झारखंड में विधानसभा चुनाव में हुई करारी हार के बाद भाजपा सदमे से उबरने में जुटी हुई है। सदस्यता अभियान के साथ संगठन में फेरबदल की तैयारी चल रही है। पूर्व मुख्यमंत्री रघुबर दास ओडिशा के राज्यपाल की कुर्सी त्यागकर फिर पार्टी में सक्रिय हो गए हैं। वे राजनीति की मुख्यधारा से काटकर राज्यपाल की कुर्सी पकड़ा दिए जाने से नाखुश थे। वे दो बार प्रदेश अध्यक्ष की कमान संभाल चुके हैं और 2014 से पांच साल मुख्यमंत्री पद पर रहने वाले पहले भाजपा नेता हैं। शायद आदिवासी वोटों से निराशा के बाद भाजपा ओबीसी कार्ड पर भरोसा कर रही है। उसी को ध्यान में रखकर रघुबर दास को फिर से आजमाने की तैयारी है। दरअसल, प्रदेश में 50 फीसदी से ज्यादा ओबीसी वोटर हैं। शुरू में उन्हें केंद्रीय भाजपा संगठन में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दिए जाने के कयास उठे। पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के चुनाव के बाद तस्वीर साफ होगी कि रघुवर दास को भाजपा कहां फिट करती है।
विधानसभा चुनाव के पूर्व ही रघुबर दास झारखंड की सक्रिय राजनीति में लौटना चाहते थे, मगर बहू को जमशेदपुर की अपनी सीट से टिकट दिलवाकर संतोष करना पड़ा। बहू ने जीत हासिल कर जाहिर कर दिया कि रघुबर दास का इलाके में दबदबा कायम है। पार्टी को लग रहा होगा कि उनके लंबे प्रशासनिक और सांगठनिक अनुभव का फायदा मिलेगा। इधर, भाजपा ने कांग्रेस के जय बापू, जय भीम, जय संविधान अभियान के जवाब में संविधान गौरव अभियान चलाकर कार्यकर्ताओं को व्यस्त कर दिया है।
चुनाव में पराजय के बाद से भाजपा कार्यकर्ताओं में निराशा का भाव है। हार के कारणों की पड़ताल के लिए पार्टी के राष्ट्रीय संगठन महामंत्री बीएल संतोष ने हारे हुए उम्मीदवारों के साथ बैठक की थी। पार्टी विधायक दल के नेता और प्रदेश अध्यक्ष को लेकर दुविधा में है। पिछली बार भाजपा विधायक दल के नेता अमर बाउरी की हार के कारण यह पद खाली है। चार दिनों के पहले विधानसभा सत्र में भाजपा प्रदेश अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी ने ही मोर्चा संभाला। पिछले कार्यकाल में भी साढ़े चार साल से अधिक समय तक पार्टी ने विधानसभा में विरोधी दल का नेता नहीं तय कर पाई थी। भाजपा के राज्य प्रभारी लक्ष्मीकांत बाजपेयी ने कहा है कि फरवरी तक नया प्रदेश अध्यक्ष मिल जाएगा। चर्चा है कि किसी ओबीसी और आदिवासी को अध्यक्ष और नेता विरोधी दल के पद पर बैठाया जाएगा। पार्टी के भीतर नए अध्यक्ष के रूप में रघुबर दास की संभावना देखी जा रही है। नेता प्रतिपक्ष के लिए भी आधा दर्जन बार रांची से विधायक रहे विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष सीपी सिंह सहित कुछ और चेहरे भी टकटकी लगाए हुए हैं।
प्रदेश भाजपा लंबे समय से गुटबाजी का शिकार रही है। पार्टी के बड़े आदिवासी नेता एक-दूसरे की जड़ें काटने में लगे रहे। बाबूलाल मरांडी, अर्जुन मुंडा, चंपाई सोरेन, मधु कोड़ा जैसे चार पूर्व मुख्यमंत्रियों की टोली और पार्टी के जनजातीय मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष समीर उरांव के बावजूद आदिवासी सीटों पर भाजपा की दुर्गति हुई। पार्टी संगठन के स्तर पर वे पूर्व अध्यक्ष दीपक प्रकाश की कमेटी से ही काम चलाते रहे। पिछले साल जुलाई में पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष की कमान संभालने के बाद मरांडी ने प्रदेश का सघन दौरा किया, पार्टी को सक्रिय किया मगर चुनाव में कोई करामात नहीं दिखा सके।
ताजा विधानसभा चुनाव में आदिवासी वोटों के साथ-साथ कुड़मी महतो वोटों ने भी भाजपा को जबरदस्त झटका दिया। कुड़मी वोटों के लिए भाजपा अपनी सहयोगी पार्टी आजसू के भरोसे बैठी रही मगर वह कोई करामात नहीं दिखा सकी। चंद सौ वोटों से सिर्फ एक सीट पर जीत हासिल हुई। आजसू सुप्रीमो सुदेश महतो खुद अपनी सीट नहीं बचा सके। कुड़मी-महतो वोट पर पकड़ रखने वाली जयराम महतो की नई-नवेली पार्टी जेएलकेएम ने झटका दिया। उसने 15-16 सीटों का चुनाव नतीजा बदल दिया। भाजपा ने जिस चंदन कियारी से आने वाले दलित समुदाय के अमर बाउरी को विधायक दल का नेता बनाया था, वे तीसरे नंबर पर रहे। दूसरे नंबर पर जेएलकेएम का उम्मीदवार रहा। प्रधानमंत्री ने भी अमर बाउरी के पक्ष में चंदनकियारी में सभा की थी।
भाजपा सूत्रों के अनुसार जयराम महतो भाजपा से निकटता चाहते हैं। चुनाव नतीजों के बाद भी भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने जयराम महतो की वैचारिक अस्थिरता को देखते हुए उन पर दांव खेलना सही नहीं समझा। जयराम महतो से हाथ मिलाने का अर्थ आजसू से किनारा करना होगा। भाजपा को आगे की तैयारी के पहले आदिवासी वोटों के साथ-साथ कुड़मी महतो को भी साधना होगा, जो कठिन चुनौती है।