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संविधान / 75 सालः संविधान भारत के स्वधर्म की अभिव्यक्ति है

यह संसद का चुनाव नहीं है, यह संविधान सभा का चुनाव है।
संविधान निर्माताः संविधान सभा के सदस्यों का ग्रुप फोटो, 1949

यह संसद का चुनाव नहीं है, यह संविधान सभा का चुनाव है।" हाल के चुनाव के पहले और चुनाव के दौरान जितनी भी जनसभाओं में मुझे बोलने का मौका मिला, मैंने शायद हर बार इस वाक्‍य का इस्‍तेमाल किया था। जब भी बोला श्रोताओं में, खास तौर पर खास तरह के श्रोताओं में गहरी सहमति का भाव आता था। सबको एहसास था कि मामला एक सामान्‍य संसदीय चुनाव जैसा नहीं था, मामला बहुत गहरा था और संविधान सभा का रूपक इस गहराई की तरफ इशारा करता था।

यहां संविधान शब्‍द के दो मायने हो सकते हैं। अंग्रेजी में कॉन्सटिट्यूशन शब्‍द दो अर्थ रखता है। पहला, संविधान नामक दस्‍तावेज, और दूसरा गहरी राजनैतिक संरचना यानी सामाजिक-राजनैतिक-आर्थिक शक्तियों की बुनावट। शुरू में संविधान के रूपक का इस्‍तेमाल करते वक्‍त मेरे मन में संविधान का पहला अर्थ था। अब जब पलट कर देखता हूं तो महसूस होता है कि दूसरे और गहरे अर्थ में भी इस चुनाव में संविधान दांव पर था।

भारत के संविधान से खिलवाड़ करने की भाजपा की नीयत का सवाल इस चुनाव में उठा, काफी उछला और भाजपा के लिए नुकसानदेह साबित हुआ। सच यह है कि भाजपा लाख सफाई दे ले, लेकिन इस बात से इनकार करना संभव नहीं है कि 26 नवंबर 1949 को तैयार हुए संविधान से संघ परिवार को बुनियादी दिक्कत रही है। यह बात राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखपत्र और उस जमाने के बयानों में अनेक बार जाहिर होती है, जिसमें संघ से जुड़े विचारकों और नेताओं ने भारतीय संविधान को महज पश्चिम की नकल, भारतीय सनातन सभ्यता के नकार के रूप में पेश किया। तब से लेकर आज तक संविधान के बारे में पहले जनसंघ और फिर भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व की बातों में यही इशारा मिलता है। इस बात को कौन भूल सकता है कि अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के दौरान संविधान की समीक्षा के लिए आयोग बनाया गया। हालांकि जस्टिस वेंकटचलैया के चलते उन्हें मन-माफिक रिपोर्ट नहीं मिल पाई। सच यह है कि तब के सरसंघचालक के.सी. सुदर्शन ने उसके बाद भी संविधान की समीक्षा की बात दोहराई थी।

इस चुनाव के पहले तो प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष बिबेक देवरॉय ने लिखकर संविधान संशोधन नहीं, बल्कि संविधान को ही बदलने की वकालत की थी। उसके बाद उनका अपने पद पर कायम रहना इस संदेह को पुष्ट करता है कि यह बात सरकार के इशारे पर कही गई थी। चुनाव से पहले और चुनाव के दौरान एक नहीं, कई नेताओं ने खुलकर कहा था कि 400 जैसा प्रचंड बहुमत इसीलिए चाहिए ताकि संविधान में बदलाव किए जा सकें। संविधान में बदलाव कैसे होते, क्या होते, इसका खाका किसी ने पेश नहीं किया, लेकिन इसमें संदेह की गुंजाइश नहीं है कि अगर भाजपा 400 तो छोड़िए, 2019 से अधिक सीटें भी प्राप्त कर लेती तब भी वह संशोधन के बहाने संविधान में आमूल-चूल परिवर्तन करती, जैसे इमरजेंसी के दौरान इंदिरा गांधी ने 42वें संशोधन के बहाने किया था। यह तय है कि सेक्युलिरज्म को हटाकर सनातन जैसा कुछ शब्द डाला जाता, यह तय है कि संघीय ढांचे के तहत राज्यों की बची-खुची ताकतों में भी कांट-छांट की जाती, यह तय है कि एक राष्ट्र, एक चुनाव के जुमले के सहारे संसदीय लोकतंत्र को श्रीलंका की तरह लगभग राष्ट्रपति प्रणाली में बदला जाता। यह भी तय है कि मूल अधिकारों और खास तौर पर समता और अल्पसंख्यकों के अधिकारों में कटौती की जाती।

ऊपर मैंने संविधान शब्द के दूसरे और गहरे अर्थ की ओर इशारा किया है यानी राजनीति की बुनियादी संरचना। मुझे लगता है कि संविधान नामक दस्तावेज के साथ-साथ यह चुनाव देश की बुनियादी संरचना को बदलने की तैयारी भी थी। संविधान संशोधन इस बदलाव का एक हिस्सा भर होता। दरअसल, यह उस बदलाव को तार्किक परिणति तक पहुंचाने की कोशिश थी जो 2014 से देश में शुरू हो चुका है, जिसे मैंने भारत के पहले गणतंत्र के अंत की संज्ञा दी है।

