इस बार के विधानसभा चुनावों की शायद खासियत यह है कि छोटी पार्टियां उन राज्यों में भी नतीजों को प्रभावित करने जा रही हैं, जहां मुकाबला चिर प्रतिद्वंद्वियों के बीच सीधा है। उत्तराखंड में 14 फरवरी के मतदान और 10 मार्च के नतीजों में भी यह दिख सकता है। राज्य गठन के बाद इस पांचवे विधानसभा चुनाव में मुख्य मुकाबला तो भाजपा और कांग्रेस के बीच ही है, जो बारी-बारी से दो-दो बार सत्ता में रह चुकी हैं। इस गणित से और भाजपा सरकार के खिलाफ सरकार विरोधी रुझान के चलते बारी तो कांग्रेस की है मगर पार्टी की कमजोरियां और बगावत आड़े आ सकती है। इसलिए इस बार आम आदमी पार्टी (आप), बसपा और उक्रांद जैसे छोटे असर वाले दल नतीजों में प्रभावी भूमिका निभा सकते हैं।
उत्तर प्रदेश से टूटकर बने नए राज्य उत्तराखंड के पहले चुनाव में बसपा को सात सीटें मिली थीं। लेकिन 2012 में बसपा को मात्र तीन और 2017 में एक भी विधायक नहीं मिला। यही हाल, उक्रांद का रहा, जिसके चार विधायक 2002 में जीते थे। तब उसका वोट प्रतिशत 6.36 फीसदी था, जो 2017 में एक फीसदी पर पहुंच गया। 2017 के चुनाव में सिर्फ भाजपा के वोट बैंक (46.51 फीसदी) में उछाल देखा गया। 2017 में कांग्रेस (33.49 फीसदी), बसपा (7.04) और निर्दलीय (10.38 फीसदी) के वोटों में पहले की तुलना में कमी आई। 2017 में कांग्रेस, बसपा, उक्रांद और निर्दलीय को मिलने वाले वोटों का कुछ प्रतिशत भाजपा के खाते में गया था।
इस बार भाजपा और कांग्रेस दोनों को बागी प्रत्याशियों से भी सामना करना पड़ रहा है। कांग्रेस को 2022 में भाजपा के 2017 के चुनाव में 46.51 फीसदी वोटों के माइल स्टोन को पार करना है। इसके लिए उसे 2017 में हासिल अपने वोट बैंक में लगभग 15 फीसदी से अधिक का बड़ा उछाल लाना होगा। वहीं, सरकार से नाराज मतदाताओं को अपने पक्ष में करना भी उसके लिए बड़ी चुनौती है, क्योंकि ‘आप’ इन्हीं वोटों पर अपनी चुनावी नींव मजबूत कर रही है।
दूसरी तरफ कांग्रेस के पास सरकार से नाराज और मैदानी क्षेत्रों में किसान आंदोलन से प्रभावित मतदाताओं को अपने पक्ष में करने का अवसर है। महंगाई भी चुनाव को प्रभावित करेगी। कोरोना संक्रमण के दौर में उत्तराखंड लौटे प्रवासी, जो लोग रोजगार और स्वरोजगार से नहीं जुड़ पाए, उनकी नाराजगी भी कांग्रेस को वोट बैंक के रूप में दिख रही है। इसी के मद्देनजर कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने देहरादून में घोषणा-पत्र जारी करने के दौरान रोजगार, किसानों के मुद्दों, पलायन वगैरह पर विशेष जोर दिया। प्रियंका ने अपने सबसे प्रिय महिलाओं के मुद्दे पर भी खासा जोर दिया। जाहिर है, कांग्रेस उन सभी मसलों को करीने से उठाने की कोशिश कर रही है, जो राज्य के लोगों को गहरे छूते हैं। कांग्रेस धार्मिक मुद्दों से बचती दिखी, ताकि भाजपा को उस पिच पर खेलने का मौका न मिले।
प्रियंका ने घोषणा-पत्र जारी करने और वर्चुअल रैली के दौरान चार धाम को नमन करके बात तो शुरू तो की, लेकिन फौरन वे रोजगार और किसानी के मुद्दों पर लौट आईं। उन्होंने कहा, “भाजपा रोजगार की नहीं, सिर्फ धर्म की बात करती है। पांच साल भाजपा सरकार ने हर वादे को तोड़ा। महिलाएं महंगाई और समाज का बोझ उठा रही हैं। आशा और आंगनबाड़ी महिलाएं परेशान हैं। किसानों और दलितों की मुश्किलें बेहद बढ़ गई हैं।” बजट पर प्रतिक्रिया के दौरान पूर्व मुख्यमंत्री तथा पार्टी के राज्य में चेहरे हरीश रावत ने कहा कि रोजगार और किसानों पर कोई बात नहीं की गई, इसके उलट ट्रैक्टर के टायर के दाम बढ़ाकर किसानों पर महंगाई का बोझ लाद दिया है।
