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बिहार/चंपारण: सरकारी अहंकार का जवाब

चंपारण की ऐतिहासिक गांधी वाटिका में सरकार ने पुरानी मूर्ति हटाकर नई मूर्ति लगाई तो लोगों ने फिर पुरानी मूर्ति स्थापित की
नई मूर्ति के साथ ग्रामीणों ने बनाई छतरी

अहमदाबाद के मिल मजदूरों और खेड़ा के किसानों की भारी मांग पर गांधी जब चंपारण से निकले तो उन्हें अपने रचनात्मक प्रयोगों, खासकर तीन स्कूलों की चिंता थी। वे बाद में भी आते रहे लेकिन आंदोलन की हवा शांत होने से यह मुहिम भी मंद हुई और गांधी निराश हुए। लेकिन इसी चंपारण के वृंदावन में जब 1939 में देश भर के रचनात्मक कामों में लगे कार्यकर्ताओं वाली संस्था गांधी सेवा संघ का अधिवेशन हुआ तो वहां अपनी पूरी मंडली के साथ पहुंचे गांधी निहाल हो गए। 1917 में उनके सामने समाज सेवा का प्रण लेने वाले प्रजापति मिश्र ने इस जगह को गांधीवादी रचनात्मक कामों की सघन प्रयोगस्थली में बदल दिया था। यहां के पचास गांवों में स्थानीय लोगों के सहयोग से (और खुद अपनी जमीन देकर) उन्होंने पचास बुनियादी विद्यालयों का सघन क्षेत्र बनाया था। वृंदावन के पास के छह गांवों में हर घर में चरखा चलाने का कार्यक्रम शुरू किया और वृंदावन में ग्राम सेवा केंद्र बनाकर ग्रामशिल्प और हस्तशिल्प के 38 ट्रेड का काम शुरू कराया था, जिसमें सूत कातना, बुनना और लोहारी, बढ़ईगीरी, घानी, मधुमक्खी पालन, गोशाला शामिल था। अधिवेशन में देश भर से आए लोगों ने पहली बार नीरा का स्वाद चखा जो ताड़-खजूर के पेड़ से सुबह निकाला गया रस होता है।

गांधी की पुरानी मूर्ति

गांधी की पुरानी मूर्ति

गांधी को इन प्रयोगों से खुशी थी और कांग्रेस सेवा संघ का इतना सफल आयोजन फिर नहीं हुआ। इस अधिवेशन में पचास हजार रुपये का चंदा हुआ था और सरदार पटेल, खान अब्दुल गफ्फार खान, राजेंद्र बाबू, समेत सारे बड़े लोग आए थे। तब तक मिश्र जी ने न सिर्फ अपना काफी कुछ लुटाकर वृंदावन सघन क्षेत्र के पचास विद्यालय खोले थे, बल्कि एक लाख रुपये जुटाकर वृंदावन में ही करीब एक सौ बीस एकड़ जमीन जमा कर ली थी जो इन प्रयोगों के लिए भवन और बागवानी-खेती में काम आती थी। तब तक यह इलाका आजादी की लड़ाई और गांधी के रचनात्मक कामों की प्रयोगस्थली के रूप में देश-दुनिया में नामी हो गया था। लेकिन असली कहानी आज यह है कि यह सारा प्रयोग मिट्टी में मिल गया है। स्थानीय स्तर पर काफी सारे लोग अब भी इसे बचाने का प्रयास कर रहे हैं मगर लूटने और बदहाल करने वालों की कमी नहीं है।

मुश्किल यह है कि इस काम में आसपास के गांववाले तो शामिल हैं ही, जिन्होंने काम बंद होते जाने के साथ जमीन हड़पना शुरू कर दिया। लेकिन कभी गांधीवादियों की देखरेख में चलने वाला ट्रस्ट सरकार के हाथ आने के बाद से हालत और बिगड़ी है क्योंकि खुद सरकार ने उलटे फैसले किए हैं। ट्रस्ट की जमीन पर जवाहर नवोदय विद्यालय खुल गया है जबकि ग्राम सेवा केंद्र का काम उसके दफ्तर के कंपाउंड तक सिमट गया है। उसमें दिखाने भर को एक करघा रखा है और सामने कुछ ध्वस्त मकान के अवशेष हैं, जिनमें गोशाला, घानी, खांड, बुनाई जैसे काम होते थे। अब ट्रस्ट के पास सिर्फ बीस एकड़ जमीन बची है। और उसका उपयोग भी बटाई पर खेती जैसा ही रह गया है। पहले यही विनोबा और भूदान की गतिविधियों का भी केंद्र था। आज उस तरह के प्रयोग भी बंद हो गए हैं।

नीतीश का नाम पट्ट

नीतीश का नाम पट्ट

लेकिन हद तो यह हो गई कि मिश्र जी और तत्कालीन लोगों ने केंद्र की एक जमीन पर गांधी वाटिका बनाई और उसमें गांधी जी की एक मोहक मूर्ति लगाई थी। चंपारण सत्याग्रह की शताब्दी के आयोजन में यहां और कुछ तो नहीं हुआ, सिर्फ पुरानी मूर्ति को हटाकर नई और बदसूरत मूर्ति लगा दी गई, जिसका अनावरण मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने रिमोट से पटना से ही कर दिया। मूर्ति के नीचे उनके नाम की पट्टी लग गई है और पुरानी मूर्ति को चौकीदार के घर में रखवा दिया गया। लेकिन यह सत्याग्रह और संघर्ष की भूमि है। लोग भी इसे बर्दाश्त करने वाले नहीं हैं। स्थानीय पंचायत ने चंदा इकट्ठा करके नई मूर्ति के समांतर ही नई छतरी बनाकर पुरानी मूर्ति लगाने का फैसला कर लिया है। यह छतरी तैयार है लेकिन अभी तक मूर्ति स्थापित करने की तारीख तय नहीं है, मगर यह नीतीश कुमार और सरकारी लोगों को स्थानीय लोगों का बढ़िया जबाब है।

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