जनादेश 2024 के बाद एनडीए सरकार का पहला बजट क्या अर्थव्यवस्था की मंद चाल में कुछ तेजी ला पाएगा? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने केंद्रीय बजट 2024-25 को ‘2047 तक विकसित भारत’ की दिशा में उठाया गया कदम बताया है, जिसके केंद्र में ‘गरीब, युवा, महिला और अन्नदाता’ हैं। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन ने अपने लगातार सातवें और नई सरकार के पहले बजट में रोजगार, महंगाई, सार्वजनिक व्यय, और अपने खास एनडीए सहयोगियों द्वारा शासित राज्यों के लिए बजट आवंटन की बात की है। ये सहयोगी बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडु हैं। बजट में मध्यवर्ग के लिए टैक्स स्लैब में छोटे-मोटे बदलाव, कारपोरेट टैक्स में कटौती और इन्फ्रास्ट्रक्चर पर जोर है। विपक्ष ने पहले ही दिन बजट को खारिज कर दिया, संसद के बाहर प्रदर्शन किया और बहस के दौरान बजट को ‘कुर्सी बचाओ' बताया। बजट पर परिचर्चा के दौरान प्रतिपक्ष के नेता राहुल गांधी ने लोकसभा में ओबीसी और एससी/एसटी के प्रतिनिधित्व का सवाल उठाते हुए जातिगत जनगणना की मांग फिर से उठा दी, तो उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने इस सरकार को गिरने वाली सरकार बता दिया। इसके बाद सदन में अच्छा-खासा हंगामा हुआ। भाजपा के सांसद अनुराग ठाकुर ने राहुल गांधी पर टिप्पणी कर डाली कि जिसकी जाति का पता नहीं वह जातिगत जनगणना की बात कर रहा है। कुल मिलाकर बहस पर संसदीय परिचर्चा मूल मुद्दे से भटक गई, हालांकि नीति आयोग की बैठक में बजटीय आवंटन का असर साफ दिखा जब कुछ मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली उस बैठक में शामिल नहीं हुए। सत्ताधारी दल ने इस बहिष्कार पर विपक्ष के ऊपर आरोप लगाया कि वह संघीयता का अपमान कर रहा है, लेकिन विपक्ष के दलों ने पलट कर आरोप लगाया है कि केंद्र की भाजपा सरकार राजकोषीय संघवाद का उल्लंघन कर रही है। इस संदर्भ में पंजाब की कहानी आगामी पन्नों में विस्तार से पढ़ें, लेकिन बजट से इस देश के मध्यवर्ग समेत सभी वर्गों को क्या मिला है, इस पर हरिमोहन मिश्र ने जाने-माने अर्थशास्त्री प्रोफेसर संतोष मेहरोत्रा से बात की है, जो जेएनयू के पूर्व प्रोफेसर और फिलहाल ब्रिटेन की बाथ यूनिवर्सिटी में विजिटिंग प्रोफेसर हैं। उन्होंने इस बातचीत में बेबाकी के साथ बजट की बारीकियां समझाई हैं। खास अंश:
केंद्रीय बजट 2024-25 को कैसे आंकते हैं?
