इसे यौनशक्ति वर्धक भी माना जाता है। वासवी बताती हैं, इसमें विटामिन सी और कैल्शियम भरपूर मात्रा में होता है। उनके अनुसार आदिवासी पेट भरने के लिए नहीं बल्कि भोजन में औषधीय गुणों का भी ध्यान रखते हैं। यह उनकी परंपरा का अंग है। सिंदुआर के पत्ते, गिलोय और सापारोम कोरोना के संक्रमण से लड़ने के लिए मुफीद हैं। वे कहती हैं कि चिरौंजी जिसे सूखे मेवे के रूप में इस्तेमाल किया जाता है, बाजार में 1200 रुपये किलो मिलता है। मगर इसकी खेती नहीं होती, आदिवासी इसे जंगल से इकट्ठा करते हैं और बाहर इसकी प्रोसेसिंग होती है। यह भी बहुत पौष्टिक होता है।
जनजातीय समाज से आने वाली अंजु लता के पास तो सागों का खजाना है। वे गुमला जिले के सिसई की मूल निवासी हैं और खूंटी के बिरसा कॉजेल में नागपुरिया (जनजातीय भाषा) पढ़ाती हैं। उन्होंने सागों पर शोध के क्रम में आदिवासी समाज द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले 50-52 किस्मों के सागों की सूची तैयार की है और उनका अध्ययन किया है। उन्होंने विभिन्न स्रोतों और आदिवासियों की परंपरा के आधार पर उनके गुणों के बारे में जानकारी जुटाई है। इन सागों की सामान्यत: खेती नहीं की जाती, मौसम में ये जंगलों या मैदानों में यूं ही उग आते हैं। आउटलुक ने उनसे इन सब मुद्दों पर लंबी बात की। फुटकल साग पेड़ के पत्ते हैं, तो चाकोड़ साग छोटे पौधे के पत्ते। दोनों को सुखाकर पाउडर बना लिया जाता है। आदिवासी समाज इसे चावल पसाने से निकलने वाले माड़ में टमाटर आदि मिलाकर दाल की तरह इस्तेमाल करता है। शकुंतला के अनुसार दस्त, पेचिश, मरोड़ में फुटकल साग बहुत कारगर है। इसका अचार और चटनी भी बनाते हैं। चाकोड़ साग पीलिया, शुगर के मरीजों के लिए उपयोगी है। इससे सर्दी-खांसी में भी राहत मिलती है और इसके सेवन से आंखों की रोशनी बढ़ती है। चर्म रोग में ताजा पत्ते का रस इस्तेमाल किया जाता है। मुंह में छाले आने पर इसके पाउडर को पानी में मिला कुल्ला करने से राहत मिलती है। कुष्ठ रोग और जहरीले सांप, बिच्छू, बिढ़नी के काटने पर भी इसे पीस कर लगाया जाता है। चाकोड़ साग भी दो तरह का होता है- बड़ा चाकोड़ का इस्तेमाल अमूमन खाने में नहीं होता। पीलिया रोग में इसका इस्तेमाल किया जाता है। बेंग साग (ब्राह्मी) भी आदिवासियों में बहुत प्रचलित है। इसे ताजा और सुखाकर दोनों तरीके से खाया जाता है। यह स्मरण शक्ति बढ़ाने के साथ पीलिया, शुगर, पेशाब कम होने, पेट गरम होने, ल्यूकोरिया, चर्म रोग एवं कुष्ठ रोग में भी कारगर है। जनजातीय समाज की मान्याता है कि जिन्हें नींद न आने की परेशानी हो उनके लिए सुनसुनिया साग उपयोगी है। चिमटी साग जायकेदार होता है और इससे पेट की गर्मी मिटती है। साथ ही यह शुगर के मरीजों के लिए भी उपयोगी है। पुनर्नवा को आदिवासी खपरा साग के नाम से पुकारते हैं। सिलियारी, तेतहरपल्लावा, करनी, कोयनार, गुरु, अम्तीम, हिरनिचा, हुरहुरिया, लेदरा, मट्ठा जैसे कई तरह के साग हैं। सहजन के पत्ते, फल, तना सब उपयोगी होते हैं। यह शुगर, हार्ट, बीपी के मरीजों के लिए उपयोगी है। इसमें कैल्शियम की प्रचुर मात्रा होती है। सिमटते जंगल के बीच इस तरह के औषधीय पेड़-पौधे धीरे-धीरे गुम हो रहे हैं। लोगों तक ये पहुंचे, तो कुपोषण से भी राहत मिलेगी।