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10 जून 2024 · JUN 10 , 2024

फिल्म: आजाद तवायफ तराना

तवायफों पर आई नई वेबसीरीज हीरामंडी ने फिर कोठेवालियों और देवदासियों के साथ हिंदुस्तानी सिनेमा के रिश्तों की याद दिलाई
हीरामंडी

संजय लीला भंसाली की हीरामंडी ने अतीत के पन्नों से फिर तवायफों की एक शानदार दास्तान लोगों के सामने रखने की कोशिश की है। सच तो यह है कि सिनेमा और संगीत जगत की चमक को सबसे पहले भांपने का काम हिंदुस्तान की तवायफों और देवदासियों ने ही किया था।

स्वर्ग की सुंदरता

जब भरत मुनि ने नाट्यशास्त्र की रचना की तो नाट्य में रमणीयता लाने के लिए ब्रह्मा ने अप्सराओं का सृजन किया। स्वर्ग की अप्सराओं ने देवदासियों के रूप में जन्म लिया और गंधर्वों ने साजिंदों के रूप में उनका साथ दिया। सदियों से सार्वजनिक महिला कलाकारों को नगरवधू, गणिका, देवदासी आदि नामों से संबोधित किया जाता रहा है। प्राचीन काल से मंदिरों में नृत्य और संगीत पूजा विधि का हिस्सा रहे हैं और उनका निर्वहन देवदासियों ने किया था। उन्होंने अपने में नाट्यशास्त्र की उत्कृष्ट कलाओं को संजोए रखा। कई ग्रंथों में गणिका और वेश्या में भेद बताया गया है। जो भी हो ये स्वच्छंद भाव से जीवन व्यापन करती थीं और उनकी परंपरा मातृवंशीय थी।

चाहे कालिदास की उर्वशी हो या शूद्रक की वसंतसेना, संस्कृत नाटकों में भी अपने सौंदर्य बोध और कला की जादूगरी से सब का मन मोहने वाली गणिकाओं का बहुत उल्लेख मिलता है। उनमें से कई राज दरबारों से जुड़ी थीं। पूर्व और दक्षिण भारत के मंदिरों में उन्नीसवीं सदी तक इस परंपरा को बरकरार रखा गया। रियासतें बदलती गईं मगर मंदिरों में देवदासियों का स्थान ज्यों का त्यों बना रहा। दिल्ली सल्तनत और मुगल काल में आए बदलाव के साथ दरबारों में भी तवायफों का प्रभाव बना रहा। 18वीं सदी में नवाब वाजिद अली शाह के दरबार में कथक नृत्य शैली को नया जीवन मिला। इसका प्रभाव पूरे उत्तर भारत पर होने वाला था।

सन सत्तावन के संग्राम के दौरान कई तवायफों ने भारतीय सिपाहियों की मदद की और कोठे उनके छिपने के स्थान भी बन गए। उन तवायफों को इसकी बड़ी महंगी कीमत चुकानी पड़ी। विद्रोह के खत्म होते ही कई कोठों को लूटा गया। अवध के पराजय के साथ हिंदुस्तानी कला और नृत्य का एक रंगीन दौर भी खत्म हुआ। तवायफों और वेश्याओं में कोई फर्क न किया गया और उनकी कला एक गाली बन कर रह गई। अंग्रेजी हुकूमत ने रियासतों को भी नाकाम कर दिया। उनमें अब पहले जैसा वैभव न रहा। मंदिरों की देवदासियों के दिन खत्म होने लगे थे और दरबारी तवायफें महज नाचने वाली बन कर इसी में सिमट कर रह गईं। लेकिन उनके साहस ने उन्हें नए आयाम ढूंढने के लिए प्रेरित किया।

