- एक रियल एस्टेट कंपनी में कंपनी सेक्रेटरी एन.के.झा को नौकरी की चिंता खाए जा रही है। “नोटबंदी और जीएसटी” के बाद, खासकर साल भर से तो हालात इतने बिगड़ चुके हैं कि कंपनी के प्रमोटर अब बिजनेस से बाहर निकलना चाहते हैं। रमेश कहते हैं कि एक वक्त था, जेब में एक नौकरी लेकर चला करते थे, लेकिन अब तो जहां काम कर रहे हैं वहां भी सुरक्षित नहीं हैं
- गुरुग्राम में एक ऑटो कंपोनेंट कंपनी में काम करने वाले विवेक सिंह भी परेशान हैं। उनकी कंपनी ऑटो कंपनियों के लिए कंपोनेंट सप्लाई करती है। वे बताते हैं, “कुछ महीने पहले मैं सोनीपत में एक कंपनी में काम करता था, लेकिन ऑटो सेक्टर में गिरावट की वजह से वहां दिक्कतें शुरू हो गईं। वेतन भी सही और ठीक समय से नहीं मिल पा रहा था। इसलिए कम वेतन पर आ गया। लेकिन यहां भी स्थिति अच्छी नहीं है। फिर समझ में नही आ रहा है अब क्या करूं”
- लखनऊ से इंजीनियरिंग और एमबीए करने वाली अंशिका का कहना है कि प्रोफेशनल डिग्री होने के बावजूद नौकरी नहीं मिल रही है। किसी भी जगह सीवी भेजो, जवाब नहीं आ रहा है। कैंपस सेलेक्शन भी फीका है। पढ़ाई में लाखों रुपये लग गए। अब क्या करें, बमुश्किल एक जगह ट्रेनिंग करने का मौका मिला है...
ये तो कुछ नमूने हैं। इन जैसे हजारों लोग हैरान हैं कि ऐसी हालात में सरकार कैसे देश की अर्थव्यवस्था को पांच लाख करोड़ डॉलर की बनने का सपना दिखा रही है। इस वित्त वर्ष की पहली तिमाही (अप्रैल-जून’19) के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के आंकड़े 30 अगस्त को जारी हुए तो जैसे अब तक ढंका-छुपा सब उजागर हो गया। ये आंकड़े इतने निराशाजनक हैं और लगातार पांच तिमाहियों से गिरावट इतनी साफ है कि अब तक अर्थव्यवस्था में सुस्ती तक से इनकार करने वाली मोदी सरकार को हथियार डाल देने पड़े। आंकड़े जारी होने के बाद मुख्य आर्थिक सलाहकार कृष्ण मूर्ति सुब्रह्मण्यम ने कहा कि आर्थिक सुस्ती का माहौल भीतरी और बाहरी दोनों कारणों से है और सरकार निपटने के उपाय कर रही है।
लेकिन हकीकत यह भी है कि सरकार के कोई उपाय गिरावट को रोकने में कारगर नहीं रहे हैं। हालत यह है कि अर्थव्यवस्था प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के छह साल के कार्यकाल में सबसे निचले स्तर पर है। जीडीपी महज तीन साल पहले (2016-17) 8.2 फीसदी की वृद्धि दर से दुनिया की सबसे तेज रफ्तार इकोनॉमी का तमगा दिला रही थी, वह अप्रैल-जून की पहली तिमाही (2019-20) में 5.0 फीसदी पर लुढ़क गई। खतरे की बात यह है कि गिरावट लगातार 15 महीने से जारी रही है। उद्योग जगत के संगठन फिक्की के अध्यक्ष संदीप सोमानी कहते हैं, “पहली तिमाही में 5.0 फीसदी की ग्रोथ रेट उम्मीद से कहीं ज्यादा कम है। इस गिरावट से साफ है कि डिमांड और निवेश दोनों में भारी गिरावट आई है। इकोनॉमी के सभी प्रमुख सूचकांक स्लोडाउन की ओर इशारा कर रहे हैं।”