बजट को हमारे जैसे विकासशील देश में कुछ ज्यादा ही अहमियत दी जाती है। सही है कि बजट नीतिगत दिशा तय करता है और उससे कुछ अनुमानित आंकड़ों का अंदाजा लगता है। यह बजट सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के जनवरी और मार्च के दो अनुमानों पर आधारित है। साल में चार बार आंकड़े आते हैं, जिससे वार्षिक जीडीपी तय होती है। फिर, इस सरकार के आंकड़ों को इनफ्लेटेड बताया जाता है। फिर भी देखें, तो मोटे तौर पर वित्त मंत्री जिन चार वर्गों ‘गरीब, युवा, महिला और किसान’ की बात कर रही हैं, यह बजट उसमें किसी को कुछ भी ज्यादा नहीं दे पाता है। वित्त मंत्री ने प्रधानमंत्री से यह पदावली उधार ली है, लेकिन उसे फिलहाल अलग रखें। दरअसल इसका फोकस जिस राजकोषीय संतुलन की ओर है और यह लगातार इस सरकार के बजटों में दिखा है, उसमें जीडीपी के अनुपात में सार्वजनिक व्यय सिकुड़ते गए हैं। इससे सरकार को वित्तीय लाभ की गुंजाइश बन जाती है। सरकार इन्फ्रास्ट्रक्चर पर काफी पूंजीगत खर्च कर पा रही है और इसका नतीजा यह है कि अर्थव्यवस्था को जिसकी बड़े पैमाने पर दरकार है, उससे वह वंचित रह जा रही है। कोई नहीं कह रहा है कि इन्फ्रास्ट्रक्चर पर खर्च न करो, लेकिन कोई तो संतुलन होना चाहिए। इस खर्च का काफी डंका बज रहा है, लेकिन पहली बात यह है कि इसमें सार्वजनिक उपक्रमों का खर्च ज्यादा हो रहा है, इसलिए यह सरकार पिछली सरकारों की तुलना में अपने मद से ज्यादा खर्च नहीं कर रही है। यानी कुल मिलाकर यह पहले जैसा ही है। दूसरी बात, इस सरकार के तहत 2014 से निवेश और जीडीपी का अनुपात 31 फीसदी से आगे कभी नहीं बढ़ा। इसकी तुलना में 2004-2014 के दशक में निवेश का अनुपात 31 से 38 फीसदी तक रहा था। यह दुर्भाग्यपूर्ण है क्योंकि निवेश टिकाऊ वृद्धि के लिए बेहद जरूरी है। इसकी वजह से पिछली सरकारों की तुलना में इस सरकार में वृद्धि दर अपेक्षाकृत औसतन कम रही है। मनमोहन सरकार के दौर में वृद्धि दर औतन सालाना 7 फीसदी से ऊपर रही, जबकि इस दशक में यह सालाना 5.8 फीसदी के आसपास ही रही। वजह यह रही कि सार्वजनिक खर्च ज्यादा नहीं हुआ, लेकिन असली समस्या यह है कि निजी निवेश लगभग बिल्कुल नहीं बढ़ा। यह सबसे बड़ी समस्या है। इस बजट में इसकी कोई गुंजाइश नहीं पैदा की गई है। लिहाजा, देश में वृद्धि दर 7 फीसदी के ऊपर नहीं जा पाएगी, जिसका 8 फीसदी से ऊपर रहना कथित विकसित भारत के सपने के लिए बेहद जरूरी है। आखिरी बात, कथित विकसित भारत के लिए हमें एक रोडमैप चाहिए, और दुर्भाग्य से ऐसा कुछ इस बजट में दिखा नहीं। मेरे समेत कई स्वतंत्र अर्थशास्त्रियों का मानना है कि अगले ढाई दशक तक न्यूनतम औसतन 8 फीसदी और उससे ऊपर की वृद्धि दर चाहिए, जिसके आसपास भी हम नहीं हैं। विभिन्न अनुमानों के मुताबिक हमारी अर्थव्यवस्था 6.5 फीसदी से ज्यादा की वृद्धि दर्ज नहीं कर पाएगी। यह रोजगार पैदा करने के लिए काफी नहीं होगा। यही आकलन आइएमएफ, एचएसबीसी जैसे तमाम स्वतंत्र संस्थानों का है।
हम रोजगार पर बाद में आते हैं, यह बड़ा मुद्दा है। उसके पहले वित्त मंत्री की इस बात पर आपकी राय क्या है कि भारत की अर्थव्यवस्था वैश्विक अर्थव्यवस्था से ज्यादा चमकदार है और यह तेजी से बढ़ रही है और हमने महंगाई को 4 फीसद के अंदर रखा है?
