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20 जनवरी 2025 · JAN 20 , 2025

नजरियाः दो न्यायिक खानदानों की नजीर

खन्ना और चंद्रचूड़ खानदान के विरोधाभासी योगदान से फिसलनों और प्रतिबद्धताओं का अंदाजा
1975 में इमरजेंसी के दौरान प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के न्यायपालिका के साथ बरताव पर कार्टूनिस्ट अबु अब्राहम की चुटकी, साभारः आएशा और जानकी अब्राहम

हर जज के पेशेवर जीवन में कयामत के पल आते हैं। तब वह खुद को न्याय की मुंडेर पर खड़ा पाता है। उसे एहसास होता है कि उसका एक अदद फैसला गणतंत्र के चरित्र को बचा सकता है या हमेशा के लिए बदल सकता है। इस संदर्भ में देश के प्रधान न्यायाधीश के पद पर जस्टिस डी.वाइ. चंद्रचूड़ के ठीक बाद जस्टिस संजीव खन्ना का आना महज इत्तेफाक कहा सकता है। चंद्रचूड़ के पिता वाइ.वी. चंद्रचूड़ सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश रह चुके हैं और संजीव खन्ना जाने-माने जज जस्टिस एच.आर. खन्ना के भतीजे हैं। इन चारों के दिए अलहदा और विरोधी फैसले हमें उन क्षणों का पता देते हैं, जो गणतंत्र के लिए परिवर्तनकारी थे।

सर्वोच्च‍ न्यायपालिका के एक जज को संवैधानिक न्याय में दक्ष होने के साथ तेज दिमाग और अखंड नैतिक चरित्र का होना चाहिए। साथ ही उससे उम्मीद की जाती है कि उसका बौद्धिक दायरा इतना व्यापक हो कि वह खतरे की घंटी को साफ-साफ सुन सके। यानी उस क्षण को पहचान सके जब उसे तय करना है कि वह सामाजिक-राजनैतिक व्यवस्था के सामने खड़े नए खतरे को रोके या उसे जाने दे। ऐसे में जज का इतिहासबोध मजबूत होना जरूरी है। जिसका इतिहासबोध दुरुस्त नहीं होता, वह न्याय नहीं कर पाता है।      

इस मामले में जस्टिस एचआर खन्ना का एक निर्णय उदाहरण है। यह इंदिरा गांधी के लगाए इमरजेंसी के दौरान एडीएम जबलपुर का हेबियस कॉर्पस वाला कुख्यात केस है। जजों के सामने सवाल था कि अनुच्छेद 356 के तहत लगाई गई राष्ट्रीय इमरजेंसी के दौरान क्या नागरिकों को अनुच्छेद 21 के तहत मिली ‘‘निजी जीवन और आजादी’’ की गारंटी खत्म हो जाती है। पांच जजों की खंडपीठ में जस्टिस खन्ना  इकलौते असहमत जज थे। वे जानते थे कि इस असहमति की उन्हें कीमत चुकानी पड़ेगी। उन्होंंने कहा भी था, ‘‘देश के प्रधान न्यायाधीश का पद मुझसे छीना जा सकता है।’’ ऐसा हुआ भी।

खन्ना ने उस खतरे की घंटी को सुन लिया था, उस पल को पहचान लिया था, जब सब कुछ दांव पर था। वे जानते थे कि अगर राज्य-व्यवस्‍था को नागरिकों की जिंदगी और आजादी छीनने का अधिकार दे दिया गया और नागरिकों के पास हेबियस कॉर्पस का रास्ता नहीं बचा, तो स्वतंत्र समाज की संवैधानिक वचनबद्धता ही जाती रहेगी। इसलिए जस्टिस खन्ना ने सत्ता के हाथ में निरपेक्ष ताकत देने से इनकार कर दिया जबकि बाकी चार जज सिद्धांतों के ऊपर तकनीकी बिंदुओं को ही तरजीह देते रह गए।

उसी खंडपीठ में जस्टिस वाइ.वी. चंद्रचूड़ भी थे। उन्होंने ‘‘संदेह के जालों’’ का हवाला देते हुए जजों को आगाह किया कि वे कार्यपालिका के आकलन पर अपनी ‘निजी राय’ और ‘पूर्वाग्रह’ न थोपें क्योंकि कार्यपालिका के पास सारे तथ्य मौजूद हैं। केवल एक जज के पास न्यायिक स्पष्टता और नैतिक साहस था कि वह राज्य का विरोध कर सके। बाकी चारों के पास यह नहीं था। इसलिए इतिहास भी इन चारों के प्रति उदार नहीं रहा। इमरजेंसी के ठीक बाद बताया जाता है कि जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा था कि काश! ‘‘उनके पास उस वक्त पर इस्तीफा देने का साहस होता।’’ देर आए, दुरुस्त  आए! यह उनके मन से निकला सच्चा खेद था।

चंद्रचूड़ कालांतर में प्रधान न्यायाधीश बने, लेकिन एक बार फिर से उन्होंने मौका गंवा दिया। इस बार मामला शाहबानो का था। समान आचार संहिता के समर्थन में उन्होंने अनावश्यक ही कानूनी पक्ष से किनारा कर लिया। कुछ लोग तो यहां तक कहते हैं कि उन्होंने ऐसा उकसाने के लिए किया। उन्होंने दलील दी, ‘‘समान आचार संहिता विरोधी विचारों वाले कानूनों के प्रति वफादारियों को खत्म कर राष्ट्रीय एकता के सरोकार में योगदान देगी।’’ वे यहीं नहीं रुके। उनका कहना था कि विधायिका के पास ऐसा करने का ‘‘राजनैतिक साहस’’ नहीं है इसलिए ‘‘अदालतों को ही सुधारक की भूमिका अख्तियार करनी होगी।’’

