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19 अगस्त 2024 · AUG 19 , 2024

अमेरिकाः पहली महिला राष्ट्रपति की आस

चुनाव को सौ दिन से भी कम रह गए हैं और कमला हैरिस का चुनाव जोर पकड़ रहा है, लेकिन दक्षिणपंथी ताकतों की चुनौती भी कम नहीं
राष्ट्रपति की उम्मीदवार कमला हैरिस

अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव की बिसात अब बिछ चुकी है। राष्ट्रपति जो बाइडन ने खुद को चुनावी दौड़ से अलग कर लिया है और उप-राष्ट्रपति कमला हैरिस को समर्थन दे दिया है। अपने ऊपर गोलीबारी की घटना के बाद पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प जब बाइडन के ऊपर बढ़त लेते दिख रहे थे, ऐसे में बाइडन का कदम पीछे खींच लेना अब चुनाव को ट्रम्प के लिए मुश्किल बना सकता है और उन्हें नई रणनीति तैयार करनी पड़ सकती है। कमला हैरिस को अब तक डेमोक्रेटिक पार्टी का आधिकारिक प्रत्याशी नहीं बनाया गया है। संभव है कि अगस्त में होने वाले पार्टी के सम्मेलन के बाद यह घोषणा की जाए। कमला के अलावा कई अन्य प्रत्याशी भी नामांकन की दौड़ में हैं, जिनमें एक हैं वेस्ट वर्जीनिया से सीनेटर जो मंचिन। पहले वे डेमोक्रेट थे लेकिन अब निर्दलीय हैं। वे दोबारा डेमाक्रेटिक पार्टी में आने की योजना बना रहे हैं। उनका मानना है कि हैरिस के नामांकन को वॉशिंगटन में बैठी सत्ता द्वारा किसी राज्याभिषेक की शक्ल में थोपा नहीं जाना चाहिए बल्कि इसकी उचित प्रक्रिया का पालन किया जाना चाहिए।

इस प्रक्रिया के अंतर्गत हैरिस को पार्टी के साथ पंजीकृत 3,900 डेलिगेट चुनेंगे, जिन्हें पहले बाइडन को चुनना था। उसके बाद पार्टी के सुपर डेलिगेट, वरिष्ठ पदाधिकारी मिलकर हैरिस के नाम पर मुहर लगाएंगे। नवंबर में प्रस्तावित चुनाव के चलते इस प्रक्रिया के लिए अब समय कम बचा है। कमला उप-राष्ट्रपति हैं ही, इसलिए उनके प्रत्याशी चुने जाने की संभावना ज्यादा है। बाइडन के समर्थन के बाद देश भर से डेमोक्रेट सीनेटरों और पार्टी के बड़े चेहरों का समर्थन उन्हें मिलने लगा है।

अगर कमला राष्ट्रपति पद की प्रत्याशी चुन ली गईं, तो यह कुछ रूढ़ियों को तोड़ने वाला साबित होगा और कुछ नई चुनौतियां भी खड़ी करेगा। भारतीय मां और अफ्रीकी पिता की संतान कमला हैरिस हमेशा से ऐसे तंत्र के खिलाफ रही हैं, जो इन समूहों से भेदभाव बरते जबकि उनके प्रतिद्वंद्वी ट्रम्प ऐसे ही तंत्र को अपना एजेंडा बनाकर भेदभाव की राजनीति का दोहन करते रहे हैं। जैसे, ट्रम्प का खेमा कमला हैरिस की हंसी का मजाक उड़ाता है क्योंकि वे खुलकर हंसती हैं।

भरोसाः राष्ट्रपति जो बाइडन ने उप-राष्ट्रपति कमला हैरिस के रूप में तुरूप का पत्ता चला

भरोसाः राष्ट्रपति जो बाइडन ने उप-राष्ट्रपति कमला हैरिस के रूप में तुरूप का पत्ता चला

इसीलिए इस बार एक महिला को राष्ट्रपति चुनने का अमेरिकी मतदाताओं को मिला मौका ऐतिहासिक होगा। अमेरिका भले ही सबसे पुराना लोकतंत्र है और औरतें यहां दशकों से राजनीति करती रही हैं लेकिन शीर्ष पद पर उनका पहुंचना आज भी सपना ही है। हिलेरी क्लिंटन की 2016 के चुनाव में हार के वक्त से ही अमेरिकी औरतों को इस पल का इंतजार रहा है।