हीरामंडी के दृश्य

हीरामंडी के दृश्य

हिंदुस्तान की टूरिंग थिएटर कंपनियों को जब कलाकारों की जरूरत पड़ी तो इन्हीं नाचने-गाने वालियों में से नए कलाकार खोजे गए। नाटकों में गानों की अहमियत थी और ये संगीत और नृत्य में प्रवीण थीं। ये घर के बंधनों से मुक्त थीं। इन नाटकों का मंचन अक्सर रात को होता था और कई बार पुरुष कलाकारों के साथ बाहर जाना करना पड़ता था। इन सभी परिस्थितियों का सामना कोठे की महिलाएं बेझिझक और निडर होकर कर सकती थीं। साथ में रिकॉर्डिंग कंपनियां के आगमन के साथ इनकी कला को एक नई दिशा मिल गई। नवंबर 8 साल 1902 में चितपुर की शशिमुखि और फणिबाला ने हिंदुस्तान के पहले गाने रिकॉर्ड किए। उसके तीन दिन बाद नवंबर 11 को ग्रामोफोन कंपनी के लिए गौहर जान ने राग जोगिया गाया। इसके साथ पारंपरिक गायिकाओं को खोज कर नए मौके आने लगे।

जब टॉकीज का दौर शुरू हुआ, तो भारतीय रंगमंच की परंपरा का ही पालन होने लगा। इनमें अभिनय से अधिक गायन पर जोर दिया जाता था। स्वाभाविक रूप से तवायफों और देवदासियों को इनमें काम मिलने लगा। इनके होने से गानों को सिनेमा में एक खास मुकाम हासिल हुआ। फैजाबाद की अख्तरी बाई ने भी कुछ आठ फिल्मों में काम करने का बाद स्टेज गजल और ठुमरी गायिका के तौर पर अविस्मरणीय मुकाम हासिल किया। बनारस की जद्दनबाई कोलंबिया रिकॉर्डिंग कंपनी की आर्टिस्ट बनीं और साथ ही कई रियासतों की महफिलों में गाने गाए। तीस के दशक में वह बंबई आई और फिल्म निर्माता बन गईं। वह हिंदुस्तान की पहली महिला संगीत निर्देशक भी बनीं। उनकी बेटी नरगिस बाद में एक प्रख्यात अभिनेत्री बन गईं। लाहौर के कंजर समुदाय में जन्मीं अल्लाह वसई बाद में नूरजहां के नाम से मशहूर हुई। आगरा की वहीदन बाई ने मेहबूब खान से बात कर अपनी बेटी निम्मी को फिल्मों में लगा दिया। ऐसे कई कलाकारों को बंबई, लाहौर, मद्रास और कलकत्ता में एक नया जीवन प्राप्त हुआ।

मद्रास के मास्टर

जहां देवदासी परंपरा का अंत होते-होते स्त्रियों को नए काम ढूंढने पड़े। इन परिवारों के पुरुषों की आमदनी भी काम होती गई। दक्षिण भारत के मंदिरों में देवदासियों को नृत्य सिखाने वाले पुरुषों को नट्टुवनार कहते हैं। कुम्भकोणम और तंजावूर जैसे शहरों को छोड़ कर उन्हें भी काम के तलाश में मद्रास और बंबई की तरफ रुख करना पड़ा, जो सिनेमा के केंद्र बन रहे थे। वहां जाकर इन लोगों ने नृत्य विद्यालय शुरू किए और साथ में फिल्मों में भी अपना योगदान दिया। इन्हीं की बदौलत अभिनेत्रियों को नृत्य सीखाने वाले मास्टर मिल गए।

समाज के ऊपरी तबके में नृत्य की स्वीकार्यता होने लगी थी। वैदीश्वरन मंदिर के सेथुरामन मुथुस्वामी अपने गुरु नट्टुवनार वैदीश्वरनकोइल मीनाक्षीसुंदरम पिल्लई के साथ मद्रास पहुंचे।