इकोनॉमी के इस गहरे संकट से अब यह सवाल उठने लगा है कि क्या हमारी इकोनॉमी का ढांचा ही ढहने लगा है, जो सरकार से संभाले नहीं संभल रहा है? क्या जल्द ही देश मंदी के भंवर में फंस जाएगा? इन बातों को इसलिए बल मिल रहा है कि इकोनॉमी में अहम भूमिका निभाने वाला कृषि क्षेत्र पहली तिमाही में 2.0 फीसदी की ग्रोथ रेट पर आ गया है, जबकि पिछले साल इसी अवधि में यह 5.1 फीसदी था। इसी तरह मैन्युफैक्चरिंग का पहिया लगभग थम-सा गया है। पहली तिमाही में मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर 2018-19 के 12.1 फीसदी की तुलना में 0.6 फीसदी पर आ गया है। अकेले ऑटो सेक्टर से 30 लाख नौकरियों के जाने का खतरा मंडरा रहा है। जेम्स ऐंड ज्वैलरी सेक्टर में लाखों नौकरियों पर संकट गहरा गया है।
हालत यह है कि भारतीय जनता पार्टी के ही वरिष्ठ नेता और अर्थशास्त्री सुब्रह्मण्यम स्वामी ने यहां तक कह दिया, “पांच लाख करोड़ डॉलर की इकोनॉमी को अलविदा कहने के लिए तैयार हो जाओ।” गहराते संकट का एहसास और पैमाना इतना डरावना है कि आंकड़े जारी होने के पहले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण तक डैमेज कंट्रोल में जुट गए। प्रधानमंत्री ने 15 अगस्त को लाल किले से कॉरपोरेट जगत को “वेल्थ क्रिएटर” का नाम देकर निराशा में डूबे कारोबारियों में उत्साह भरने की कोशिश की। वित्त मंत्री ने 23 अगस्त को विदेशी निवेशकों को लुभाने के लिए अपने बजट में किए कैपिटल गेन पर सरचार्ज के ऐलान को वापस लिया और ऑटो सेक्टर में मांग बढ़ाने, छोटे कारोबारियों को जीएसटी रिफंड मिलने में आ रही दिक्कतों को दूर करने के कुछ उपायों और बैंकों को जल्द 70 हजार करोड़ रुपये देने जैसे कदमों की घोषणा की। उनकी करीब 100 मिनट की प्रेस कॉन्फ्रेंस में वह जोश गायब था, जो बजट पेश करते वक्त था।
शायद वित्त मंत्री को 30 अगस्त को जीडीपी के आंकड़ों में क्या आने वाला है, इसका आभास पहले से था। इसीलिए उस दिन वे फिर प्रेस कॉन्फ्रेंस में नमूदार हुईं और बैंकों के मेगा मर्जर प्लान की भी घोषणा कर डाली। यह शायद डरावनी सुर्खियों से बचने की कवायद थी। उसके पहले केंद्रीय कैबिनेट ने प्रत्यक्ष विदेशी निवेश बढ़ाने के लिए कोयला क्षेत्र, सिंगल ब्रांड रिटेल सहित दूसरे क्षेत्रों में निवेश नियमों में भी ढील देने का फैसला किया। कुल मिलाकर सरकार इस समय जल्द से जल्द संकट से निकलने के लिए कदम उठाते हुए दिखना चाहती है। लेकिन हकीकत यह है कि जिस तरह सरकार की कमाई को झटका लगा है, उससे उसके पास निवेश के लिए पैसा नहीं है। ऐसे में उसने भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआइ) से उसके पास पड़े कैश सरप्लस में से 1.76 लाख करोड़ रुपये लेने का विवादास्पद फैसला भी लिया। सरकार इस पैसे का क्या करेगी, इस पर अभी वित्त मंत्री चुप हैं। इस बीच मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने इकोनॉमी की स्थिति पर श्वेत-पत्र लाने की मांग कर दी है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा का कहना है, “सरकार ने अपने राजनैतिक हितों के लिए इकोनॉमी को दिवालिया होने के कगार पर पहुंचा दिया है। उसने अपने कुप्रबंधन की वजह से इकोनॉमी को इस स्थिति में ला दिया है।”
