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30 नवंबर 2020 · NOV 30 , 2020

झारखंड: पहचान की लड़ाई

जनगणना में अलग धर्म के कॉलम के लिए विधानसभा में प्रस्ताव पारित, अब इसे केंद्र सरकार को भेजा जाएगा
अलग धर्म कोड के लिए रांची में प्रदर्शन करते आदिवासी

जनगणना में आदिवासियों के लिए अलग धर्म कोड कॉलम का प्रस्ताव झारखंड विधानसभा ने बुधवार, 11 नवंबर को आयोजित विशेष सत्र में पारित कर दिया। हेमंत सोरेन सरकार अब इसे केंद्र सरकार के पास भेजेगी। अगर केंद्र ने प्रस्ताव मान लिया तो अगले साल होने वाली जनगणना में यह कॉलम जोड़ा जा सकता है। इससे आदिवासियों के बीच हेमंत का कद भी बढ़ेगा। आश्चर्यजनक बात यह रही कि यह प्रस्ताव सर्वसम्मति  से पारित हुआ। अभी तक इसका विरोध करने वाली भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने भी सदन में इसका समर्थन किया।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अभी तक आदिवासियों से जनगणना फार्म में हिंदू धर्म लिखने की अपील कर रहा था। लेकिन भाजपा नेता और रघुवर सरकार में मंत्री रहे नीलकंठ सिंह मुंडा ने विधानसभा में कहा, “पहले आदिवासियों के लिए अलग कोड था, जिसे हटा दिया गया। हम सरना धर्म कोड का समर्थन करते हैं, मगर कांग्रेस ने ‘आदिवासी’ जोड़कर राजनीति की है।” दरअसल, राज्य कैबिनेट ने ‘आदिवासी/सरना’ विषय के प्रस्ताव को मंजूरी दी थी, नीलकंठ मुंडा की आपत्ति के बाद उसे बदलकर ‘सरना आदिवासी’ किया गया है। मुख्यमंत्री सोरेन ने सरकारी आंकड़ों का हवाला देते हुए कहा कि देश में आदिवासियों की आबादी कम हो रही है और उन्हें अनेक योजनाओं का लाभ नहीं मिल पा रहा है। अलग धर्म कोड से आदिवासियों को अनेक फायदे मिल सकेंगे।

झारखंड के पिछले विधानसभा सत्र के दौरान भी सरना धर्म कोड की मांग को लेकर लाखों आदिवासियों ने मानव चेन का निर्माण किया था। झारखंड में सरकार में शामिल कांग्रेस ने चलते सत्र में ही इससे संबंधित प्रस्ताव पारित करा केंद्र को भेजने का भरोसा आदिवासी संगठनों के नेताओं को दिया था। लेकिन तब यह प्रस्ताव पारित नहीं हो सका। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने सत्र के अंतिम दिन कहा था कि शीतकालीन सत्र से पहले इस आशय का प्रस्ताव केंद्र को भेजा जाएगा।

आदिवासी अलग धर्म कोड को अपने अस्तित्व और अपनी पहचान से जोड़कर देखते हैं। 1871 से 1951 तक की जनगणना में उनके लिए अलग धर्म कोड का प्रावधान था, मगर 1961 की जनगणना में इसे हटा दिया गया। इसे दोबारा लागू करने की मांग लंबे समय उठ रही है। आदिवासी संगठन इसे लेकर प्रदर्शन करते रहे हैं। 2021 में होने वाली जनगणना को देखते हुए अलग धर्म कोड का आंदोलन और मुखर होने की संभावना है।

देश में आदिवासियों के 700 से अधिक समुदायों में करीब एक सौ जनजातीय धर्म हैं। अलग धर्म कोड की पहल 2015 में भी हुई थी। तब जनगणना महानिबंधक ने सरना धर्म कोड का प्रस्ताव यह कह कर खारिज कर दिया था कि देश में सौ से अधिक आदिवासी समूह हैं। सरना की तरह अलग-अलग प्रदेशों में अलग नाम से मांग उठ रही है। नाम में एकरूपता नहीं होने के कारण यह मुश्किल है। अब संगठित प्रयास के चलते मांग साकार होने की उम्मीद जगने लगी है।