अमेरिका में बहुत मजबूत महिला नेता हुई हैं, जैसे नैंसी पेलोसी, एलिजाबेथ वॉरेन, ‌दिवंगत डियान फेंस्टीन इत्यादि, लेकिन राष्ट्रपति चुनाव लड़ने का मौका सबको नहीं मिल सका। डेमोक्रेट नेता जेराल्डीनो फरारो को 1984 में उप-राष्ट्रपति नामांकित किया गया था। इसी तरह टी पार्टी की प्रत्याशी और अलास्का की पूर्व गवर्नर सारा पालिन को 2008 में रिपब्लिकन पार्टी ने उप-राष्ट्रपति पद पर नामित किया था।

हिलेरी क्लिंटन की हार से अमेरिकी औरतों को बहुत बड़ा झटका लगा था क्योंकि ज्यादातर विश्लेषकों ने उनकी जीत का अनुमान लगाया था। वास्तव में, वे अपने विजय भाषण की तैयारी में जुटी हुई थीं जब खबर आई कि ट्रम्प उनसे आगे चल रहे हैं। कमला हैरिस का उप-राष्ट्रपति बनना इस लिहाज से बड़ी घटना थी जिसका खूब स्वागत हुआ, लेकिन राष्ट्रपति की कुर्सी महिलाओं से अब भी दूर थी।

अमेरिका में औरतों को मताधिकार के लिए भी संघर्ष करना पड़ा है। संविधान में उन्नीसवें संशोधन के बाद उन्हें 1919 में यह अधिकार प्राप्त हुआ। 1920 में यह कानून बना। इस कामयाबी में बरसों का संघर्ष लगा, जिसकी शुरुआत उन्नीसवीं सदी के आरंभ में आंदोलनों, मुकदमों, भूख हड़ताल और वार्ताओं के माध्यम से हो गई थी। इतने प्रयासों के बाद पुरुष-सत्तात्मक समाज ने औरतों को वोट डालने का अधिकार दिया।

अमेरिकी और यूरोपीय औरतों के संघर्ष से तुलना करें, तो हम पाते हैं कि दक्षिण एशिया में औरतों को वोट का अधिकार पाने के लिए कोई लड़ाई नहीं लड़नी पड़ी। इस समाज में व्याप्त जबरदस्त पुरुष सत्ता के बावजूद श्रीलंका की श्रीमाओ भंडारनायके से लेकर भारत की इंदिरा गांधी, पाकिस्तान की बेनजीर भुट्टो और बांग्लादेश की शेख हसीना और खालिदा जिया तक तमाम औरतें सत्ता के शीर्ष पद तक पहुंच चुकी हैं। इसके बावजूद अमेरिका में आज तक ऐसा नहीं हो सका, जबकि वह अपनी जनतांत्रिक और उदारवादी परंपराओं का दम भरते नहीं थकता है।

इसलिए हैरिस का राष्ट्रपति चुना जाना कई रूढ़ियों को तोड़ेगा, जैसे कि वे पितृसत्ता और नस्ली पूर्वग्रह दोनों के खिलाफ होंगी जो अमेरिकी राजनीति का हमेशा से लक्षण रहे हैं। अमेरिका में कई गोरे लोग नस्लवादी हैं। अभी हाल ही में रिपब्लिकन पार्टी से उपराष्ट्रपति पद के प्रत्याशी जेडी वांस के भाषण के बाद उनकी पत्नी उषा चिलुकुरी के ऊपर कुछ गोरों का किया हमला सोशल मीडिया में खूब प्रचारित हुआ था। उषा पेशे से वकील हैं, भारतीय मूल की हैं लेकिन जन्म से लेकर उनकी ‌शिक्षा-दीक्षा सब अमेरिका में ही हुई है। वे येल और कैम्ब्रिज जैसे संस्थानों से प्रशिक्षित हैं, इसके बावजूद उन पर हमला करने वाले दक्षिणपंथी ट्रोल गिरोह को शक था कि वांस पर अवैध प्रवासियों को रोकने के मामले में भरोसा नहीं किया जा सकता क्योंकि उनकी पत्नी भारतीय हैं। ट्रम्प-समर्थक एक पादरी ने तो खुलकर कहा कि वे अपने गोरे बच्चों के आसपास भी किसी हिंदू को फटकते देखना बरदाश्त नहीं करेंगे। इसके बावजूद वांस चुने गए क्योंकि वे रिपब्लिकन पार्टी के भीतर ग्रामीण मजदूर वर्ग के गोरे परिवारों की नुमाइंदगी करते हैं। उन्हें डोनाल्ड ट्रम्प के बेटे ने उपराष्ट्रपति के लिए नामांकित करवाया था।