पीसी बरुआ की देवदास का दृश्य, वैजयंतिमाला और वहीदा रहमान

पीसी बरुआ की देवदास का दृश्य, वैजयंतिमाला और वहीदा रहमान

वी एस मुथुस्वामी पिल्लई ने 30 से अधिक फिल्मों के लिए गीतों का नृत्य निर्देशन किया और उन सितारों के माध्यम से जनता के बीच भरतनाट्यम के मार्फत अच्छी छवि बनाई। वह 1940 के दशक से 1960 के दशक तक तमिल, मलयालम, तेलुगु और हिंदी फिल्मों के लिए नृत्य निर्देशक बने रहे। बनारस, लखनऊ और जयपुर से भी कलाकार बंबई आने लगे। लखनऊ घराने के अच्छन महाराज रामपुर के नवाब के दरबार से जुड़े थे। उनके छोटे भाई लच्छू महाराज ने मुगल-ए-आजम और पाकीजा जैसी कई हिंदी फिल्मों में नृत्य निर्देशक के रूप में काम किया। दरबारों से जुड़े रहने के कारण इनके लिए फिल्मों के लिए शास्त्रीय नृत्य तैयार करना बाएं हाथ का खेल था और इन फिल्मों के नृत्यों को भावों से भरकर उन्हें अमरत्व प्रदान किया।

सच तो यह है कि कलाकार अक्सर अपने शिष्यों के काम से अपनी परंपरा को जीवित रखते हैं। ऐसे ही रमैया पिल्लई, कट्टप्पा पिल्लई  और दण्डयुद्धापाणि पिल्लई ने अपनी-अपनी शैली स्थापित की और नई शिष्याएं तैयार करने लगे। मद्रास और बंबई की फिल्मों में इन तीनों महानुभावों की शिष्या वैजयंतिमाला ने पचास के दशक में सिनेमा में नृत्य की परिभाषा ही बदल दी। यह कहना गलत नहीं होगा की वैजयंतिमाला के आने के बाद नायिकाओं को नृत्य सीखना अनिवार्य हो गया। इसी तरह मीनक्षीसुंदरम पिल्लई की शिष्या वहीदा रहमान ने भी फिल्मों में नृत्य का स्तर ऊंचा कर दिया। वैजयंतिमाला, पद्मिनी और कुमारी कमला जैसे कलाकारों के आते मध्यम वर्ग में भी नृत्य के प्रति स्वीकृति बढ़ गई। अब ‘अच्छे घर’ की लड़कियां भी शास्त्रीय नृत्य सीखने लगीं।

परदे पर तवायफ

तवायफों और देवदासियों ने शुरूआती दौर में फिल्मों में काम किया तो इनका जीवन भी फिल्मों के लिए प्रेरणा का कारण बन गया। आम तौर पर फिल्मों में तवायफों के साथ नैतिकता का सवाल जोड़ा जाता है और ज्यादातर उनका दुखद अंत होता है। वे या तो अपने स्वच्छंद आचरण के लिए पश्चाताप करती हैं या शरीफ बीबी बन जाती हैं। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि तवायफों की कहानियों को पुरुष दृष्टिकोण से ही बनाया गया है। प्राचीन भारत की गणिकाओं की कहानियां काम ही बनी हैं। इनमें सिर्फ केदार शर्मा की चित्रलेखा (1964) और लेख टंडन की आम्रपाली (1966) ही उल्लेखनीय हैं।

इसके बाद 1936 में पी सी बरुआ की फिल्म देवदास के साथ चंद्रमुखी का एक महत्वपूर्ण किरदार लोगों के सामने आया। चंद्रमुखी दुनिया देख चुकी है। उसे प्रेम पाने की कोई उम्मीद नहीं और अगर प्रेमी मिल भी जाता है, तो वह उसे खो देती है। वह बाजार में बैठ कर भी पवित्रता की प्रतिमूर्ति है और सच्चा प्यार पाने के लिए अपने आचरण में परिवर्तन लाती है। प्रेमी की ख़ुशी के लिए वह अपने प्राण भी न्यौछावर कर सकती है। देखा जाए, तो हिंदी सिनेमा में तवायफ के हर किरदार में चंद्रमुखी का साया दिखाई देता रहा। चाहे वह पाकीजा की साहिबजान हो या फिर मुकद्दर का सिकंदर की जोहराबाई। अमर प्रेम की पुष्पा हो या उमराव जान की अमीरन। संजय लीला भंसाली की हीरामंडी में भी चंद्रमुखी हर जगह दिखाई देती है।

(लेखक पत्रकार और फिल्म शोधकर्ता हैं)

 

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