लेकिन यह भी सही है कि कांग्रेस के शुरुआती उत्साह को प्रत्याशियों को लेकर पलटे गए फैसलों से झटका लगा है। पार्टी चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष हरीश रावत तक को रामनगर सीट से लालकुआं शिफ्ट होना पड़ा, जबकि रावत रामनगर से अपने नामांकन की तारीख तक घोषित कर चुके थे। डोईवाला, ज्वालापुर, लालकुआं, कालाढूंगी जैसी सीटों पर कांग्रेस ने दो दिन के भीतर अपने प्रत्याशी बदल दिए। इसके बाद कांग्रेस के नेता बगावत करके चुनाव मैदान में कूद पड़े। बेशक, पार्टी को बगावत का खामियाजा भुगतना पड़ सकता है।
बगावत भाजपा के लिए भी बड़ी मुसीबत खड़ी करने जा रही है। इसके अलावा पार्टी और सरकार के सामने नाराज मतदाताओं को भी अपने पाले में बनाए रखने और किसान आंदोलन से उपजी नाराजगी को थामने की चुनौती है। पूर्ण बहुमत के बाद भी राज्य में मुख्यमंत्रियों को बदलने से विपक्ष को बड़ा मुद्दा मिला है, जो उसके लिए बड़ी चुनौती की तरह है। टिकटों के वितरण से भाजपा में भी बगावत के स्वर उठे हैं। डोईवाला सीट पर पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत चुनाव नहीं लड़ने की घोषणा पहले ही कर चुके थे। इस सीट पर भाजपा को बगावत झेलनी पड़ रही है और स्थिति यह हो गई कि उसने यहां नामांकन का समय समाप्त होने से कुछ घंटे पहले प्रत्याशी घोषित किया। इस सीट के साथ ही लगभग एक दर्जन सीटों पर भाजपा को बगावत का सामना करना पड़ रहा है।
भाजपा के राज्य नेताओं के लिए ही नहीं, यह केंद्रीय नेतृत्व के लिए भी सिरदर्द बना हुआ है। हालांकि मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी कहते हैं, “जिन लोगों को दावेदारी के बाद भी टिकट नहीं मिल पाया है, उनसे बातचीत की गई है। जल्द ही सभी लोग मिलकर भाजपा के लिए काम करते दिखेंगे।” (देखें इंटरव्यू)। लेकिन जमीन पर हालात मुश्किल बने हुए हैं। कई बागी निर्दलीय या आप या बसपा जैसी दूसरी पार्टियों के टिकट पर लड़ रहे हैं। इसी वजह से यह संभावना बन रही है कि आम आदमी पार्टी कुछ सीटों पर मुकाबला त्रिकोणीय कर सकती है। लेकिन ‘आप’ के पास यहां बसपा जैसा अनुभव नहीं है। बसपा ने इस बार मैदानी इलाकों की सीटों पर प्रत्याशी उतारे हैं। इनमें अधिकांश कांग्रेस और आप के बागी हैं। बसपा को मिलने वाले वोटों का सीधा असर कांग्रेस के प्रत्याशियों पर ही पड़ने वाला है। इससे मुकाबला रोचक बन गया है।
इसमें दो राय नहीं कि कांग्रेस ने शुरुआती दौर में सत्तारूढ़ दल से खासी बढ़त ले ली थी, लेकिन वक्त गुजरने के साथ ही भाजपा ने दमदार तरीके से वापसी की है। फिर भी कांग्रेस कई सीटों पर अब भी आगे दिख रही है। अगर कांग्रेस ने फिर से शुरुआती दौर की स्थिति को बहाल करने में सफलता हासिल कर ली तो भाजपा के लिए मुश्किल हो सकती है। वहीं, अगर आप और बसपा ने अच्छा प्रदर्शन किया तो नतीजे त्रिशंकु हो सकते हैं।
जो भी हो, उत्तर प्रदेश की ही तरह यहां भी नतीजों पर अनिश्चितता बनी हुई है। लेकिन पिछले कुछ चुनावों में एक ही पार्टी को बहुमत देने का रुझान दिखा है। फिर भी, मौजूदा हालात यही बता रहे हैं कि छोटा असर रखने वाली पार्टियां इस बार निर्णायक हो सकती हैं। देखें 10 मार्च को ईवीएम से क्या जनादेश निकलता है।