राष्ट्रीय आदिवासी धर्म समन्वय समिति के मुख्य संयोजक और पूर्व मंत्री देवकुमार धान के अनुसार सरना धर्म कोड नाम पर अड़चन को देखते हुए बड़े आदिवासी समुदायों से संपर्क किया गया। आदिवासी बहुल 15 राज्यों के प्रतिनिधियों की सितबंर 2018 में गुजरात और अगस्त 2019 में अंडमान में बैठक हुई, जिसमें ‘आदिवासी धर्म’ या ‘ट्राइबल रिलीजन’ नाम पर सहमति बनी। यह तय हुआ कि इसके साथ कोष्ठक में क्षेत्रीय समुदाय का उल्लेख रहेगा। समिति ने एक नवंबर को रांची में राज्य‍स्तरीय बैठक की। उसमें 32 आदिवासी समुदायों ने सर्वसम्मति से ‘सरना’ नाम को खारिज करते हुए ‘आदिवासी’ नाम पर सहमति जताई। सरना धर्म पर अड़ी पूर्व मंत्री गीताश्री उरांव और पूर्व विधानसभा उपाध्यक्ष देवेंद्र चंपिया भी नए नाम पर तैयार हो गए। धान कहते हैं, “1871 से नौ दशक तक जनगणना में आदिवासियों के लिए अलग धर्म कोड था, हम उसी की वापसी चाहते हैं।” हालांकि राष्ट्रीय आदिवासी समाज सरना धर्म रक्षा अभियान अब भी ‘सरना’ धर्म कोड पर अड़ा है।

कैथोलिक विशप कॉन्फ्रेंस ऑफ इंडिया के पूर्व महासचिव और कैथोलिक चर्च के सहायक बिशप एसएफएक्स रांची, थियोडोर मस्कारेन्ह्स सरना-आदिवासी धर्म कोड की वकालत करते हुए कहते हैं कि इससे धर्म परिवर्तन के विवाद पर विराम लग जाएगा। ये जो धर्म मान लेंगे, उन्हें उसी की कानूनी मान्यता मिलेगी। आदिवासियों को उनकी संस्कृति की रक्षा में भी मदद मिलेगी।

हिंदू संगठन अभी तक अलग धर्म कोड के खिलाफ रहे हैं। वे इस मांग के पीछे ईसाई मिशनरियों का खेल मानते हैं। उनकी दलील है कि 2011 की जनगणना के अनुसार देश में 11-12 करोड़ आदिवासी हैं, जिन्हें हिंदुओं से अलग करने की साजिश है।

रांची में 1995 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल की बैठक हुई थी, जिसमें सरना कोड को अलग धर्म मानने से इनकार कर दिया गया था। संघ के तत्कालीन सह सरकार्यवाह कृष्ण गोपाल ने कहा था, “सरना अलग धर्म नहीं है। संविधान के अनुसार जो ईसाई, मुस्लिम, पारसी आदि के तहत नहीं आते, वे हिंदू धर्म कोड के अधीन आते हैं। संघ भी आदिवासियों को हिंदू मानता है।” इस बयान का आदिवासी संगठनों ने जोरदार विरोध किया था। इसके 25 साल बाद फरवरी 2020 में संघ के सरकार्यवाह मोहन भागवत रांची आए तो उनका स्वर भी वही था। उन्होंने कहा, आगामी जनगणना में धर्म वाले कॉलम में आदिवासी ‘हिंदू’ लिखें, संघ इसके लिए देशभर में अभियान चलाएगा। इस बयान का भी देश के विभिन्न हिस्सों में विरोध हुआ।