2014 के बाद से धीरे-धीरे भारत के लोकतंत्र का चरित्र बुनियादी रूप से बदल चुका था। बेशक, हम कभी आदर्श लोकतंत्र नहीं रहे, हम हमेशा गहरी कमियों वाला लोकतंत्र ही थे। लेकिन 2014 के बाद कई कदम नीचे उतर गए, जिसे लोकतंत्र की संज्ञा देना कठिन होगा। दुनिया में पिछले कुछ दशकों से राजनीतिशास्‍त्री इसे प्रतिस्पर्धी अधिनायकवाद कहते हैं, यानी ऐसी व्यवस्‍था जहां लोकतांत्रिक आजादी और लोकतांत्रिक संस्‍थाओं की स्वतंत्रता पर कड़ी बंदिश हो, जो चुनावों के बीच लगभग अधिनायकवादी दिखाई दे, लेकिन जहां चुनाव में औपचारिक प्रतिस्पर्धा बाकी रहती है। चुनाव में सत्तारूढ़ दल हावी रहता है, लेकिन उसके यदा-कदा हारने की संभावना समाप्त नहीं हुई है। इसे समझने के लिए हम तुर्की या हंगरी की मिसाल ले सकते हैं। लातिनी अमेरिका के कई देश आजकल इसी श्रेणी में आते हैं। 2014 और खास तौर से 2019 के बाद से भारत को इसी श्रेणी में रखा जाना चाहिए।

इस चुनाव के बाद लोकतंत्र के ह्रास की इस प्रक्रिया के एक कदम और नीचे उतरने का अंदेशा था, जिसे राजनीतिशास्‍त्र की भाषा में इलेक्टोरल ऑटोक्रेसी यानी चुनावी तानाशाही कहा जाता है। इसकी मिसाल आप रूस में देख सकते हैं। मतलब, कहने को संविधान होगा, न्यायपालिका होगी, मीडिया भी है, लेकिन व्यवहार में सीधे-सीधे तानाशाही है। रस्मी तौर पर चुनाव नियमित रूप से कराए जाते हैं, लेकिन चुनाव के परिणाम के बारे में किसी को कोई संदेह नहीं होता। यानी अगर भाजपा 400 पार जैसे मिशन में कामयाब हो जाती तो यह तय था कि हम रूस जैसी चुनावी तानाशाही बन जाते। गौरतलब है कि यह सब संविधान में संशोधन किए बिना भी किया जा सकता था।

इसी अंदेशे का एक दूसरा हिस्सा भी है। भारत का संविधान बुनियादी रूप से एक धर्मनिरपेक्ष राज्य की कल्पना करता है। सेक्युलिरज्म शब्द को संविधान में इमरजेंसी के दौरान डालने से इसका कोई संबंध नहीं है क्योंकि शुरुआत से ही संविधान में एक सेक्युलर राज्य की कल्पना की गई थी। संविधान की प्रस्तावना, मूल अधिकार, धर्म के आधार पर भेदभाव न करने के प्रावधान, धार्मिक स्वतंत्रता और अल्पसंख्यकों के अधिकार के चलते मूल संविधान में ही सेक्युलर राज्य की संकल्पना थी। गौरतलब है कि सेक्युलर शब्द को संविधान में डालने से पहले ही सुप्रीम कोर्ट ने 1973 में ही सेक्युलर चरित्र को संविधान के बुनियादी ढांचे का अंग मान लिया था।

2014 के बाद से देश में जो कुछ हुआ है, उसके बाद भारत को सेक्युलर या कमोबेश सेक्युलर कहना गलतबयानी होगा। सच यह है कि हम एक नॉन-थियोलॉजिकल मेजॉरिटेरियन (यानी ऐसा एक धार्मिक बहुसंख्यकवाद जो औपचारिक रूप से किसी धर्म-सत्ता का उद्घोष नहीं करता) राज्य बन रहे थे। अगर ये चीजें हो जातीं, चाहे संविधान में संशोधन करके, चाहे संविधान को खारिज करके, या फिर उसकी इबारत में बिना कोई बदलाव किए शक्तियों की वास्तविक संरचना को परिवर्तित करके, तो उसका मतलब यह होता कि न सिर्फ भारत का पहला गणतंत्र समाप्त हो चुका है, बल्कि यह भी कि भाजपा अपने मनपसंद के दूसरे गणतंत्र की स्‍थापना कर चुकी होती। हिंदू राष्ट्र की परिकल्पना को 21वीं सदी के हालात में जितना लागू किया जा सकता था, लगभग वहां पहुंच जाते।