दरअसल, अर्थव्यवस्था की सेहत के सभी सूचकांक गहराती मंदी की ओर इशारा कर रहे हैं। पिछले 15 महीने से घटती जीडीपी विकास दर की वजह से यह हुआ कि भारतीय रिजर्व बैंक से लेकर दुनिया की सभी प्रमुख एजेंसियों ने भी भारत को लेकर अपने अनुमान घटा दिए हैं। रिजर्व बैंक ने जहां 2019-20 के लिए 6.9 फीसदी की विकास दर का अनुमान लगाया है, वहीं रेटिंग एजेंसी मूडीज ने इसे 6.2 फीसदी रहने का अनुमान जताया है। यानी आने वाले दिनों में भी स्थिति में बहुत सुधार की गुंजाइश नहीं दिख रही है। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि इकोनॉमी में सरकार से लेकर निजी क्षेत्र का निवेश लगातार घट रहा है। आर्थिक सर्वेक्षण 2018-19 के अनुसार केंद्र सरकार का कुल खर्च 2010-11 में जहां जीडीपी के मुकाबले 15.4 फीसदी था, वह 2018-19 में गिरकर 12.2 फीसदी पर आ गया है। इसी तरह सेंटर फॉर मॉनीटरिंग इंडियन इकोनॉमी के अनुसार निजी क्षेत्र द्वारा नए प्रोजेक्ट पर किया जाने वाला निवेश 14 साल के निम्नतम स्तर पर दिसंबर 2018 की तिमाही में पहुंच गया है। इस अवधि में केवल 50 हजार करोड़ रुपये के निवेश प्रस्ताव आए। असर यह है कि कंपनियों ने बैंकों से कर्ज लेना कम कर दिया है। क्रेडिट ग्रोथ भी गिर रही है। अगस्त 2018 में यह जहां 14.17 फीसदी पर थी। वह अगस्त 2019 में गिरकर 12.18 फीसदी पर है।
निवेश गिरने की बड़ी वजह यह है कि सरकार और निजी कंपनियों की कमाई लगातार गिर रही है। सरकार की कुल राजस्व प्राप्तियां आठ साल के निचले स्तर पर हैं। 2010-11 में जहां जीडीपी के मुकाबले राजस्व प्राप्तियां 10.1 फीसदी पर थीं, वह 2018-19 में 8.2 फीसदी पर आ गई हैं। कमाई गिरने की वजह डिमांड कम होना है। यानी लोगों ने खरीदारी कम कर दी है। इसकी एक प्रमुख वजह यह है कि लोगों की बचत कम हो गई है। आरबीआइ के आंकड़ों के अनुसार घरेलू बचत दर 2011-12 में जहां जीडीपी के मुकाबले 23.6 फीसदी थी वह 2017-18 में गिरकर 17.2 फीसदी पर आ गई है। जाहिर है, जब पैसा नहीं बचेगा तो लोगों के खर्च करने की क्षमता घट जाएगी। एसबीआइ की ताजा रिसर्च रिपोर्ट के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में मजदूरी दर में बढ़ोतरी 2018-19 में केवल 1.1 फीसदी थी, जो 2013-14 में 14.6 फीसदी के दर से बढ़ रही थी। जाहिर है कि अगर देश की 65 फीसदी आबादी की इनकम में बढ़ोतरी केवल एक फीसदी की दर से होगी, तो वह अपने खर्च में कटौती करेगी ही। असर यह हुआ है कि ग्रामीण इलाकों में लोगों ने कपड़े जैसी चीज की भी खरीदारी रोक दी है। शहरी क्षेत्र में भी आय में बढ़ोतरी दहाई अंकों से गिरकर इकाई में आ गई है। नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस के आंकड़ों के अनुसार देश में इस समय बेरोजगारी दर 45 साल के उच्चतम स्तर 6.1 फीसदी पर है। अर्थव्यवस्था की बिगड़ती हालत पर ब्रिटानिया इंडस्ट्रीज के एमडी वरुण बेरी का एक साक्षात्कार में दिया गया बयान भी काफी अहम है। उनका कहना है कि इस समय लोग पांच रुपये का बिस्कुट खरीदने से पहले भी दो बार सोच रहे हैं। इसी तरह नार्दन टेक्सटाइल मिल्स एसोसिएशन ने इंडस्ट्री के हालात के बारे में जानकारी के लिए अखबारों में विज्ञापन तक दे डाला है। उनके अनुसार करीब 10 करोड़ लोगों को रोजगार देने वाली टेक्सटाइल इंडस्ट्री में मांग गिरने की वजह से करोड़ों लोगों के बेरोजगार होने का खतरा मंडरा रहा है।
चरमराने लगा ढांचा
आखिर इकोनॉमी में यह सुस्ती क्यों है और आगे कब सुधरने के आसार दिख रहे हैं? इस पर नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस ऐंड पॉलिसी के प्रोफेसर एन.आर.भानुमूर्ति कहते हैं, “इकोनॉमी इस समय बहुत कमजोर स्थिति में है। सभी प्रमुख सेक्टर गिरती मांग का सामना कर रहे हैं। असल में सुस्ती की शुरुआत साल 2018 के मध्य में हो गई थी। लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि सरकार इसे, उस वक्त मानने को तैयार नहीं थी। परिणाम यह हुआ कि इकोनॉमी अब साइक्लिक स्लोडाउन से स्ट्रक्चर स्लोडाउन में पहुंच गई है। स्ट्रक्चर स्लोडाउन के तीन प्रमुख संकेत हैं। एक, सरकार जिस तरह से अपना राजकोषीय प्रबंधन कर रही है, उसका असर घटते खर्च के रूप में दिख रहा है। दूसरे, डिमांड टूटने से प्राइवेट सेक्टर बदहाल है। तीसरे, बैंकिंग सेक्टर में बढ़ता एनपीए और दूसरी समस्याएं लंबे समय से बनी हुई हैं। फिर सरकार ने नोटबंदी और जीएसटी को जिस तरह से लागू किया, उससे भी समस्या बढ़ी।”
इकोनॉमी में तेजी लाने के लिए सरकार ने मेक इन इंडिया को बढ़ावा देने की बात कही थी। इसके जरिए 2022 तक मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर की जीडीपी में 22 फीसदी हिस्सेदारी करने का लक्ष्य रखा गया। लेकिन 2014 से अभी तक इस हिस्सेदारी में बढ़ोतरी नहीं हुई है। यह 16 फीसदी के करीब ही टिकी हुई है जबकि चीन में यह 29 फीसदी, थाइलैंड में 27 फीसदी पर पहुंच चुकी है। यहां तक कि बांग्लादेश भी 17 फीसदी के स्तर पर पहुंच गया है। केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय के आंकड़ों के अनुसार जून 2018 में इंडस्ट्रियल प्रोडक्शन सूचकांक (आइआइपी) 6.9 फीसदी के स्तर से गिरकर जून 2019 में 1.2 फीसदी पर आ गया है। निवेश की दर में भी हम अपने पड़ोसी देशों से काफी पीछे हैं। जीडीपी का हम 31 फीसदी पूंजी निर्माण में खर्च कर रहे हैं जबकि चीन में यह 44 फीसदी, इंडोनेशिया में 34 फीसदी और बांग्लादेश में यह 31 फीसदी से ज्यादा हो चुका है। सेंटर फॉर पॉलिसी अल्टरनेटिव के चेयरमैन और 1998 में वित्त मंत्री के सलाहकार रह चुके मोहन गुरुस्वामी का कहना है, “आर्थिक स्थिति बहुत खराब है लेकिन सरकार उसे सुधारने से ज्यादा दिखावा करने पर फोकस कर रही है। सरकार पूंजी निर्माण पर खर्च नहीं कर रही है।”