विधानसभा में प्रस्ताव का समर्थन करने वाली भाजपा के सुर भी पहले विरोध के ही थे। धर्मांतरण को लेकर ईसाई मिशनरियों के साथ उसका छद्म युद्ध चलता रहता है। रघुवर सरकार के शासन के दौरान धर्मांतरण विरोधी बिल भी लाया गया। भाजपा विधायक दल के नेता बाबूलाल मरांडी कहते हैं, “मैं व्यक्तिगत तौर पर अलग धर्म कोड का विरोधी नहीं हूं। लेकिन अगर इसका मकसद अपनी पहचान और परंपरा को बचाना है, तो परंपरा कौन समाप्त कर रहा है, इसे गहराई से समझने की जरूरत है।”

मरांडी के अनुसार जो आदिवासी खुद को हिंदू लिखते हैं, सरना स्थल से उनका संबंध नहीं कटता। संतालियों की परंपरा की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि जाहेरथान मांझीथान गांव का पूजा स्थल है, जहां विवाह के बाद लोग प्रणाम करने जरूर जाते हैं। वे खुद को पिल्चोलहड़म की संतान और मारांगबुरू को ईष्ट देव मानते हैं। मरांडी का आरोप है कि मोड़ेकोतोड़ेको परंपरा को धर्म परिवर्तन के बाद समाप्त किया जा रहा है। ‘ईसाई’ नाम लिए बिना उन्होंने कहा, “ऐसा करने वाले कौन लोग हैं?”

एकल अभियान संस्था के राष्ट्रीय अभियान सह प्रमुख ललन शर्मा इसे ईसाई मिशनरियों का खेल मानते हैं। वे कहते हैं, “वे हिंदुओं से बड़ी आबादी को काटना चाहते हैं। उन पर उंगली न उठे, इसलिए धर्म कोड के नाम पर खेल रहे हैं। आदिवासियों के अनेक पर्व हिंदुओं से मिलते हैं, बस नाम अलग हैं।” शर्मा के अनुसार चंद इलाकों से ही आवाजें उठ रही हैं। सैकड़ों जनजातियां हैं, उनमें आम सहमति बनानी होगी। वे सवाल करते हैं, “जो लोग धर्म परिवर्तन कर लेंगे, क्या वे आरक्षण का लाभ छोड़ देंगे?”

ट्राइबल रिसर्च इंस्टीट्यूट (टीआरआइ), झारखंड के निदेशक रणेंद्र कुमार के अनुसार देश में आदिवासियों के सात सौ से अधिक समुदाय हैं। ये प्रकृति को परम सत्ता मानते हैं। वर्ण व्यवस्था, स्वर्ग-नरक जैसी व्यवस्था इनके यहां नहीं है। कामाख्या‍, तिरुपति, जगन्नाथ जी, शिव, काली, मनसा देवी आदिवासियों के ही देवी-देवता रहे हैं। देवियां पूर्व वैदिक काल से आदिवासी परंपरा का हिस्सा रही हैं। इसके बावजूद आदिवासी धर्म को अलग धर्म मान लिया जाए तो क्या दिक्कत है।

2011 की जनगणना के अनुसार झारखंड में करीब 86 लाख आदिवासी हैं जो कुल आबादी का 26.2 फीसदी हैं। इसमें मुख्य रूप से 70 फीसदी आबादी संताल, उरांव, मुंडा और हो जनजाति की है। तीन फीसदी आदिवासी ईसाई हो गए हैं, जो स्वास्थ्य, शिक्षा और आर्थिक मोर्चे पर सरना आदिवासियों से ज्यादा सक्षम हैं। आरक्षण का लाभ भी उन्हें ही ज्यादा मिलता है। राज्य की सरकारी नौकरियों में भी ईसाई आदिवासियों का ही वर्चस्व  दिखता है। सरना से ईसाई बने आदिवासियों को आरक्षण के लाभ से मुक्त करने की मांग भी उठती रही है। इसलिए रणेंद्र कहते हैं, “जनगणना कॉलम में आदिवासी धर्म कोड को जगह मिल भी जाती है तो धर्म परिवर्तित करने वाले आदिवासियों के आरक्षण को लेकर नया मोर्चा खुल सकता है।”

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