2024 के चुनाव का यही महत्व है। अब मुड़कर देखता हूं तो लगता है कि यह चुनाव ही नहीं था, इसे जनमत संग्रह या रायशुमारी कहना सही होगा। देश की जनता को एक सवाल पर हां या ना कहने को आमंत्रित किया गया था। यह सवाल एनडीए की सरकार का नहीं था क्योंकि एनडीए तो भाजपा को भी 4 जून के बाद ही याद आया। यह सवाल भाजपा का भी नहीं था क्योंकि चुनाव प्रचार में भाजपा का नाम तो लगभग स्पांसर या प्रायोजक की तरह छोटे अक्षरों में लिखा मिलता था। यह चुनाव मोदी की गारंटी पर हुआ एक जनमत संग्रह था। यानी पूरे देश से कहा जा रहा था कि नरेंद्र मोदी ने पिछले दस साल से देश में जो कुछ किया और आने वाले वर्षों में जो कुछ भी करेंगे, उस पर अंगूठा लगा दें। यह साफ था कि भाजपा 2019 में पाई 303 से एक सीट भी ज्यादा ले लेती, तो उसे इस रायशुमारी में जनता की हां की तरह माना जाता। उसके बाद भाजपा संविधान नामक दस्तावेज और देश के बुनियादी संविधान दोनों से खिलवाड़ करने के अधिकार का खुला दावा कर सकती थी। 2024 के चुनाव का असली नतीजा यह है कि जनता ने मोदी की गारंटी पर अंगूठा लगाने से इनकार कर दिया।

दरअसल मोदी की गारंटी किसी व्यक्ति या किसी योजना का प्रतीक नहीं था। मोदी की गारंटी नामक लिफाफा दरअसल इस देश के संविधान को दोनों अर्थों में बदलने का प्रस्ताव था। संविधान नामक दस्तावेज में बुनियादी बदलाव या उसके बिना भी देश की राजनैतिक संरचना में बुनियादी बदलाव करने का प्रस्ताव था, लेकिन जनता ने इस बदलाव को खारिज कर दिया। खारिज क्यों किया और कैसे किया, इस पर आने वाले वर्षों में शोध चलता रहेगी। जाहिर है, देश के अधिकांश मतदाताओं ने संविधान की बात सोचकर वोट नहीं दिया होगा। जैसे इमरजेंसी के बाद इंदिरा गांधी को हराते वक्त लोगों के मन में इमरजेंसी की ज्यादती और नसबंदी का सवाल रहा होगा, लोकतंत्र नामक अमूर्त अवधारणा शायद नहीं रही होगी। उसी तरह इस चुनाव में भी सीधे-सीधे संविधान बदलने की चिंता तो एक बहुत छोटे वर्ग में थी। कुछ बुद्घिजीवियों और दलित समाज के पढ़े-लिखे तबके में थी, लेकिन देश के साधारण व्यक्ति ने संविधान की इस चिंता को अपने तरीके और अपने मुहावरे में आत्मसात किया होगा।

 जो भी हो, फिलहाल संविधान को क्षत-विक्षत करने की योजना पर विराम लग गया है। प्रधानमंत्री संविधान को शीश नवाने लगे हैं। लेकिन सच यह भी है कि संविधान को बचाने का काम राजनैतिक पार्टियों ने नहीं, जनता ने किया है।

मगर संविधान पर आसन्न खतरा समाप्त हो गया है, यह मानना गहरी भूल होगी। सच यह है कि संवैधानिक मूल्यों को हर पीढ़ी के लिए नए शब्द, नए मुहावरे, नए रूपक देने होते हैं और उस काम में पिछली तीन पीढ़ियां असफल रही हैं। या यूं कहें कि हमने इस काम को पूरी तरह नजरअंदाज किया है।  अगर 2024 चुनाव से मिले इस विराम का इस्तेमाल संवैधानिक मूल्यों को पुनर्जीवित करने के लिए नहीं करेंगे तो संविधान पर खतरा बना रहेगा। यही भारत के भविष्य का सबसे बड़ा सवाल है क्योंकि भारत का संविधान केवल एक वक्ती दस्तावेज नहीं है, हमारा संविधान हमारे स्वतंत्रता संग्राम के वैचारिक, राजनैतिक और सामाजिक मंथन से निकला अमृत है, जो हमारी सभ्यता के मूल्यों का निचोड़ है। भारत का संविधान भारत के स्वधर्म की अभिव्यक्ति है।

संविधान सभा की बहसों से...

हम किस तरह का भारत चाहते हैं? क्या हम एक ऐसा आधुनिक भारत चाहते हैं जो आधुनिक विज्ञान से लैस हो या हम किसी ऐसे पुरातन युग या किसी ऐसे अंध युग में जीना चाहते हैं जिसका वर्तमान से कोई संबंध न हो? आपको इन दो में से किसी एक का चुनाव करना है। यह प्रश्न दृष्टिकोण का है। यह आपको तय करना है कि आप आगे देखना चाहते हैं या पीछे।

जवाहरलाल नेहरू

 योगेन्द्र यादव

(समाज विज्ञानी, चुनाव विश्लेषक, स्वराज अभियान के संयोजक)  (विचार निजी हैं)

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