भूस्खलन से मची तबाही वाली त्रासद रात को याद करते हुए राहत शिविरों में रह रहे लोग अब भी सिहर उठते हैं। इस हादसे के दुख और सदमे से वे उबर नहीं पाए हैं। कई लोग अपने परिजनों की लाश के इंतजार में हैं, जो भूस्खलन में लापता हो गए हैं। हादसे से पहले हुई बारिश के अनुभव उनसे पूछना अभी बहुत जल्दबाजी होगी। उन्हें बस इतना याद है कि संभावित तबाही की पूर्व-चेतावनी उन्हें दी गई थी। उसके बाद क्या हुआ, उन्हें याद नहीं।
चूरलमाला के सुरेश को याद है कि एक दिन पहले उन लोगों से महफूज जगहों पर चले जाने को कहा गया था, ‘‘मुझे बताया गया था कि पंचायत ने चेतावनी जारी की है, लेकिन सवाल है कि हम जाते कहां? हमारे पास जाने को कोई जगह ही नहीं है।’’ वे अपने बगल में बैठे सतीश को सांत्वना देने की कोशिश में थे, जो अपने तेरह साल के बेटे के गुम हो जाने से सदमे में थे। सुरेश के मन में गुस्सा है लेकिन इसका दोष किसे दिया जाए, उन्हें नहीं मालूम।
तबाही और राहतः वायनाड के चूरलमाला गांव में एक तबाह घर
वायनाड में राहतकर्मियों के बचाव कार्य के बीच लोग बात कर रहे थे कि हादसे की तैयारी में कहीं, तो चूक हुई है। कई लोगों का मानना है कि इलाका खाली करा लिया गया होता, तो इतनी मौतें नहीं हुई होतीं। हालांकि बड़ी संख्या में लोगों ने अपनी जमीन-जायदाद छोड़कर जाने से इनकार कर दिया था। इस मामले में सबसे सही राय वे स्थानीय राहतकर्मी दे रहे हैं, जिन्हें पहले भी ऐसे हादसों की सूरत में इलाके खाली करवाने का तजुर्बा है।
ऐसे ही एक स्वैच्छिक कार्यकर्ता बशीर बताते हैं, ‘‘पुथुमाला में जब 2019 में भूस्खलन हुआ था, तो पूर्व-चेतावनी और उसके बाद की गई कार्रवाइयों के सहारे हमने मृतकों की संख्या ज्यादा होने से रोक दिया था।’’ बशीर पेशे से वकील हैं और मेप्परडी के रहने वाले हैं। वायनाड़ के पुथुमाला में हुए हादसे के बाद वे बचाव कार्य में काफी सक्रिय थे। भूस्खलन मुथप्पन की पहाडि़यों में हुआ था। इन पहाडि़यों के एक ओर मलप्पुरम और दूसरी ओर वायनाड़ है। इस दुर्घटना में एक तरफ कवलप्परा और दूसरी तरफ पुथुमाला में गंभीर असर पड़ा था। कुल 56 लोग मारे गए थे। पुथुमाला में मेप्पडी के पास सबसे ज्यादा 17 लोगों की जान गई थी।
एक पीड़ित को ढांढस बंधाता एक राहतकर्मी
बशीर उस घटना को याद करते हुए बताते हैं, ‘‘उस वक्त लगातार कई दिनों तक बारिश हुई थी। पंचायत ने बड़े पैमाने पर लोगों को निकालने का अभियान शुरू किया। करीब सौ परिवारों को आसपास के इलाकों में भेज दिया गया था। इस तैयारी का असर भी दिखा। पुथुमाला में जो 18 मकान बह गए थे, उनमें से 14 को हमने एक दिन पहले ही खाली करवा लिया था। बाकी चार परिवारों ने घर छोड़ने से मना कर दिया था। वे सब लापता हो गए।’’
मेप्पडी में एक और स्थानीय स्वैच्छिक कार्यकर्ता अलताफ के अनुसार पंचायत ने चेतावनी जारी कर लोगों से दूसरी जगहों पर चले जाने को कहा था लेकिन यह पर्याप्त नहीं था। सुरेश जैसे लोगों से उनको सहानुभूति है, जिनके पास जाने के लिए कोई और जगह नहीं है। वे कहते हैं, ‘‘किसी हादसे की गंभीरता तैयारी पर निर्भर करती है, जो हर जगह अलग होती है।’’ अलताफ भी चूरलमाला के बचाव कार्य में सक्रिय हैं। उनका मानना है कि यह समय दोषारोपण का नहीं है।