सरकार कह रही है कि पिछले दो साल से हम तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की ओर बढ़ रहे हैं, लेकिन सरकार और उसके प्रवक्ता यह नहीं बताते कि पिछले 20 वर्षों से हमारी अर्थव्यवस्था दूसरी तेजी से बढ़ने वाली रही है। पिछले दो साल में चीन की गति कुछ मंथर हुई है, तो हमारी तेजी दिख रही है, हालांकि चीन के मुकाबले हम काफी गरीब देश हैं। चीन में प्रति व्यक्ति आय उच्च सीमा को छूने जा रही है। इसलिए हमारे पास वृद्धि दर बढ़ाने का कोई विकल्प नहीं है। इसलिए पहले 6.8 फीसदी की वृद्धि भी काफी नहीं थी, लेकिन मोदी सरकार के तहत तो यह गिरकर 5.8 फीसदी पर आ गई। यही चिंता का सबब है।
जहां तक महंगाई का सवाल है, पिछले तीन साल से यह छलांग ले रही है, हालांकि यह सरकार पिछले साल अंतरराष्ट्रीय तेल की कीमतों में गिरावट की वजह से भाग्यशाली रही है। 2014 के पहले तक तेल की कीमतें काफी ऊंची थीं, जिससे यूपीए के दौर में महंगाई दर काफी बढ़ गई थी। उसके बाद उसमें काफी गिरावट आई। इससे पिछले कई साल मोदी सरकार को कई कल्याणकारी योजनाओं पर अमल की सुविधा प्राप्त हुई, लेकिन उससे राजकोषीय घाटा छलांग लगा गया जिसका खमियाजा अब उसे भुगतना पड़ रहा है। इस वजह से पिछले तीन-चार साल से राजकोषीय संकुचन का दौर जारी है। मसलन, कोविड के दौर में हमें वित्तीय प्रोत्साहन के बदले क्रेडिट या कर्ज आधारित प्रोत्साहन पर आश्रित होना पड़ा। इसी वजह से 2021 में हमारी अर्थव्यवस्था में दुनिया में सबसे ज्यादा सिकुड़न आई। चीन की अर्थव्यवस्था नहीं सिकुड़ी। इसी वजह से उसे आरबीआइ से भारी मात्रा में डिविडेंड लेना पड़ा, जो पहले की सरकारें नहीं लेती थीं। खैर, उसके बाद हमारी अर्थव्यवस्था कुछ बहाल हुई है, लेकिन यह समझना चाहिए कि गिलास आधा ही भरा है। वित्त मंत्री की नजर बड़ी तस्वीर पर नहीं है। हम भले ही पांचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था बन गए हैं, लेकिन इसकी वजह ब्रिटेन का पिछड़ना है।
आंध्र प्रदेश और बिहार पर मेहरबानी पर आप क्या सोचते हैं? विपक्ष आरोप लगा रहा है कि यह दो राज्यों का बजट है, इससे दूसरे राज्यों की उपेक्षा हुई है और यह राजकोषीय संघवाद का सरासर उल्लंघन है। विपक्ष शासित राज्यों का यह भी आरोप है कि केंद्र जीएसटी का पैसा भी नहीं दे रहा है, तो सरकारें कैसे चलेंगी?