वाहन उद्योग के पहिए थमे
नब्बे के दशक से अर्थव्यवस्था की चमकती तसवीर पेश करने वाले वाहन उद्योग की वृद्धि दर निगेटिव में पहुंच गई है। ऑटोमोबाइल कंपनियों के संगठन सोसायटी ऑफ इंडियन ऑटोमोबाइल मैन्युफैक्चरर्स (सिआम) के आंकड़ों के अनुसार जनवरी 2018 में ऑटोमोबाइल सेक्टर 31 फीसदी की दर से ग्रोथ कर रहा था। वह दिसंबर 2018 आते-आते दो फीसदी की निगेटिव दर में पहुंच गया। जुलाई 2019 में 15.3 फीसदी के निगेटिव रेट पर आ गई है, जबकि अगस्त में मारुति सुजुकी की छोटी कारों की बिक्री में 70 फीसदी तक गिरावट है। इसका असर यह हुआ है कि सभी प्रमुख कंपनियों ने उत्पादन घटाया है और नौकरियों में भी कमी आई है। ऑटो कंपनियों से करीब 15 हजार अस्थायी कर्मचारियों को हटाया गया है। फेडरेशन ऑफ ऑटोमोबाइल डीलर्स एसोसिएशन (फाडा) के अनुसार पिछले तीन महीने में दो लाख नौकरियां डीलर्स के स्तर पर गई हैं। इन वजहों से अभी तक 280 आउटलेट बंद हो गए हैं। ऑटोमोबाइल कंपोनेंट मैन्युफैक्चरर्स एसोसिएशन के प्रेसिडेंट राम वेंकट रमानी के अनुसार सेक्टर में 10 लाख से ज्यादा नौकरियां संकट में हैं।
जवाहरात की चमक फीकी
एक करोड़ लोगों को रोजगार देने वाले जेम्स ऐंड ज्वैलरी सेक्टर की समस्याएं पॉलिसी स्तर पर ज्यादा हैं। जेम्स ऐंड ज्वैलरी फेडरेशन के सदस्य और पूर्व अध्यक्ष नितिन खंडेलवाल कहते हैं, “पिछले तीन-चार महीने में 75 फीसदी तक बिजनेस गिर गया है। इसकी सबसे बड़ी वजह गोल्ड पर इम्पोर्ट ड्यूटी बढ़ाया जाना है। भारतीय उत्पाद महंगे हो गए हैं। पहले अनिवासी भारतीय बहुत बड़ी संख्या में भारत से ज्वैलरी की खरीदारी करते थे लेकिन अब वे दुबई और दूसरी जगहों से खरीदारी कर रहे हैं। कर्ज मिलना मुश्किल हो गया है। जीएसटी रिफंड मिलने में समस्या है। इन वजहों से 50 फीसदी के पास काम नहीं है।”
कपड़ाः बिखरा धागा-धागा
करीब 150 अरब डॉलर का कारोबार करने वाला टेक्सटाइल और अपैरल सेक्टर भी मंदी की मार झेल रहा है। कॉन्फेडरेशन ऑफ इंडियन टेक्सटाइल इंडस्ट्री के प्रेसिडेंट संजय जैन के अनुसार अप्रैल से जुलाई 2019 के बीच कॉटन यार्न का निर्यात 33 फीसदी गिर चुका है। ऊपर से कमजोर रुपये ने हालत और बिगाड़ दी है। रुपया डॉलर के मुकाबले 72 स्तर तक पहुंच गया है। इस इंडस्ट्री से करीब 10 करोड़ लोगों को रोजगार मिलता है, जिस पर सीधे संकट है। बैंकों के कर्ज देने में सख्ती पर एसबीआइ के पूर्व सीजीएम सुनील पंत कहते हैं, “बैंकिंग सेक्टर में पैसों की कमी नहीं है, समस्या यह है कि बैंक कर्ज देने से कतरा रहे हैं। पिछले दो-तीन साल में जिस तरह से सीबीआइ-ईडी के बैंकर्स पर एक्शन हुए हैं, उससे वे कोई जोखिम नहीं लेना चाहते। पूरा मामला भरोसे का हो गया है।”