एक पीड़ित की मदद करते सेना के जवान
मेप्पडी पंचायत के मुखिया बाबू कहते हैं, ‘‘29 तारीख को ही मेप्पमडी और आसपास के सारे रिजॉर्ट खाली करने को कह दिया गया था।’’ जिन्होंने भी ऐसा किया वे सब सुरक्षित हैं। हालांकि लोगों से मकान खाली करने को कह देना ही काफी नहीं होता। यह बात बशीर की सुनाई इस कहानी से जाहिर होती है, ‘‘हम में से कोई भी 20 की रात सोया नहीं। लगातार पानी बरस रहा था। जो लोग पहले घर खाली करने को तैयार नहीं थे उन्होंने उस रात भागने की कोशिश की थी। मैंने सुना कि दो परिवार के कुल दस लोग मेप्पडी शहर के लिए अपने घर से निकले। लेकिन रास्ते में हाथी मिलने के कारण वे लौट आए। बदकिस्मती से वे सब के सब बह गए।’’
वायनाड के लोगों की यह दोहरी बदकिस्मती है- एक ओर मौसम की मार तो दूसरी ओर जंगली पशुओं का आतंक। इसलिए भूस्खलन से पहले की तैयारियों और बाद के बचाव कार्य की एक सीमा भी है। केरल आपदा प्रबंधन विभाग के सचिव शेखर कुरियाकोस कहते हैं, ‘‘इस भूस्खलन का केंद्र जंगलों के भीतर था, जहां इंसान की पहुंच नहीं है। मलबा बह कर पहाडि़यों से छह किलोमीटर तक आया। इससे मुंडक्कइ और चूरलमाला को नुकसान हुआ। जबकि ये दोनों जगहें भूस्खलन केंद्र से काफी दूर हैं।’’ तबाही से पहले मुंडक्कइ में 48 घंटे के भीतर 572 मिलीमीटर वर्षा दर्ज की गई थी।
मुंडक्कइ के लिए भूस्खलन नई बात नहीं है। यहां 1984 में ऐसे ही हादसे में 14 लोग मारे गए थे। भूस्खलन के इतिहास के बावजूद यहां लोगों ने बसना नहीं छोड़ा। मुंडक्कइ और चुरलमाला अब घनी आबादी वाले कस्बे हो चुके हैं, जहां व्यावसायिक प्रतिष्ठान और स्कूल भी हैं। आज ये दोनों कस्बे ध्वस्त हो चुकी इमारतों, मकानों और उखड़े हुए पेड़ों से पटे हुए हैं। सब कुछ मलबे के नीचे दब गया है।
तबाही के बीच जिंदगी बचाने के लिए जुटे राहतकर्मी
हादसे के दो दिन बाद 31 जुलाई को मुख्यमंत्री पिनराई विजयन ने प्रेस कॉन्फ्रेंस की। तब तक केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के इस बयान पर गुस्सा फैल चुका था कि केरल को हादसे की पूर्व-चेतावनी दी गई थी। विजयन ने कहा कि ऐसी कोई भी चेतावनी जारी नहीं की गई थी और मौसम विभाग की ओर से मध्यम बारिश और येलो अलर्ट ही जारी किया गया था। उन्होंने कहा कि विभाग ने 23 से 29 जुलाई के बीच एक बार भी ऑरेंज अलर्ट जारी नहीं किया। इसके अलावा भारतीय भूगर्भ सर्वेक्षण ने 29 जुलाई को ग्रीन अलर्ट जारी किया था।
पिछले सात साल से केरल में बारिश के बाद भूस्खलन हो रहा है। केरल राज्य आपदा प्रबंधन अधिकरण (केएसडीएमएस) के मुताबिक अगस्त 2019 में राज्य में दीर्घकालिक औसत के मुकाबले 123 प्रतिशत अधिक वर्षा हुई थी। अगस्त 2018 की विनाशक बाढ़ के दौरान केरल में औसत से 96 प्रतिशत अधिक वर्षा दर्ज की गई थी।