बिहार या आंध्र प्रदेश को मिले, इसमें कोई आपत्ति नहीं है। बिहार गरीब राज्य है और आंध्र प्रदेश, तेलंगाना के अलग होने से संकट में रहा है। इस विशेष कृपा की आपको वजह बतानी चाहिए थी क्योंकि दोनों की मांगें कोई नई नहीं हैं। मेरा अंदाजा यह है कि उन्हें जरूरत से ज्यादा आवंटित किया गया है। फिर बाकी राज्यों के मद में क्या है, यह भी बताना चाहिए था, जिसका जिक्र नहीं है। यह सही है कि पिछले दो साल से कई राज्यों को राजस्व में उनकी वाजिब हिस्सेेदारी नहीं दी गई है। इसकी एक वजह यह है कि केंद्र ने अपने राजस्व के खजाने को बढ़ा लिया है। एक, आरबीआइ से सरप्लस हासिल कर और दूसरा, विभिन्न मदों में सेस या उप-कर लगाकर, जो सीधे केंद्र के समवर्ती खजाने में आता है लेकिन वित्त आयोग के फैसले के मुताबिक उसे राज्यों के साथ साझा करना जरूरी नहीं है। इसलिए राज्य शिकायत कर रहे हैं। वे इसलिए भी शिकायत कर रहे हैं क्योंकि उनकी अर्थव्यवस्था अब भी बहाली के दौर से गुजर रही है, जिसकी अधिकांश वजह केंद्र की नीतियां रही हैं। राज्यों की बदहाली की वजहें नोटबंदी और जीएसटी रही हैं। हां, कोविड का दौर भी भारी पड़ा है, खासकर लॉकडाउन का काफी नुकसान झेलना पड़ा। जहां तक जीएसटी के 17 प्रकार के कराधान का सवाल है, तो वह महंगाई और कलेक्शन के मद्देनजर बढ़ा है लेकिन अर्थव्यवस्था में सुस्ती और टैक्स दरों में असंगति की वजह से इतना नहीं बढ़ पाया। राज्यों की हिस्सेेदारी के मद में पहले के मुकाबले बढ़ोतरी नहीं हो पाई, जिसकी उम्मीद की जा रही थी। इसलिए यह लग रहा है कि बिहार और आंध्र के मुकाबले दूसरों की उपेक्षा हो रही है। नीति आयोग की बैठक में भी विपक्ष शासित राज्यों का न आना बड़ी बात होनी चाहिए थी।
रोजगार के मामले पर आते हैं। बजट में 2.1 लाख करोड़ रुपये का प्रावधान कौशल विकास वगैरह के लिए किया गया है। इससे रोजगार की समस्या का हल निकलने की उम्मीद है क्या?
यह सरकार पिछले दस साल में नौकरियों और रोजगार में लगातार गिरावट और बेरोजगारी दर में रिकॉर्ड उछाल को मानने को भी तैयार नहीं रही है। इसके विपरीत सरकारी अर्थशास्त्री और प्रवक्ता तरह-तरह की भ्रांतियां और गलत सूचनाएं-आंकड़े वगैरह लाते रहे हैं। ऐसे आंकड़े संसद में और लाल किले की प्राचीर से भी बताए गए, जो बेहद दुर्भाग्यजनक है। बेरोजगारी उस सीमा पर पहुंच गई है कि युवा आत्महत्या करने लगे हैं। एनसीआरबी के आंकड़े ही देखें। 2020 का आंकड़ा था, हर घंटे तीन युवा आत्महत्या कर रहे थे। 2022 में इस आंकड़े में दो युवाओं का इजाफा हो गया। मतलब यह है कि 33 फीसदी की वृद्धि हो गई। इसी तरह सीएसडीएस के सर्वे में साल-दर-साल पता चलता रहा है कि करीब 60 फीसदी से ज्यादा लोग बेरोजगारी को सबसे गंभीर मानते हैं, लेकिन यह सरकार लगातार इसे नकारती रहती है। वह पिछले कुछ बजटों में पीएलआइ (प्रोडक्शन लिंक्ड इन्सेंटिव या उत्पादन से जुड़ा प्रोत्साहन) योजना लेकर आई, लेकिन उसमें रोजगार के लिए कुछ नहीं था। उससे शायद ही रोजगार में कोई फर्क