छोटे-मझोले मंझधार में
फिसमे के जनरल सेक्रेटरी अनिल भारद्वाज के अनुसार, “बड़ी कंपनियों से पेमेंट अटकी हुई है। उस पर जीएसटी रिफंड बहुत देर से मिल रहा है।” स्पष्ट है कि इकोनॉमी के सभी हिस्सों में परेशानियां हैं। जब तक सरकार बड़े रिफॉर्म नहीं करेगी, तब तक पांच लाख करोड़ डॉलर की नींव नहीं तैयार होगी।
रिजर्व बैंक के 84 साल में पहली बार रिजर्व फंड से लिया पैसा
रिजर्व बैंक के सेंट्रल बोर्ड ने आखिरकार 26 अगस्त 2019 को सरकार को 1.76 लाख करोड़ रुपये की अतिरिक्त रकम ट्रांसफर करने का फैसला कर लिया है। इस रकम पर सरकार की करीब 15 महीने से नजर थी। जिसका तत्कालीन गवर्नर उर्जित पटेल विरोध कर रहे थे। उनके इस्तीफे के बाद दिसंबर 2018 में पूर्व आरबीआइ गवर्नर बिमल जालान की अध्यक्षता में सरकार ने समिति का गठन किया। जिसे यह तय करने का जिम्मा मिला कि केंद्रीय बैंक के रिजर्व फंड में कितनी रकम होनी चाहिए। जालान समिति के अनुसार रिजर्व बैंक अपने कुल एसेट का 5.5-6.5 फीसदी हिस्सा आपात स्थिति के लिए रख सकता है। इस आधार पर सरकार को 52,637 करोड़ रुपये मिलेंगे। आरबीआई का रिवैलुएशन रिजर्व भी होता है। यह समिति के अनुसार 20-24.5 फीसदी होना चाहिए। इसके आधार पर सरकार को 1,23,414 करोड़ रुपये मिलेंगे। इस तरह रिजर्व बैंक सरकार को कुल 1,76,051 करोड़ रुपये ट्रांसफर करेगा। इसमें से 28,000 करोड़ वह पहले ही दे चुका है। अर्थशास्त्री प्रणब सेन कहते हैं कि आरबीआइ का रिजर्व फंड निचले स्तर पर रखना अच्छा नहीं है। भविष्य के लिए यही मानक बन सकता है। बैंकर सुनील पंत का कहना है कि सरकार इस रकम को पूंजीगत खर्च में इस्तेमाल करेगी तो इकोनॉमी को फायदा मिलेगा। लेकिन राजस्व खर्च के लिए होता है तो परेशानी बढ़ेगी।
कितने काम आएंगे ये कदम
भले वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण खुलकर खराब होती इकोनॉमी की हकीकत स्वीकार नहीं कर रही हैं लेकिन 23 अगस्त से लेकर 30 अगस्त के बीच में सरकार ने जिस तरह फैसले लिए हैं वे सारी कहानी बयां कर देते हैं। आइए जानते हैं कि सरकार ने अब तक क्या किया और उसका क्या असर होगा...
शेयर बाजार के मद में
बजट में एफपीआइ पर सरचार्ज में की गई बढ़ोतरी के प्रस्ताव को वापस ले लिया गया है। इक्विटी शेयर ट्रांसफर के मामले में शॉर्ट टर्म और लांग टर्म कैपिटल गेन पर सरचार्ज भी हटाया गया। सरकार के इस कदम का असर भी दिखा, फैसले के अगले दिन स्टॉक मार्केट में 700 अंकों तक की बढ़ोतरी देखी गई। असल में बजट में लाए गए इन प्रस्तावों से सेंसेक्स जुलाई में 4.86 फीसदी गिर चुका था। जुलाई में ऐसी गिरावट इसके पहले 17 साल पहले 2002 में देखी गई थी। 3 सितंबर तक मार्केट गिरकर 36 हजार पर आ गया। जबकि वह 3 जून 2019 को 40 हजार के उच्चतम स्तर तक चला गया था। इस अवधि में निवेशकों के 17.71 लाख करोड़ डूब गए।
कॉरपोरेट राहत