कमला हैरिस की प्राथमिकताओं की सूची में औरतों के अधिकार सबसे ऊपर आते हैं। गर्भपात पर सार्वजनिक बहसों में वे अग्रणी भूमिका निभाती रही हैं और ट्रम्प से इस मामले में वे काफी आगे हैं। इसीलिए माना जा रहा है कि औरतें इस मुद्दे पर उन्हें वोट देंगी क्योंकि यह सीधे उनकी देह पर अपने अधिकार से जुड़ा मसला है। अमेरिकी अखबारों में आई रिपोर्टें बताती हैं कि कमला ने अपने अभियान के दौरान गर्भपात कराने वाले क्लीनिकों का दौरा किया है। इसके ठीक उलट राष्ट्रपति बाइडन गर्भपात का नाम लेने से भी कतराते रहे हैं, जिसके पीछे उनकी कैथोलिक आस्था बताई जाती है। कैथोलिक चर्च एक समय में गर्भनिरोधकों के खिलाफ था और आज भी गर्भपात का विरोध करता है।

हैरिस का चुना जाना इसीलिए औरतों और युवाओं के लिहाज से उत्साहजनक होगा। जैसा कि हडसन इंस्टिट्यूट की अपर्णा पांडे कहती हैं, “यह चुनाव बहुत करीबी और प्रतिस्पर्धी रहने वाला था और अब भी वैसा ही है। अब डेमोक्रेटिक पार्टी के पास कमला के रूप में एक युवा, महिला और अल्पसंख्यक चेहरा है जो लड़ाई में उसकी संभावनाओं को मजबूत बनाता है क्योंकि वे पार्टी के जनाधार में शामिल तीनों तबकों (युवा, महिला और अल्पसंख्यक, खासकर अफ्रीकन अमेरिकन) की नुमाइंदगी करती हैं।’’

पांडे कहती हैं, ‘‘भारतीयों और दक्षिण एशियाई अमेरिकियों के बीच उनका समर्थन अच्छा रहेगा, लेकिन इसका असर मतदान में उतना नहीं दिखेगा, अभियान के खर्चे में जरूर दिखेगा। इस समुदाय की संख्या अफ्रीकन-अमेरिकन समुदाय के मुकाबले कम है। इसलिए अगर उनके नाम पर अफ्रीकन-अमेरिकन वोट करने भारी संख्या में निकले, तब फर्क पड़ सकता है। इसी तरह अगर वे अमेरिकी महिलाओं को गर्भपात जैसे मुद्दे पर अपील कर गईं, तो उसका भी फर्क पड़ेगा।’’

उपराष्ट्रपति के रूप में कमला की छवि औसत कही जा सकती है। इस भूमिका में वे ज्यादा दिखाई नहीं दी हैं। वो तो बाइडन के बचाव में उतरने के बाद सार्वजनिक मंचों पर उनका दिखना अब जाकर शुरू हुआ है वरना ज्यादातर समय वाइट हाउस ने उन्हें अवैध प्रवासियों और सीमा सुरक्षा के काम में ही उलझाए रखा था। इसीलिए माना जा रहा है कि ट्रम्प का खेमा अवैध प्रवासियों को अमेरिका में घुसने से रोकने में उनके नाकाम रहने पर उन्हें घेरेगा। खासकर वे लोग जो प्रवासियों को चोर, नशेड़ी और हत्यारा मानते हैं और उनसे डरते हैं, वे आसानी से इस झांसे में आ जाएंगे।

कमला हैरिस के लिए अच्छी बात यह है कि उनके अभियान को दानदाताओं का भरोसा प्राप्त है और उन्हें चंदा खूब मिल रहा है। सीएनएन के अनुसार बाइडन की घोषणा के दो घंटे के भीतर छोटे दानदाताओं की ओर से उनकी झोली में 4.67 करोड़ डाॅलर गिर चुके हैं। अपने नामांकन के बाद से हैरिस ने लगातार फोन से चंदा मांगने की अपील की है। एक ही सत्र में काली औरतों ने उन्हें 15 लाख डॉलर का चंदा दे दिया था। जो बड़े दानदाता पहले बाइडन को चंदा देते थे, उनसे उम्मीद की जा रही है कि अब ट्रम्प को रोकने के लिए वे हैरिस को चंदा देंगे।

 

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