हादसे के बाद मेप्पडी का फैमिली हेल्थ सेंटर अस्थायी मुर्दाघर में बदल गया था। वहां लगातार लाशें आ रही थीं और डॉक्टर, नर्स तथा स्वैच्छिक कार्यकर्ता उनकी पहचान करने और साफ-सफाई में जुटे हुए थे। पहचान के बाद लाशें परिजनों को सौंपी जा रही थीं। बिना पहचान वाली लाशें पास के सामुदायिक भवन ले जाई जा रही थीं।
अब कई दिन बीत चुके हैं, इसलिए लाशों को पहचानना मुश्किल हो चला है। कई लोगों का पूरा परिवार साफ हो गया है। कुछ अभी भी लाशें पहचानने की मशक्कत कर रहे हैं। इस त्रासदी से पहले समुदाय के बीच काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता लोगों की इस काम में मदद कर रहे हैं। ऐसी ही एक आशा कार्यकर्ता हैं मुंडक्केइ की शिजा बेबी। उन्होंने अब तक सौ लाशों की पहचान की है। वे बताती हैं, ‘‘मैं मुंडक्केइ और चूरलमाला में तकरीबन सभी को जानती हूं। इन लोगों के साथ मैं 2000 से काम कर रही हूं। जानने वालों की लाशे देखना दर्दनाक है लेकिन कोई विकल्प नहीं है। मुझे ये करना ही है।’’
शिजा पंचायत की सदस्य भी रह चुकी हैं। हादसे में वे खुद बच गईं लेकिन उनके परिवार के नौ लोग मारे गए। इनमें उनकी भाभी की बहन, उसके पति, दो बच्चे, तीन भाइयों की पत्नियां और दो पोता-पोती हैं। अब तक केवल तीन लाशें बरामद हुई हैं। इनमें दो बच्चों की हैं। खुद शिजा ने उनकी पहचान की। उन्हें बचे हुए परिजनों की लाशों का इंतजार है।
इसके बावजूद वे काम में लगी हुई हैं। उन्हें यह ताकत उनके जीवन की परिस्थितियों से आती है। उनके पति ने खुदकशी की थी। उस वक्त उनकी उम्र 25 साल थी। तब उनकी दो और चार साल की दो बच्चियां थीं। पति नौकरी की तलाश में दुबई गए थे। नौकरी तो नहीं मिली, सिर पर कर्ज चढ़ गया। कोई रास्ता नहीं दिखा, तो उन्होंने आत्महत्या कर ली। शिजा ने संकल्प लिया कि वे अपनी जान नहीं देंगी, जिंदा रहेंगी। वे बताती हें, ‘‘मेरे सामने अंधेरा था। मुझे अंदाजा नहीं था कि आगे क्या करना है। फिर भी मैं अपने पति का रास्ता नहीं चुन सकती थी। मुझे चाइल्ड लाइन में छोटी सी नौकरी मिल गई। इसी से मैं सामाजिक कामों में जुड़ी।’’
जनता के बीच रहने से शिजा को ताकत मिली। बीस बरस की उम्र में वे कुडुम्बश्री का हिस्सा बनीं। यह केरल का मौलिक गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम है। इसे दुनिया भर में औरतों का सबसे बड़ा नेटवर्क माना जाता है, जिसमें पैंतालीस लाख औरतें सदस्य हैं। वहां वे नेतृत्वकारी स्थिति तक पहुंचीं और जिला स्तर की अधिकारी बन गईं। चाइल्डलाइन के साथ कुछ साल काम करने के बाद वे आशा दीदी बनीं।
आशा कार्यकर्ता पंचायत की रीढ़ होती हैं। वे अपने वार्ड के हर व्यक्ति को जानती हैं और उसकी सेहत का पूरा रिकॉर्ड रखती हैं। शिजा मेप्पडी के उन्हीं वार्डों को देख रही थीं, जो सबसे ज्यादा इस तबाही में प्रभावित हुए- वार्ड नंबर दस, ग्यारह और बारह। वे 2015 में पंचायत चुनाव लड़ी थीं और वार्ड नंबर दस से जीती थीं।