कॉरपोरेट जगत लगातार सीबीआइ और ईडी के निशाने पर है, उससे भी सेंटीमेंट में नकारात्मकता बढ़ी है। इसे दूर करने के लिए कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी (सीएसआर) नियमों के उल्लंघन को क्रिमिनल अपराध नहीं मानने का फैसला किया गया है। इसके अलावा इनकम टैक्स अधिकारियों की स्क्रूटनी से भी राहत देने की बात कही है। अर्थशास्त्री मोहन गुरुस्वामी का कहना है कि ये कदम केवल सेंटीमेंट में बदलाव लाने के लिए है। लेकिन इससे इकोनॉमी में तेजी नहीं आएगी।
बैंक पूंजीकरण
बैंकों को 70 हजार करोड़ रुपये की पूंजी सहायता सरकार जल्द से जल्द देगी। इसके अलावा 10 बैंकों के मेगा मर्जर प्लान का भी ऐलान कर दिया गया। इसके तहत अब पंजाब नेशनल बैंक, ओरिएंटल बैंक ऑफ कॉमर्स और यूनाइटेड बैंक ऑफ इंडिया का आपस में विलय होगा। इसके अलावा केनरा बैंक और सिंडिकेट बैंक का विलय होगा। इसी तरह यूनियन बैंक ऑफ इंडिया, आंध्रा बैंक और कॉरपोरेशन बैंक का आपस में विलय होगा। इलाहाबाद बैंक और इंडियन बैंक का विलय होगा। इस तरह देश में कुल 12 सरकारी बैंक रह जाएंगे। इसके अलावा होम लोन, ऑटो लोन की ब्याज दरों को रेपो रेट से लिंक करने की बात कही गई है, ताकि ग्राहकों को सस्ते कर्ज का फायदा रियल टाइम में मिल सके। बैंकर सुनील पंत का कहना है कि पैसा दिया जाना अच्छा कदम है लेकिन समस्या पैसे की नहीं है। डिमांड और पिछली घटनाओं से बैंकों के कर्ज देने के रवैए में आए बदलाव की है। देखना यह है कि सरकार उस भरोसे को कैसे वापस लाती है। इसी तरह रेपो रेट से लिंक करने के ऐलान से पहले यह समझना होगा कि अगर बैंक कर्ज की दरों को लगातार कम करेंगे तो उनको डिपॉजिट दरों को भी कम करना होगा। ऐसे में ग्राहकों द्वारा डिपॉजिट निकालने का भी खतरा बढ़ जाएगा। मेगा मर्जर प्लान पर दिल्ली प्रदेश बैंक वर्कर्स ऑर्गनाइजेशन के जनरल सेक्रेटरी अश्विनी राणा का कहना है कि इस फैसले से एचआर कन्सालिडेशन पर नकारात्मक असर होगा। साथ ही कर्मचारियों के प्रमोशन आदि के भी अवसर कम होंगे।
ऑटोमोबाइल
ऑटोमोबाइल सेक्टर को राहत देने के लिए सरकारी विभागों द्वारा वाहनों की खरीद पर रोक हटा ली गई है। स्क्रैप पॉलिसी में बदलाव की भी बात कही है। इसके अलावा मार्च 2020 तक बीएस-4 मानक वाली जितनी गाड़ियां बिकेंगी उन्हें रजिस्ट्रेशन अवधि पूरी होने तक चलाया जा सकेगा। इसके अलावा रजिस्ट्रेशन फीस में बढ़ोतरी का फैसला जून 2020 तक टाल दिया गया है। इन कदमों का ऑटो इंडस्ट्री ने स्वागत किया है।
छोटे और मझोले उद्योग
बकाया जीएसटी रिफंड को 30 दिन में देने का ऐलान किया गया। इसके अलावा भविष्य में 60 दिन में रिफंड देने का आश्वासन दिया गया है। साथ ही परिभाषा में बदलाव की बात भी सरकार ने दोहरायी है। अनिल भारद्वाज का कहना है कि जीएसटी जब लाया गया था, उस समय रियल टाइम रिफंड की बात कही गई थी। साथ ही अभी ज्यादातर रिफंड राज्यों के स्तर पर अटका हुआ है। इसकी वजह से पूंजी की समस्या बनी हुई है।