उनकी इस सुधारवादी सनक को समूची मुसलमान बिरादरी ने एकतरफा विचार माना। उसकी नजर में यह उस वक्त कायम राजनैतिक सहमति का अतिक्रमण करने वाली बात थी क्योंकि सबका मानना था कि इस मामले में समुदाय से गहन परामर्श किए जाने की जरूरत है। खुद को उपेक्षित महसूस कर रहे मुसलमान समुदाय ने अपना खूंटा गाड़ दिया। नतीजतन, हिंदू कट्टरपंथियों को हल्ला करने का आधार मिल गया।

कहते हैं कि पिताओं के किए पाप की कीमत कभी-कभार बच्चों को चुकानी होती है। जब डी.वाइ. चंद्रचूड़ प्रधान न्यायाधीश बने, तो वे अपने पिता की विरासत से अच्छे से वाकिफ थे। बहुत से लोगों को उनसे उम्मीद थी कि वे राज्य‍ के बहुसंख्यकवादी एजेंडे से निकली एकतरफा मांगों को रद्द कर देंगे। जिन्हें यह उम्मीद थी, उनके मन में अदालत के बाहर दिए अपने बयानों से उन्होंने खूब उत्साह पैदा किया कि वे वाकई अपने बाप का नाम रोशन करने आए हैं। अंत में उन्होंने सबको निराश किया।

चंद्रचूड़ के लिए कयामत का पल ज्ञानवापी मस्जिद के केस में सामने आया। उन्होंने इस मामले में संवेदनशील स्थितियों की उपेक्षा करते हुए तकनीकी बिंदुओं के आधार पर एक ऐसी सांप्रदायिक खुराफात को मंजूरी दे डाली, जो अदालत में ‘‘पुरातात्विक सर्वेक्षण’’ के आवरण में लिपट कर आई थी। इस तरह उन्होंने राजनीति में एक खतरनाक नजीर पैदा कर दी, जिसकी सूरत में 1991 का पूजास्थल अधिनियम (विशेष प्रावधान) तकरीबन निष्क्रिय पड़ गया। पलक झपकते ही कट्टर हिंदू गुटों ने अलाने-फलाने ऐतिहासिक स्मारकों के ‘‘सर्वेक्षण’’ की मांग की झड़ी लगा दी। उनके एक फैसले ने जबरदस्त अव्यवस्थाएं, अराजकता और हिंसा पैदा कर दी।

जैसे कि इतना ही काफी नहीं था, उन्होंने प्रधानमंत्री को अपने सरकारी आवास पर एक पूजा में न्यौता दे दिया। आज के माहौल के संदर्भ में यह भयंकर भूल थी। न्यायिक संयम और अनुशासन के सारे पैमाने इस एक कृत्य से तार-तार हो गए। यह मामला महज एक प्रधान न्यायाधीश और ध्रुवीकरण की राजनीति के उस्ता‍द एक प्रधानमंत्री के बीच नहीं था। उसने पूरे देश में, खासकर निचली अदालतों में संदेश भेजा और एक झटके में शेखर कुमार यादव जैसे जजों को मनबढ़ बना दिया।

न्यायपालिका की इज्जत बहाल करने का जिम्मा वे अपने उत्तराधिकारी खन्ना के लिए छोड़ गए। प्रधान न्यायाधीश खन्ना ने सर्वे से जुड़े तमाम विवादों पर 1991 वाले कानून को कायम रखते हुए एक झटके में रोक लगा दी और धार्मिक तनाव को राहत दे डाली। कट्टर ताकतें ठंडी पड़ गईं।

न्यायिक इतिहास में खन्ना और चंद्रचूड़ खानदान के विरोधाभासी योगदान हमें आदर्श न्याय-निर्णय की फिसलनों और प्रतिबद्धताओं को दिखाते हैं तथा समाज में कारगर ऐतिहासिक ताकतों की झलक देते हैं। अपनी आत्मकथा, नाइदर रोजेज नॉर थॉर्न्सं  में जस्टिस एच.आर खन्ना उन क्षोभ भरे दिनों की याद करते हैं, जब चरण सिंह की सरकार में उन्होंने कानून मंत्री बनना स्वीकार कर लिया था। महज तीन दिन तक मंत्री रहने के बाद अपनी आत्मा की आवाज पर उन्होंने खुद को उस सरकार से अलग कर लिया था।

एडीएम जबलपुर वाले केस ने खन्ना को सच्चाई का नायक बनाया था। जब वे सरकार में मंत्री बने, तो उनकी आत्मा की आवाज दोबारा लालकृष्ण आडवाणी के इस कहे से वापस आई कि ‘‘हमें लग रहा है कि जिससे हमने प्रेरणा ली थी उसी ने हमें शर्मिंदा कर दिया है।’’ इसके अलावा, ननी पालखीवाला जैसे न्यायिक बिरादरी के और लोगों ने भी उनके मंत्री बनने पर निराशा जताई थी। उनकी आत्मा जाग गई और वे सरकार से अलग हो गए।

वे आदर्शवाद के दिन थे। लोग दूसरों के कहे से प्रेरित हो जाते थे। आज न्यायिक बिरादरी के लिए राजनीति या बार में प्रेरणा की आवाजें नदारद हैं। इसलिए सर्वोच्च अदालत को अपनी आत्मा जगाने के लिए प्रेरणा हमारे संविधान में ही खोजनी होगी, जो दो टूक शब्दों में कहता है कि हम एक सेकुलर लोकतांत्रिक गणराज्य हैं। 

हरीश खरे

(वरिष्ठ पत्रकार और टिप्पणीकार। विचार निजी हैं)

 

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