आया। हाल में सरकार और आरबीआइ ने दावा किया कि पिछले तीन-चार साल में आठ करोड़ नौकरियां पैदा हुईं। यह सरासर बकवास है। वजह यह कि इसमें छह करोड़ लोग कृषि या उससे जुड़े छोटे-मोटे अल्प रोजगार से जुड़े हैं। ये लोग सरकारी नीतियों की वजह से ऐसे रोजगार में जाने को मजबूर हुए हैं। इसमें बड़ी संख्या में महिला मजदूर हैं, जिसका आरबीआइ अपने आंकड़ों में जिक्र करता रहा है। ये बिना किसी भुगतान के अपने छोटे-मोटे खेतों में काम कर रही हैं। इसे आरबीआइ ही रोजगार मान सकता है, न आइएलओ, न कोई अर्थशास्त्री। इसी दौर में उत्पादन क्षेत्र में भारी गिरावट (13 फीसदी तक) देखी गई है, जहां रोजगार मिलता है। इसके माने हैं कि रोजगार बहुत बड़ा मुद्दा है।
अब बजट के प्रावधानों पर आते हैं। इसमें मोटे तौर पर दो बातों की पेशकश है। एक, संगठित क्षेत्र की 500 कंपनियों में इंटर्नशिप। मैं इसे अप्रेंटिसशिप कहता हूं। खैर, ये 500 कंपनियां सरकार की ओर से स्टाइपेंड के बावजूद युवाओं को इंटर्नशिप के लिए क्यों लेंगी, जब उनके उत्पादों की मांग बढ़ नहीं रही है? खपत बढ़ोतरी चार फीसद की दर से बढ़ रही है जबकि सरकारी दावे के हिसाब से जीडीपी वृद्धि दर आठ फीसदी है। ऐसा कभी नहीं हुआ। हमेशा ही खपत की बढ़ोतरी दर जीडीपी वृद्धि दर से ऊंची रहती है। मांग और खपत दोनों कम हैं क्योंकि नौकरियां नहीं हैं और आमदनी ठहरी हुई है। इसलिए बड़ा सवाल यही है कि कंपनियां युवाओं को क्यों रखेंगी। सरकार कोई जवाब नहीं देती। दूसरी समस्या यह है कि एमएसएमई क्षेत्र को लेकर जो योजनाएं घोषित की गई हैं, उन्हें कुछ गारंटियां मुहैया कराई गई हैं। कर्ज उठाने की इन गारंटियों में पूंजीगत खर्च और कार्यशील पूंजी को लेकर नहीं हैं, यहीं असली समस्या है। एमएसएमई में तब रोजगार पैदा होता है जब उसका विस्तार हो और विस्तार तब हो सकता है जब सरकार मांग न होने या घट जाने पर उसकी मदद के लिए खड़ी हो (खासकर मौजूदा हालात में, जब मांग नहीं उठ रही है)। यह बड़ी समस्या है। नोटबंदी, गलत ढंग से अपनाई गई जीएसटी की वजह से एमएसएमई की संख्या काफी घट गई। यह बजट से ठीक पहले जारी किए गए असंगठित क्षेत्र के आंकड़ों से भी पुष्ट होता है। शुक्र है, ये आंकड़े चार-पांच साल बाद जारी किए गए। तो, अगर एमएसएमई क्षेत्र में रोजगार पैदा नहीं होता है और सरकार उसके लिए कुछ ठोस प्रस्ताव नहीं करती है, तो यहां से भी रोजगार पैदा नहीं होगा। मेरा अंदाजा है कि सरकार ने आगे बढ़ने के बारे में ठीक से सोचा ही नहीं। इसलिए इस बजट में ऐसा कुछ नहीं है जिससे कॉरपोरेट या संगठित और एमएसएमई या असंगठित क्षेत्र में नौकरियां-रोजगार पैदा होंगे।
2024 के जनादेश का क्या फर्क पड़ा है?
यही, कि अपने सहयोगियों को खुश करने की कोशिश करो और थोड़ा-बहुत प्रतीकात्मक कदम उठा लो। बाकी, बजट की दिशा पुरानी ही है। कृषि में कुछ खास नहीं है। मध्यम वर्ग को कुछ खास नहीं है। जो भी है, बेहद मामूली है। इसके उलट कॉरपोरेट रियायत और एफडीआइ के लिए नए क्षेत्र खोलने पर ही जोर है।