शिजा 29 जुलाई की त्रासद रात को याद करती हैं, जब आधी रात को घबराए हुए लोगों के फोन आना शुरू हुए। उन्होंने तत्काल पंचायत के सदस्यों, पुलिस और मीडिया से संपर्क किया। तेजी से हुए बचाव कार्य ने कई लोगों की जान बचा ली थी। इनमें शिजा के बूढ़े मां-बाप भी हैं, हालांकि उनका मकान पूरी तरह बह चुका है। शिजा और उनकी बेटियां पहले ही मेप्पूडी कस्बे में आ चुकी थीं क्योंकि 2019 के भूस्खलन में उनका मकान नष्ट हो गया था। शिजा का मानना है कि स्थानीय प्रशासन थोड़ा और सक्रिय होता, तो कुछ लोग बच सकते थे। वे 2019 के बचाव कार्य को याद करते हुए कहती हैं, ‘‘भूस्खलन से एक दिन पहले 7 अगस्त 2019 को पूरी पंचायत टीम ने 357 घरों से 2000 लोगों को बाहर करवाया था।’’
मेप्पडी के हेल्थ सेंटर में हमारी मुलाकात निषाद से हुई। वे पंचायत की रैपिड रिस्पांस टीम के सदस्य हैं। उनके चेहरे और आवाज से थकान जाहिर हो रही थी। 29 तारीख की सुबह जब पहाड़ों से पानी गिरना शुरू हुआ, तब निषाद और कई अन्य लोगों को इसकी गंभीरता का अंदाजा नहीं था। बाद में खतरे को भांपते हुए उन्होंने अपने परिवार को सुरक्षित जगह पहुंचा दिया।
वे बताते हैं, ‘‘चूरलमाला में एक संस्था है कारुण्य। उनके पास उपकरण और प्रशिक्षित कार्यकर्ता हैं। उस समय वहां एक अर्थमूवर पहले से मौजूद था। उसकी मदद से हमने करीब पचास लोगों को बचाया।’’ कारुण्य के लोगों ने रस्से के सहारे बहुत से लोगों को पानी से बाहर निकाला। इसके बावजूद नौ लोग मलबे में बह गए। निषाद ने बताया, ‘‘उन्हें हम बचा नहीं सके। हमारे हाथों से फिसल कर वे पानी में गिए गए।’’
निषाद वार्डस्तरीय रैपिड रिस्पांस टीम के 2019 से सदस्य हैं। केरल में ऐसी टीमें पंचायत के हर वार्ड में होती हैं। इनमें कम से कम दस लोग बचाव कार्य में प्रशिक्षित होते हैं। 2018 की बाढ़ के बाद ऐसी टीमों को और मजबूत बनाया गया है। कोविड महामारी के दौरान ये टीमें काफी सक्रिय रही हैं।
हादसे से बच कर निकलने वाले लोगों की कहानी दुस्वप्न से कम नहीं है। सुजाता के घर पर पेड़ गिरने से, वे पानी और मलबे में फंस गईं। आधा मकान ढह चुका था। किसी तरह रसोई की टाइल्स तोड़ कर उन्होंने बाहर निकलने का रास्ता बनाया। उन्होंने देखा कि पेड़ की डालियों में उनकी दस साल की पोती फंसी हुई थी। पूरी ताकत इकट्ठा कर उन्होंंने बच्ची को वहां से निकाला और उलटी दिशा में पहाड़ी के ऊपर भागने लगीं। भागते-भागते वे जंगल में पहुंचीं। वहां सामने एक हाथी खड़ा मिला। सुजाता बुरी तरह डरी हुई थीं। वह कहती हैं, ‘‘मैंने हाथी से प्रार्थना की कि हमें नुकसान न पहुंचाए।’’ चमत्कार हुआ! हाथी ने हमला नहीं किया। फिर उन्होंने बच्ची के साथ लगातार बारिश में जंगल में पूरी रात काटी। सुबह किसी ने दोनों को सुरक्षित जगह पहुंचाया। सुजाता के साहस की यह कहानी वायनाड के लोगों के जीवट का प्रतीक बन चुकी है। अनगिनत दुखों और नुकसान की कहानियों के बीच साहस और संकल्प के ऐसे प्रसंग वायनाड की ताकत को दर्शाते हैं।